।। प्रभात कुमार रॉय।।
(पूर्व सदस्य, नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजरी काउंसिल)
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को प्राय: भारत-पाक के मध्य बेहतर रिश्तों का पक्षधर कहा जाता है. उनके विदेश-नीति सलाहकार सरताज अजीज ने हिंदुस्तान में कदम रखते ही कश्मीर के अलगाववादी नेताओं से मुलाकात करके खुला पैगाम दे दिया कि पाकिस्तान के लिए भारत के साथ कूटनीतिक संबंधों में कश्मीर ही मुख्य मुद्दा है. यह पहली बार नहीं है. अजीज से हुर्रियत के कथित नरमपंथी धड़े के मुखिया मीरवाइज उमर फारूक के अलावा यासीन मलिक और सैयद अलीशाह गिलानी से मुलाकात को किस नजरिये से देखा जाये? यह आकस्मिक नहीं कि नवाज शरीफ के सत्तानशीन होते ही सरहद पर पाक फौज की आक्रामकता में वृद्धि हुई है. अनेक सुरक्षा विशेषज्ञों का कथन है कि सीमा पर सैन्य वारदातों को पाक नागरिक हुकूमत पर सेना द्वारा वर्चस्व स्थापित करने की कोशिशों के रूप में देखा जाना चाहिए और परस्पर कूटनीतिक रिश्तों को नये सिरे से परिभाषित करने के लिए शरीफ को थोड़ा वक्त देना चाहिए. लेकिन, संयुक्त राष्ट्र महासभा में कश्मीर मुद्दा उठा कर शरीफ ने दुनिया को दो टूक संदेश दे दिया कि भारत को अब किसी खुशफहमी में नहीं रहना चाहिए.
पाकिस्तान को सरहद पर आक्रामकता खत्म करने की दिशा में कदम उठाना चाहिए, किंतु हाफिज सईद सरीखे जेहादी सरगना को गिरफ्तार करके सलाखों के पीछे भेजने के स्थान पर शरीफ हुकूमत कश्मीर में हिंसक जेहाद जारी रखने के लिए हर मुमकिन मदद उपलब्ध करा रही है. भारत सरकार को सरताज अजीज को यह दो टूक बता देना चाहिए कि कश्मीर के आतंकवाद का अंतरराष्ट्रीयकरण करने की नापाक कोशिशों का परित्याग करके ही पाकिस्तान को परस्पर रिश्तों को सुधारने की दिशा में सक्रिय होना चाहिए. पूरी दुनिया में संभवत: भारत ही है, जो अलगाववादी नेताओं को ऐसी शर्मनाक खुली छूट देता है. गौरतलब है कि दिल्ली में संपन्न हुई हालिया बैठक में सैयद अलीशाह गिलानी, मीरवाइज फारूक, यासीन मलिक तथा आयशा अंदराबी ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के सलाहकार से मुलाकात की.
मीरवाइज कश्मीर के एक बड़े धार्मिक नेता हैं. राजनीतिक तौर से महत्वपूर्ण इलाकों, खासकर श्रीनगर में लोगों पर उनका अच्छा खासा प्रभाव है. उनकी राजनीतिक संस्था का नाम अवामी एक्शन कमेटी है. संस्था ऐलान करती है कि कश्मीर मसले का हल दो ही तरीकों- आत्म निर्णय के अधिकार अथवा त्रिपक्षीय वार्ता- नयी दिल्ली, इस्लामाबाद और जम्मू-कश्मीर के नेताओं के मध्य वार्ता से किया जा सकता है. यासीन मलिक और उनका संगठन जेकेएलएफ धर्मनिरपेक्ष करार दिया जाता है और वह कश्मीर की संपूर्ण आजादी की दुहाई देता है. हथियारों का परित्याग करके जेकेएलएफ राजनीति की मुख्यधारा में आ चुका है और उसके नेता यासीन मलिक ने नरमपंथी रवैया अपनाया है. इनके साथ अन्य उल्लेखनीय नाम हैं मरहूम अब्दुलगनी लोन, शबीर अहमदशाह, मौलाना अंसारी और अब्दुल गनी भट.
कश्मीर का एक बड़ा विशाल हिस्सा पाकिस्तान के आधिपत्य में रहा है. भारत की संसद ने सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित करके संपूर्ण कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग करार दिया. लेकिन, सरकार कश्मीर के अलगाववादी नेताओं को साजिशें रचने की खुली छूट दे रही है. भारत की एकता को दावं पर लगा कर आखिरकार क्यों सरकार अपनी अति उदार छवि को निखारने की कोशिश कर रही है? केंद्र ने बार-बार कहा है कि वह हिंसक तौर-तरीकों से प्रत्यक्ष तौर पर दूर रहनेवाले किसी भी संगठन या व्यक्ति से वार्ता को तत्पर है. किंतु, यह भुला दिया जाता है कि कश्मीर में जेहादी हिंसा के लिए नौजवानों की मानसिकता और विद्रोही राजनीतिक वातावरण तैयार करने में कथित नरमपंथी अलगाववादी नेताओं की भी जबरदस्त भूमिका रही है.
2002 में हुर्रियत नेता अब्दुलगनी लोन के पाकिस्तान दौरे से काफी पहले 1964 में जवाहरलाल नेहरू द्वारा शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तानी नेताओं से वार्ता करने के लिए भेजा गया था. यह कूटनीतिक प्रयास पंडित नेहरू की मृत्यु के कारण अधूरा रह गया. कश्मीर के प्रश्न को संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर और अलगाववादी मानसिकता के नेता शेख अब्दुल्ला पर अतिरिक्त भरोसा करके नेहरू ने जबरदस्त ऐतिहासिक गलतियां कीं, जिनके कारण कश्मीर समस्या उलझ कर रह गयी. केंद्र सरकार के नेता उन गलतियों से गंभीर सबक लेने के स्थान पर उनको आखिरकार क्यों दोहराते रहना चाहते हैं? दोनों देशों के मध्य कूटनीतिक वार्ताएं अवश्य होनी चाहिए, किंतु अलगाववादी नेताओं के माध्यम से कूटनीतिक वार्ताएं अंजाम देने का भला क्या औचित्य है?