साफ पर्यावरण किसकी जिम्मेदारी!

पुष्परंजन ईयू-एशिया न्यूज के दिल्ली संपादक दिल्ली के जिस वसुंधरा इन्कलेव में मैं रहता हूं, वहां 56 हाउसिंग सोसाइटी हैं, और उसके पीछे एक गांव है, दल्लूपुरा. इस गांव में कबाड़ का कारोबार लंबे समय से फलता-फूलता रहा है.अक्सर कबाड़ी कूड़े में प्लास्टिक, रबर और रसायन जलाते हैं, जिससे आसपास के अपार्टमेंट में रहनेवालों का […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 3, 2015 1:22 AM
पुष्परंजन
ईयू-एशिया न्यूज के दिल्ली संपादक
दिल्ली के जिस वसुंधरा इन्कलेव में मैं रहता हूं, वहां 56 हाउसिंग सोसाइटी हैं, और उसके पीछे एक गांव है, दल्लूपुरा. इस गांव में कबाड़ का कारोबार लंबे समय से फलता-फूलता रहा है.अक्सर कबाड़ी कूड़े में प्लास्टिक, रबर और रसायन जलाते हैं, जिससे आसपास के अपार्टमेंट में रहनेवालों का जीना दूभर हो जाता है. पुलिस में इसकी लगातार शिकायत गयी, तब यह कुछ समय के लिए रुका. यह इसलिए नहीं रुका कि कबाड़ वाले पर्यावरण को लेकर संजीदा हैं.
यह डंडे का डर था. दिल्ली के लुटियन जोन, विदेशी दूतावासों का इलाका चाणक्यपुरी और जोरबाग को अपवाद समझें, तो शेष दिल्ली में गगनचुंबी इमारतें हैं, तो बगल में गांव या झुग्गी बस्तियां हैं. वहां शत-प्रतिशत घरों में खाना लकड़ी या कोयले के चूल्हे में पकता है. सड़कों पर कूड़े के ढेर में आग लगायी जाती है, जिसे लोग शौक, या मजबूरी से तापते हैं. यह दृश्य राजधानी दिल्ली से लेकर गांवों तक है.
जो लोग कूड़ा, प्लास्टिक, रबर, रसायनों को जलाते आ रहे हैं, उन्हें नहीं पता कि क्योतो से कोपेनहेगन तक क्या हुआ और पेरिस में 11 दिसंबर, 2015 तक किन बातों को लेकर 196 देशों के नेता, शीर्ष अधिकारी पधारे, और उनका ध्यान बंटाने के लिए दुनिया भर से जुटे चालीस हजार कार्यकर्ता सड़क पर हंै. नवंबर-दिसंबर के महीने में चेन्नई में बारिश और बाढ़ के प्रकोप से दो सौ लोग मर जाते हैं, और हमारी आत्मा सोई हुई है.
क्या सचमुच ‘मेक इन इंडिया’ और ‘स्टार्ट अप इंडिया’ में पर्यावरण जागरूकता की जगह है? 1986 में भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने राष्ट्रव्यापी पर्यावरण जागरूकता अभियान (एनइएसी) चलाया था, जिसमें देश के 29 संगठनों को जोड़ा गया था. मगर, अफसोस कि ‘एनइएसी’ से पर्यावरण जागरूकता के लक्ष्य पूरे नहीं हो सके. ‘वेस्ट मैनेजमेंट’, ‘वेस्ट डिस्पोजल’ क्या है?
‘ड्राइ’ और ‘वेट’ में से किस कूड़े को कहां रखना चाहिए? इसके बारे में जब मेट्रो शहरों में हाउसिंग सोसाइटी में रहनेवाले सुसंस्कृत, सभ्य शहरियों को पता नहीं है, तो गांव, कस्बों को हम किस बात पर कोसंे? इनसे कई गुना बेहतर वनवासियों का जीवन है, जिनके घर गोबर से लिपे, साफ-सुथरे दिखते हैं. आदिवासियों के बरतन चमचमाते मिलेंगे, और उनके घरों के गिर्द कूड़े के ढेर नहीं मिलेंगे. इन आदिवासियों ने चमचमाते झाड़ू लेकर सेल्फी खिंचाते, टीवी कैमरों के आगे मुस्कुराते नेताओं को नहीं देखा था.
पर्यावरण से ही जुड़े देश में कूड़ा बीननेवालों का सर्वेक्षण करें और इनकी हालत देखें, तो रूह कांप जाती है. ये सचमुच के देश के अंतिम आदमी हैं, जिनकी संख्या ‘इ-वेस्ट’ और औद्योगिक कूड़े के साथ तेजी से बढ़ रही है.
जिन्हें ‘स्लमडाग’ नाम दे दिया गया, उनमें पांच साल के बच्चे-बच्चियों से लेकर पैंतीस साल के युवा सबसे अधिक मिलेंगे. ये देश की जवानी है, जिन पर हमारे नेता पता नहीं क्यों गर्व करते हैं? माइकेल सिमोन ने 6 जुलाई, 2010 को ‘इंडियाज स्लमडाॅग रैगपिकर्स’ शीर्षक एक लेख में हमारे देश के कूड़ा बीननेवालों का बड़ा ही बीभत्स दृश्य प्रस्तुत किया है. सिमोन ने दिल्ली के तीन लाख और मुंबई के तीन लाख कूड़ा बीननेवालों के हवाले से जानकारी दी कि इनमें से एक लाख 20 हजार ‘रैगपीकर्स’ 14 साल से कम उम्र के बच्चे हैं, जो कूड़े के कारण भयावह रोगों से ग्रस्त हैं.
देश में कूड़े का अर्थशास्त्र पर शोध हो, तो इतना जरूर सामने आयेगा कि दुनिया के विकसित देशों ने भारत को अपना कूड़ाघर बना रखा है. गुजरात का अलंग इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जहां दुनियाभर के जंग खाये, पुराने जहाज तोड़े जाते हैं और देश भर में उसका कबाड़ बेचा जाता है. मैने स्वयं अलंग जाकर देखा है, जहां समुद्र के किनारे मीलों-मील जहाज से निकले तेल और रसायनांे, रेडियोधर्मी एस्बेस्टस ने उर्वरता व जन-जीवन समाप्त कर दिया है.
पता नहीं पर्यावरण की इतनी बड़ी क्षति मोदी जी को क्यों नहीं दिखाई देती. मुंबई शहर का समुद्री किनारा भी जहाज के कबाड़ से बजबजाता मिल जायेगा, पूरा धारावी इसी काम के लिए कुख्यात है. लेकिन कबाड़ माफिया के आगे आंख-कान काम नहीं करता.
ब्रिटिश शासन में बंगाल स्मोक न्यूसंस एक्ट-1905, बांबे स्मोक न्यूसंस एक्ट-2012, आइपीसी-1860 जैसे सख्त कानून गंदगी फैलाने से रोकने के लिए बनाये गये थे. 1974 और 1980 में वन सुरक्षा एवं जल प्रदूषण को रोकने के लिए संविधान में संशोधन किया गया. भोपाल गैस त्रासदी के बाद 1986 में पर्यावरण संरक्षण कानून लाया गया. यहां तक कि साल 2000 में ध्वनि प्रदूषण रोकने के लिए ‘न्वाॅयज पाॅल्यूशन रेगूलेशन एंड कंट्रोल रूल्स’ लाया गया.
लेकिन इनका उल्लंघन करनेवाले, लोगों की शांति व जीवन से खिलवाड़ करनेवाले कितने ‘पर्यावरण अपराधियों’ को सजा हुई है? रोजाना हम सब किसी न किसी रूप में ध्वनि प्रदूषण के शिकार होते हैं. मगर, जो लोग जितनी ढिठाई से ध्वनि की सीमाओं की धज्जियां उड़ाते हैं, लगता नहीं कि इस देश में उसे रोकने के लिए कानून भी बना है, और सजा का प्रावधान भी है.1980 के बाद के आंकड़े बताते हैं कि प्रदूषण को लेकर सबसे अधिक भारत का सर्वोच्च न्यायालय संजीदा रहा है.
नदियों को प्रदूषित करनेवाली फैक्ट्रियों को चेतावनी देने से लेकर पर्यावरण के प्रति सरकारी लापरवाही पर सुप्रीम कोर्ट ने लगातार फटकार लगाने का काम किया है. उतनी तत्परता, सरकार के बाकी अंगों में नहीं रहने के कारण लोगों का जीना दुश्वार हुआ है और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हम आलोचना के शिकार हुए हैं.
टाइम मैगजीन वाले मोदी जी की कवर स्टोरी छापते हैं, तो यह चर्चा का विषय होता है, मगर उसी टाइम मैगजीन ने 2013 में यह सर्वेक्षण छापा कि इस देश में 44 प्रतिशत प्रदूषण बढ़ा है, और हर साल छह लाख लोग इस कारण समय से पहले मौत के मुंह में जा रहे हैं, तो इसे रोकने के उपायों पर बहस नहीं होती. पेरिस पर्यावरण सम्मेलन के अवसर पर चीन की राजधानी पेइचिंग घने कोहरे व धूएं से लिपटी हुई है, और ऐसा ही दृश्य दिल्ली में भी है. पंजाब और हरियाणा के किसान यदि खेतों को फसल कटाई के बाद जलाते हैं, तो उसे रोकने की जिम्मेवारी किसकी है?
क्या सिर्फ पेरिस में भाषण दे देने से भारत 1990 से भी 40 प्रतिशत कम स्तर पर ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को 2030 तक ले आयेगा? भारत कोयले से पैदा प्रदूषण के लिए पेरिस में क्या अहद करता है, यह भी जिज्ञासा का विषय है!

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