धर्म से आतंक को अलग करना मुश्किल

आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया मलयेशिया में पिछले महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आतंकवाद पर दो बातें कहीं. पहली यह कि इसे धर्म से अलग कर दिया जाना चाहिए, और दूसरी यह कि दुनिया के लिए यह सबसे बड़ा खतरा है. लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? कश्मीर से बाहर इसलामी आतंक से मरनेवाले […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 8, 2015 6:06 AM
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
मलयेशिया में पिछले महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आतंकवाद पर दो बातें कहीं. पहली यह कि इसे धर्म से अलग कर दिया जाना चाहिए, और दूसरी यह कि दुनिया के लिए यह सबसे बड़ा खतरा है. लेकिन क्या सचमुच ऐसा है?
कश्मीर से बाहर इसलामी आतंक से मरनेवाले भारतीयों की कुल संख्या इस वर्ष 21 है. पिछले साल मृतकों की संख्या चार थी. 2013 में 25 लोग मारे गये थे. वर्ष 2012 में एक व्यक्ति की मौत हुई थी.
पांच वर्ष से कम आयु के पांच लाख भारतीय बच्चे हर साल कुपोषण के कारण मर जाते हैं. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, दो साल से कम आयु के 40 फीसदी भारतीय बच्चे शारीरिक रूप से कमजोर हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि भारत में यौन हिंसा के 99 फीसदी पीड़ित अपराध की सूचना पुलिस को नहीं देते हैं.
किसी भी उचित मानदंड से देखें, तो भारत की सबसे बड़ी समस्या यह है कि आधी आबादी गरीब है और आधी अशिक्षित. क्या आतंकवाद इनसे बड़ा खतरा है? क्या आतंकवाद दुनिया के लिए जलवायु परिवर्तन से बड़ा खतरा है. प्रधानमंत्री ने स्वयं ही स्वीकार किया है कि चेन्नई में बाढ़ वैश्विक तापमान बढ़ने के कारण आयी है. इस त्रासदी में 280 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है. इसलिए मुझे लगता है कि समस्या के रूप में आतंकवाद को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है. यह पश्चिम के उन देशों के लिए बहुत गंभीर समस्या है, जिन्होंने गरीबी, कुपोषण और अशिक्षा जैसे मसलों को काफी हद तक सुलझा लिया है.
उनके लिए आतंकवाद उनकी सामान्य रूप से आरामदायक जिंदगी में एक सनसनीखेज झटका है. ऐसा भारतीयों की अधिकतर आबादी के लिए नहीं है.
बहरहाल, यह लेख इस मुद्दे के बारे में नहीं है. इसका मुख्य विषय प्रधानमंत्री का पहला दावा है कि आतंकवाद को धर्म से अलग कर दिया जाना चाहिए. तो, यह विलगन किस तरह से होगा? इस संदर्भ में कुछ तथ्य प्रस्तुत हैं. अगर आप तमिलभाषी हिंदू हैं और आतंकवाद के दोषी हैं, हमारे प्रधानमंत्री की हत्या के लिए आपको फांसी पर नहीं लटकाया जायेगा. तीन लोगों- मुरुगन, संतन और पेरारीवलन- को 1991 में हुए एक आत्मघाती हमले में राजीव गांधी और अन्य 14 लोगों की हत्या करने के अपराध में मृत्युदंड दिया गया था. पिछले साल यह निर्णय लिया गया था कि उन्हें फांसी नहीं दी जायेगी, और तमिलनाडु सरकार उन्हें रिहा कराने के लिए प्रयासरत है. अगर आप पंजाबीभाषी सिख हैं और एक मुख्यमंत्री की हत्या के लिए आपको मृत्युदंड दिया गया है, तो आपको फांसी पर नहीं लटकाया जायेगा. एक आत्मघाती हमले में पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह और 17 अन्य लोगों की हत्या करनेवाले बलवंत सिंह राजोना को फांसी नहीं दी गयी है. ऐसा तब है जब राजोना ने मांग की है कि उसे मार दिया जाए और उसने अपने अंगों का भी दान कर दिया है.
एक अन्य पंजाबीभाषी सिख देविंदरपाल सिंह भुल्लर को 1993 में एक कांग्रेसी नेता की हत्या करने की कोशिश के अपराध के लिए अब तक फांसी नहीं दी गयी है. एक सिंधी और गुजरातीभाषी हिंदू 97 गुजरातियों की हत्या का दोषी होने के बावजूद जेल में नहीं है. माया कोडनानी को नियमित रूप से जमानत मिलती रहती है और दोष सिद्ध होने के बावजूद वह जेल से बाहर है.
अगर आप गुजरातीभाषी मुसलिम हैं और आप पर आतंकी होने का आरोप है, तो आपको फांसी दे दी जायेगी. याकूब मेमन के परिवार का यही अनुभव है. कुछ ऐसे लोग थे, जो मेमन को फांसी नहीं देने की मांग कर रहे थे, लेकिन ये वैसे लोग थे जो मृत्युदंड के विरोधी हैं और वे सभी अपराधियों, जिनमें ऊपर उल्लिखित दोषी भी शामिल हैं, को फांसी दिये जाने का विरोध करेंगे. मेमन को गुजरातियों की ओर से कोई समर्थन नहीं मिला.
अगर आप कश्मीरीभाषी मुसलिम हैं और आतंकवाद के आरोपी हैं, तो आपको फांसी दे दी जायेगी, जैसा कि अफजल गुरु के परिवार का अनुभव है. यह भी उल्लेख किया जाना चाहिए कि अफजल गुरु के मामले में सबूतों में खामियां हो सकती हैं, पर उसे मारने में हमारे लिए यह बात बाधक नहीं बनी.
तमिलनाडु और पंजाब विधानसभाओं ने अपने राज्यों के आतंकियों को बचाने के लिए खूब दबाव बनाया. गुजरात में तो कोडनानी राज्य सरकार में मंत्री ही थी, तो उसको न सिर्फ सहानुभूति मिली, बल्कि उसके बॉस तत्कालीन मुख्यमंत्री (जो अब देश के प्रधानमंत्री हैं) ने गुजरातियों के खिलाफ किये गये उसके अपराधों की निंदा करते हुए एक शब्द भी नहीं कहा.
मैं यहां जो कुछ भी कह रहा हूं, वह कोई नयी बात नहीं है और इन मामलों में सब कुछ जगजाहिर है. जिस मुद्दे पर हम विचार कर रहे थे, उस पर लौटते हुए मेरा सवाल यह है- क्या यह दावा करना ईमानदारी और वैध है कि हमें आतंकवाद को धर्म से अलग कर देना चाहिए? और अगर कोई नेता ऐसा करना चाहता है, तो इस संबंध में उसका पहला कदम क्या होना चाहिए?
मेरी राय में ऐसा करना किसी के लिए भी, खासकर दुनिया के उस हिस्से में जहां हम बसते हैं, मुश्किल काम होगा. जैसा कि हमने देखा है, हमारे लिए किसी हिंदू या सिख आतंकी को आतंकी के रूप में देखना आसान नहीं है, भले ही उनका दोष सिद्ध हो गया हो, भले ही वे भी आत्मघाती हमले का तरीका अपनाते हों, और भले ही उनके हमलों में मुख्य निशाने के साथ निर्दोष लोग भी मारे जाते हों.
अफजल गुरु को भारत की संसद पर हमले का समर्थन करने के लिए दोषी पाया गया था. सर्वोच्च न्यायालय ने गुरु को फांसी की सजा देते हुए कहा था कि ‘समाज की सामूहिक अंतरात्मा तभी संतुष्ट होगी जब मृत्युदंड दिया जायेगा’. जब तक हम गैर-मुसलिमों को भी फांसी देने के लिए ऐसे ही तर्क नहीं गढ़ते, तब तक हम अपने दिमागों में आतंकवाद को धर्म से अलग नहीं कर सकते, ऐसा मेरा मानना है.

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