देसिल बयना के प्रथम उद्गाता विद्यापति

।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र ।। (वरिष्ठ साहित्यकार)त्योहारों के इस मौसम में श्रद्धा और पवित्रता का अद्वितीय पर्व छठ संपन्न होते ही शरद की संध्याएं युवतियों के मधुर कंठ से निकले ‘सामा चकेबा’ के लोकगीतों से मुखरित हो उठती हैं. इसके साथ ही देश भर में मैथिल संस्थाओं द्वारा विद्यापति समारोह के आयोजन के लिए बंसकट्टी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 16, 2013 3:18 AM

।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र ।।

(वरिष्ठ साहित्यकार)
त्योहारों के इस मौसम में श्रद्धा और पवित्रता का अद्वितीय पर्व छठ संपन्न होते ही शरद की संध्याएं युवतियों के मधुर कंठ से निकले ‘सामा चकेबा’ के लोकगीतों से मुखरित हो उठती हैं. इसके साथ ही देश भर में मैथिल संस्थाओं द्वारा विद्यापति समारोह के आयोजन के लिए बंसकट्टी शुरू हो जाती है. एक लोकोक्ति के अनुसार विद्यापति का अवसान कार्तिक धवल त्रयोदशी के दिन हुआ था. उसके दो दिन बाद कार्तिक पूर्णिमा पड़ती है, जब सरकारी दफ्तरों में गुरु नानक जयंती के रूप में अवकाश रहता है.

लेकिन देश-विदेश की मैथिल संस्थाओं के लिए त्रयोदशी से पूर्णिमा तक तीन दिनों का ‘विद्यापति पर्व’ होता है, जिसे सभी अपने-अपने सामथ्र्य के अनुसार मनाती हैं. मुझेनहीं मालूम कि विश्व के किसी अन्य कवि की जयंती ‘पर्व’ के रूप में मनायी जाती है. विद्यापति ‘देसिल बयना’ यानी लोकभाषा के प्रथम शास्त्रीय महाकवि हैं. जब सारा आभिजात्य वर्ग संस्कृत में काव्य-रचना कर संतुष्टि पा रहा था, मिथिला के राज-पंडित विद्यापति ने भी संस्कृत में अनेक रचनाएं कीं, मगर उन्हें लगा कि सामान्यजन तक पहुंचने के लिए इस स्फटिक शिला से नीचे उतर कर कुश की चटाई पर बैठना होगा. तब उन्होंने उद्घोषणा की-’देसिल बयना सबअजन मिट्ठा’ यानी गांव की भाषा सब के लिए मीठी होती है.’ यही नहीं, उन्होंने अपनी नयी काव्य-भाषा को बाल चंद्रमा की तरह सुंदर भी माना-’बालचंद बिज्जापइ भासा’. उनसे पूर्व बारहवीं सदी में महाकवि जयदेव ने ‘गीत-गोविंद’ रच कर अपनी ललित पदावली से शास्त्रीय संगीत, नृत्य, चित्रकला आदि सभी विधाओं पर कब्जा कर लिया था. विद्यापति ने ‘गीत-गोविंद’ के पदों के अनुरूप लोकभाषा में पदों की रचना की, इसीलिए उन्हें ‘अभिनव जयदेव’ भी कहा गया.

संस्कृत के पंडित होते हुए भी यदि विद्यापति लोकभाषा में रचनाकर्म की ओर प्रवृत्त हुए, तो यह उस पवित्र माटी का प्रताप है, जिसमें जगन्माता सीता ने जन्म लिया था. उनके बाद विराट लोक-आधार पानेवाले परवर्ती कवि गोस्वामी तुलसीदास हुए, जिनकी भाषा अवधी थी, जो सीताजी की ही ससुराल की भाषा थी. तुलसी भी विद्यापति की तरह ही बुरे समय में पैदा हुए थे. विद्यापति का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ, जब संपूर्ण उत्तर भारत राजनीतिक दृष्टि से शक्तिहीन, सामाजिक दृष्टि से विपर्यस्त, आर्थिक दृष्टि से पंगु और नैतिक दृष्टि से लुंजपुंज हो गया था. स्वयं विद्यापति ने ‘कीर्तिलता’ में इस अपकर्ष का मार्मिक वर्णन किया है. अनुमानत: 1360 में मिथिला के बिसफी गांव में उनका जन्म हुआ था. पिता गणपति ठाकुर राजा गगनेश्वर ठाकुर के राजपुरोहित थे. इसलिए, बचपन में विद्यापति राज-दरबार में आते-जाते थे. राजा कीर्ति सिंह के दरबार में रह कर विद्यापति ने सृजन-कार्य आरंभ किया. गीतों की रचना के लिए वासंती दौर राजा शिव सिंह के शासन-काल में आया. गुणी शासक शिव सिंह और उसकी प्रेम-सौंदर्य की निधि लखिमा रानी के मधुर सान्निध्य ने विद्यापति को एक से एक श्रृंगार-गीत रचने के लिए प्रेरित किया. विद्यापति ने शिवसिंह में कृष्ण और लखिमा रानी में राधा की छवि देखी. इन गीतों को अंत:पुर की सेविकाओं ने गाना शुरू किया. बाद में राज-दरबार के संगीतज्ञों ने इन्हें राग-रागिनियों में बांधा और वैष्णव भक्तों ने इनका प्रचार-प्रसार सुदूर पूर्वोत्तर क्षेत्रों तक जाकर किया. इन गीतों को गाकर धन्य होनेवाले वैष्णव संतों-आचार्यो में बंगाल के चैतन्य देव, असम के आचार्य शंकर देव जैसे युगांतरकारी महापुरुष भी थे. पिछली सदी में रवींद्रनाथ टैगोर ने भी विद्यापति के पदों के अनुकरण में अनेक पद लिखे, जिनका संग्रह ‘भानुसिंहेर पदावली’ है.

दुर्भाग्य से, राज्याभिषेक के साढ़े तीन वर्ष बाद ही राजा शिवसिंह यवन सेना के साथ युद्ध में मारे गये, जिसके बाद विरक्त होकर विद्यापति संस्कृत में धार्मिक ग्रंथों और मैथिली में भक्तिपरक पदों की रचना करने लगे. उनका लिखा ‘वर्षकृत्य’ आज भी मैथिल समाज के कर्मकांड का अनिवार्य आधार-ग्रंथ है. जन-सामान्य को संस्कृत में पत्र-लेखन सिखाने के लिए उन्होंने ‘लिखनावली’ की रचना की. अवहट्ट में उन्होंने राजा शिवसिंह के शौर्य, ऐश्वर्य और श्रृंगार का वर्णन ‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्ति-पताका’ में किया है, जो उन्हें वीरगाथा काल के अन्य महाकवियों की पंक्ति में खड़ा करती है. अपनी पदावली के कारण विद्यापति नेपाली, बांग्ला, ओड़िया, असमिया सभी आधुनिक लोकभाषाओं के आदिकवि रहे हैं. मिथिला में विद्यापति के पद समाज के हर वर्ग में व्यक्ति के जन्म से मृत्यु तक काव्य-अभिव्यक्ति के माध्यम हैं. राधा-कृष्ण-परक श्रृंगार गीतों के अलावा उन्होने महेशवानी, नचारी, दुर्गा-स्तुति, गंगा-स्तुति आदि भी बहुत लिखे हैं. इन पदों का गायन ‘बिदापत’ नाम से होता रहा है. उनका निधन 1448 में हुआ. लगभग 88 वर्ष का दीर्घ जीवन पानेवाले विद्यापति 15 शासकों के संपर्क में रहे संस्कृत, अवहट्ट और कच्ची मैथिली में रचनाएं की. कच्ची मैथिली इसलिए कि उस समय तक यह भाषा परिनिष्ठित नहीं हुई थी.

वैसे तो विद्यापति पर्व मनाने की परंपरा रांची-कलकत्ता से लेकर दिल्ली-मुंबई तक है, मगर अपने राज्य की परती जमीन पर मिथिला-मैथिली की सकारात्मक चेतना जगाने में राजधानी पटना में बसे बुद्धिजीवियों द्वारा सत्तर के दशक में गठित ‘चेतना समिति’ की भूमिका नोडल रही है. उन दिनों ‘चेतना समिति’ के विद्यापति पर्व समारोह राज्य विधान सभा के प्रांगण में विराट मेले की तरह लगता था. स्वर-कोकिला शारदा सिन्हा से लेकर रंजना झा तक और हम जैसे कवियों से लेकर कवि-गायक रवींद्र-महेंद्र की जोड़ी तक को पहचान इसी मंच से मिली. मैथिल को एक मंच पर इकट्ठा करना बहुत कठिन है. मगर इस असंभव कार्य में यह संस्था सफल हुई और हर वर्ग और समुदाय से इसे भरपूर सहयोग मिला. यहां तक कि चैरिटी के लिए मुख्यमंत्री की पत्नी से लेकर उषाकिरण खान, प्रेमलता मिश्र ‘प्रेम’ जैसी प्रतिष्ठित मैथिलानियां इस मेले में दूकान लगाती थीं. समय बदल जाने से वह पर्व और मेला सिकुड़ गया है, मगर उसका इतिहास स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जायेगा. देश में इसी तरह की और भी संस्थाएं हैं, जिन्होंने अपने-अपने नगर में विद्यापति को माध्यम बना कर एक से एक महत्वपूर्ण कार्य किये हैं. लेकिन मिथिलांचल आज भी विद्यापति को सिरहाने रख कर सो रहा है. वहां एक भी ऐसा सभागार नहीं है, जहां राष्ट्रीय स्तर पर नाट्योत्सव किया जा सके, जबकि विद्यापति स्वयं नाटककार थे. वह दिन कब आयेगा जब विद्यापति के नाटक ‘गोरक्षा विजय’ और ‘मणि मंजरी’ को मिथिलांचल के नाट्यप्रेमी अपनी रंगशाला में मंचित होते देखेंगे?

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