कहां गये वे नीलकंठी लोकगायक?

।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र ।। ( वरिष्ठ साहित्यकार) मेरे गांव का आंगन या दालान पहले इतना कभी सूना नहीं था, जितना आज है! जबकि पहले से ज्यादा अब गांवों में शोर-शराबा है. लेकिन यह शोर उन आवारा फिल्मी गानों का है, जो ग्रामीण परिवेश के अनुरूप नहीं हैं. इस शोर में गांव की प्राती, लगनी, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 23, 2013 4:14 AM

।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र ।।

( वरिष्ठ साहित्यकार)

मेरे गांव का आंगन या दालान पहले इतना कभी सूना नहीं था, जितना आज है! जबकि पहले से ज्यादा अब गांवों में शोर-शराबा है. लेकिन यह शोर उन आवारा फिल्मी गानों का है, जो ग्रामीण परिवेश के अनुरूप नहीं हैं. इस शोर में गांव की प्राती, लगनी, सोहर, बटगवनी, फाग-चैता, बारहमासा, नचारी, समदाउनि और मूंड़न-जनेऊ-ब्याह के अवसर पर गाये जानेवाले तमाम लोकगीत और उनके घरेलू गायक खो गये. उनको गानेवाले कोई जाने-माने कलाकार नहीं, बल्कि हमारे परिवार के ही बुजुर्ग होते थे. वे अब नहीं रहे, तो उनकी विरासत भी नहीं रही. उन्हीं लोकगीतों को आज जब आर्केस्ट्रा पर मंचीय कलाकारों या टीवी/सीडी से सुनता हूं, तो जी कसैला हो जाता है, क्योंकि वे मंच-प्रपंच की चीज ही नहीं हैं. हमारे देखते-देखते ही घर-आंगन से वे अकृत्रिम लोकस्वर लापता हो गये, जिनसे खेत-खलिहान, आंगन-दालान, गांव के थान-बथान प्राणवंत रहते थे. गांवों से अब बिदापत, जट-जटिन, लोरिक, बिहुला, सलहेस के नाच भी उठ गये.

उन लोकगायकों का कोई स्कूल नहीं होता था. वे स्वयं इस कला की ओर प्रवृत्त होते थे. बाजार की संस्कृति ने जिस मंचीय लोक-संस्कृति को जन्म दिया है, उसमें कुछ लोग, जिन्हें लोकगायन से कोई सरोकार नहीं है, ठाट से कमा-खा रहे हैं. लेकिन असली लोकगायक सड़कों पर, ट्रेनों में अपनी कला का प्रदर्शन कर भीख मांग रहे हैं, क्योंकि उनके गांव में उनकी कला से उन्हें दो जून की रोटी नहीं मिल सकती. पहले जमींदार थे, तो उनके दरबार से इनकी परवरिश हो जाती थी, मगर अब उनके वारिस या तो खुद कंगाल हो गये हैं या वैचारिक रूप से दरिद्र हो गये हैं.

जो समय के साथ तिरोहित हो गये, उनमें पमरिया और पचनियां की याद ज्यादा आ रही है. पमरिया किसी के घर बच्चा होने पर आता था और नाच-नाच कर सोहर गाता था. उसका व्यवहार, उसका नाच और उसका गीत इतना प्यारा होता था कि घर की सभी स्त्रियां अनाज और रुपया-पैसा से लेकर सोना-चांदी के गहने तक खुशी-खुशी निछावर कर देती थीं. अब नवजात शिशु का बलैया नाच-नाच कर लेनेवाला पमरिया कहीं नहीं दिखता. उसकी जगह हिजड़े आते हैं, जो आतंकित कर और गाली-गलौज कर पैसा वसूलते हैं. इसी तरह बच्चा जब कुछ बड़ा हो जाता था, तब उसे चेचक-हैजा-प्लेग आदि महामारियों से बचाने के लिए बायीं बांह में औषधि-मिश्रित सुइयों से पाचा जाता था. यह काम पचनिया करता था, झाल बजा कर गाते हुए, जिससे बच्चे का ध्यान बंटा रहे. मुङो भी पाचा गया था. आज भी मेरी बायीं बांह पर पाच के वे तीन बड़े-बड़े दाग मौजूद हैं. देश में चिकित्सा की स्थिति सुधरने के बाद अब पचनिया की जरूरत नहीं रह गयी है, मगर उसकी कमी जरूर खलती है.

लोकगायकों का एक समुदाय भाट का भी था, जो हर शुभ-अशुभ अवसर पर जोर-जोर से कवित्त पढ़ता था. लोग उसे खुशी से धोती-कुरता और विदाई देते थे. किसी-किसी गांव में उनका पूरा टोला होता था. पिछले दिनों ऐसे ही एक गांव दसौत गये थे, जहां के कई पुराने भाट मेरे परिचित थे. अब उनके परिवार के बच्चे शहरों में नौकरी करते हैं, क्योंकि इस पेशे से उनका गुजारा नहीं चल सकता. इनके पूर्वज चंद वरदाई की परंपरा में राजाओं के साथ युद्ध-स्थल पर अपनी ओजपूर्ण कविता से सैनिकों को प्रेरित करते थे और स्वयं भी तलवार भांजते थे. अब नहीं लगता कि वीर लोकगायकों की यह विरासत आगे रह पायेगी.

एक जमात गुदड़िया जोगियों की थी, जिन्हें ‘गुदड़िया बबाजी’ कहा जाता था. ये लोग पीले वस्त्र में होते थे और सारंगी पर गोपीचंद के कारुणिक गीत गाते थे. चूंकि ये बदले में फटे-पुराने वस्त्र मांगते थे, इसीलिए इनका नाम गुदड़िया पड़ा. ये गुरु गोरखनाथ संप्रदाय से संबद्ध थे और बैरागी बने गांव-गांव घूमते थे. एक तो सारंगी स्वयं करुणा उत्पन्न करनेवाला वाद्य, उस पर से राजा भरथरी और उनके बंधु राजा गोपीचंद की करुण गाथा ऐसी लय से गायी जाती थी कि सुन कर माताएं विह्वल हो उठती थीं. उनके कानों में भारी कुंडल होते थे, जिससे उनके कान फटे होते थे, इसलिए उन्हें ‘कनफट्टा बबाजी’ भी कहा जाता था. उन्हीं की तरह साधुओं का एक और समुदाय था कबीरपंथी, जिसे कबिराहा भी कहा जाता था. वे लोग कबीर के निगरुण गाते थे. वे दरवाजे-दरवाजे मांगने नहीं जाते थे, बल्कि कहीं एक जगह जमावड़ा करते थे. गांव के लोग वहां जाकर उनके गीतों को सुनते थे.

लोकगायकों का एक अत्यंत प्रभावी समुदाय कीर्तनियों का था, जो मुंडन-विवाह आदि शुभ अवसरों पर समूहबद्ध होकर ढोल-झाल-हरमुनिया पर गीत गाते थे, जो प्राय: धार्मिक होते थे. वे इष्टदेवता का चित्र रख कर उसकी परिक्रमा भी करते थे. वे अपनी कमर में गमछे से ढोल, हरमुनिया बांध कर गाते-बजाते हुए परिक्रमा करते थे. श्रोताओं को बांधे रखने के लिए वे बीच-बीच में धार्मिक प्रसंग भी उठा देते थे. वे किसी वृद्ध व्यक्ति की मृत्यु पर भी आते थे, मगर तब वे केवल निगरुण पद ही गाते थे. चूंकि गांवों में अभी अष्टयाम और नवाह के आयोजन की परंपरा जीवित है, इसलिए कीर्तनियां समुदाय पूरी तरह निमरूल नहीं हुआ है.

ये लोकगायक संगीत के मर्मज्ञ होते थे और समय-समय पर रियासतों द्वारा पुरस्कृत होते थे. सामान्यत: निचले वर्ग से आनेवाले ये कलाकार लोकगीतों और विद्यापति के पदों के साथ-साथ ‘गीतगोविंद’ के संस्कृत पदों को भी गाते थे. ऐसे ही एक लोकगायक थे दरभंगा के दरबारी दास, जिनके संस्कृत उच्चारण और शास्त्रीय राग-रागिनी को सुन कर बड़े-बड़े पंडित भी दंग रह जाते थे. कलकत्ता में उनके गायन को सुन कर बनारस की सिद्धेश्वरी बाई और फिल्मी गायक सहगल भी हतप्रभ रह गये. लोकगायक मांगनि खबास को नेपाल नरेश महेंद्रविक्रम शाह के राज्यारोहण के अवसर पर विशेष रूप से काठमांडू बुलाया गया था और जिनकी गायकी ने पूरी राजसभा को चकित कर दिया था.

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने ऐसे कलाकारों का भविष्य नष्ट कर दिया, क्योंकि वहां लोकगायन को ‘फोक-जलवा’ के रूप में परोसा जाता है. आकाशवाणी ने दशकों पहले तक इनकी कला को संरक्षित-प्रचारित करने में जो भूमिका निभायी, उसकी बदौलत विंध्यवासिनी देवी और कुमुद अखौरी जैसी लोकगायिकाएं समाज में स्थान पा सकीं. इन दिनों बहुत-से अधकचरे गायक बिना किसी तैयारी के सीडी-कैसेट बनवा कर बाजार में फैला रहे हैं, जिसका परोक्ष प्रभाव ग्रामीण संस्कारों व रुचियों पर पड़ रहा है. इसलिए जरूरत इस बात की है कि जो लोग लोकगायन के मर्मज्ञ हैं, वे नयी पीढ़ी के कलाकारों को समुचित प्रशिक्षण दें, जिससे यह विधा प्रदूषित होकर असमय काल-कवलित न हो जाये.

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