अनुचित रवैया

लोकसभा में चार दिन और राज्यसभा में तीन दिनों तक संविधान और सहिष्णुता पर हुई बहसें विषयों के महत्व के कारण तो उल्लेखनीय हैं ही, इनकी विशिष्टता का एक आधार यह भी है कि चर्चा के दौरान संयत भाषण दिये गये और टीका-टिप्पणियां भी संयमित रहीं. पक्ष और विपक्ष ने एक-दूसरे की बात ध्यान से […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 3, 2015 1:18 AM
लोकसभा में चार दिन और राज्यसभा में तीन दिनों तक संविधान और सहिष्णुता पर हुई बहसें विषयों के महत्व के कारण तो उल्लेखनीय हैं ही, इनकी विशिष्टता का एक आधार यह भी है कि चर्चा के दौरान संयत भाषण दिये गये और टीका-टिप्पणियां भी संयमित रहीं.
पक्ष और विपक्ष ने एक-दूसरे की बात ध्यान से सुनी. इससे यह उम्मीद बंधी थी कि शीतकालीन सत्र में संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चलेगी. लेकिन बुधवार को राज्यसभा में हंगामे से इस आशा को बड़ा झटका लगा है. मंगलवार को कांग्रेस की कुमारी शैलजा ने अपने भाषण में द्वारका मंदिर में उनके साथ जातिगत आधार पर हुए कथित भेदभाव का उल्लेख किया था.
बुधवार को सदन के नेता अरुण जेटली ने उनके आरोपों का खंडन करते हुए कहा कि उस मंदिर में ऐसी कोई परंपरा नहीं है तथा उन्होंने मंदिर की अतिथि-पुस्तिका में शैलजा की प्रशंसात्मक टिप्पणी का हवाला भी दिया. जेटली ने उक्त सदस्या से यह भी पूछा कि उन्होंने यह मुद्दा उस समय क्यों नहीं उठाया, जबकि तब वे केंद्रीय मंत्री भी थीं.
इस पर शैलजा ने कहा कि उन्होंने अपने भाषण में मुख्य द्वारका मंदिर की बात नहीं की थी और जेटली सदन को गुमराह कर रहे हैं. दोनों तरफ से शोर के बीच केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने कह दिया कि कांग्रेस बनावटी समस्याएं और बनावटी भेदभाव उठा रही है. इस पर उत्तेजित कांग्रेस सदस्य सभापति के आसन के पास आकर हंगामा करने लगे. सभापति के बार-बार आग्रह करने पर भी जब वे नहीं हटे, तो सदन को स्थगित करना पड़ा.
बहरहाल, यह विवाद अभी तो थम गया है, लेकिन इस परिघटना से कुछ गंभीर सवाल उठते हैं. कुमारी शैलजा के बयान में अगर कहीं गलती या अस्पष्टता थी, तो उन्हें शांति से अपना पक्ष रखना चाहिए था या सदन के नेता के जवाब को स्वीकार कर लेना चाहिए था. मंत्री गोयल की टिप्प्णी का प्रतिवाद भी इसी तरीके से किया जा सकता था.
यह टिप्पणी उचित नहीं थी, पर कांग्रेस सदस्यों का आक्रामक होना किसी भी प्रकार से तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता है. इस हंगामे के चलते सदन तमिलनाडु की राजधानी चैन्ने और आसपास के इलाकों में भारी बारिश के कारण आयी भयावह बाढ़ जैसे जरूरी मुद्दे पर चर्चा नहीं कर सका. संसद देश की सबसे बड़ी पंचायत है.
उसकी बहसों और चर्चा से ही देश की समस्याओं के समाधान की राह निकलती है. किसी भी पक्ष के सदस्यों से जनता की यही अपेक्षा होती है कि वे पूरी ईमानदारी और लगन से अपनी जिम्मेवारी का निर्वहन करेंगे. अगर हमारे प्रतिनिधि सदन के किसी विवाद को शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाने की परिपक्वता नहीं दिखा पा रहे हैं, यह बड़ी चिंता का विषय है. अगर सत्तारूढ़ दल या गंठबंधन से आलोचनाओं और सवालों के प्रति सकारात्मक रुख रखने की अपेक्षा की जाती है, तो बाकी दलों से भी रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभाने की अपेक्षा होती है. कांग्रेस मुख्य विपक्ष है. इस कारण उसकी जिम्मेवारी भी बड़ी है.
हंगामा, टीका-टिप्पणी और व्यवधान डाल कर दबाव बनाना संसदीय राजनीति की परंपरा का हिस्सा जरूर है, पर वह बेमतलब, आधारहीन और अंतहीन नहीं हो सकता है. सदन नहीं चल पाने से न सिर्फ जनता की गाढ़ी कमाई बरबाद होती है, बल्कि समय पर नीतिगत फैसले नहीं लिये जाने से विकास-प्रक्रिया पर भी कुठाराघात होता है. अक्सर देखा जाता है कि समयाभाव में कई विधेयक बिना किसी चर्चा या अल्प चर्चा के बाद पारित करने पड़ते हैं.
व्यवधान के नुकसान का ताजा उदाहरण पिछला मॉनसून सत्र है. उसमें लोकसभा की उत्पादकता 48 फीसदी और राज्यसभा की उत्पादकता मात्र नौ फीसदी रही थी. प्रश्नकाल संसदीय कार्यवाही का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है. पिछले सत्र में लोकसभा में इसका रिकॉर्ड 52 फीसदी का था, तो राज्यसभा में प्रश्नकाल के निर्धारित समय के सिर्फ एक फीसदी का ही उपयोग हो सका था.
उस सत्र के ऐसे बरबाद हो जाने के कारण मौजूदा शीतकालीन सत्र पर कामकाज का दबाव बहुत अधिक है. विपक्ष द्वारा उठाये गये सवाल या मुद्दे बहुत जरूरी हो सकते हैं और उसे सत्ता पक्ष पर दबाव बनाने का भी पूरा अधिकार है. लेकिन कार्यवाही में लगातार व्यवधान डालना राजनीतिक रणनीति का तरीका नहीं हो सकता है. कांग्रेस समेत सभी विपक्षी पार्टियों को इस बात का अहसास होना चाहिए. मॉनसून सत्र इस संदर्भ में एक बड़ा सबक है.
सत्ता पक्ष को भी विपक्ष की मांगों पर नरम रुख अपनाते हुए एक सकारात्मक माहौल बनाने की कोशिश करनी चाहिए. सदन को चलाने की मुख्य जिम्मेवारी भी उसी की है. उम्मीद है कि बुधवार को जो कुछ राज्यसभा में हुआ, वह अब दोहराया नहीं जायेगा और पूरे सत्र के दौरान निर्धारित कामकाज को पूरा करने के लिए पक्ष और विपक्ष परस्पर सहयोग की नीति पर अमल करेंगे.

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