‘लोगों का, लोगों के लिए, लोगों के द्वारा’ परिभाषा वाला लोकतंत्र आज के परिदृश्य में कुछ और ही कहानी बयान करता है. आज भीड़ ही भीड़ है, यह भीड़ लोगों की तो है, लेकिन यह न तो लोगों के लिए है और न ही लोगों के द्वारा.
इस भीड़ ने अब रैलियों की शक्ल ले ली है जिसमें लोग ही लोग होते हैं, लेकिन ये होती है राजनीतिक पार्टियों के लिए और इन्हीं के द्वारा. इसके लिए भीड़ जुटाने के तमाम हथकंडे अपनाये जाते हैं. इतनी भारी भीड़ में हल्की सी अफरा–तफरी मचने से बड़ी दुर्घटना की आशंका बढ़ जाती है.
इन हादसों के पीछे भले ही कहीं भी चूक रहती हो, लेकिन इन दुर्घटनाओं में अपनी जिंदगी खो देनेवाले लोगों को लोकतांत्रिक अधिकार के बदले क्या मिलता है? मुआवजे के दो–पांच लाख! ऐसे में कहा जाना चाहिए कि यह लोकतंत्र नहीं, बल्कि भीड़तंत्र है.
फुलेंद्र महतो, धनबाद