ध्यानचंद टीवी युग में होते, तो..
।। पुण्य प्रसून बाजपेयी।।सोचिए, उस वक्त टीवी युग होता तो क्या होता. उस वक्त अगर सिर्फ वर्तमान को ही इंडिया का वजूद माना जाता तो महात्मा गांधी का संघर्ष भी ध्यानचंद के जादुई खेल के सामने काफूर हो चुका होता. अब के टीवी युग की तरह उस वक्त ध्यानचंद को आजादी के बाद पीएम की […]
।। पुण्य प्रसून बाजपेयी।।
सोचिए, उस वक्त टीवी युग होता तो क्या होता. उस वक्त अगर सिर्फ वर्तमान को ही इंडिया का वजूद माना जाता तो महात्मा गांधी का संघर्ष भी ध्यानचंद के जादुई खेल के सामने काफूर हो चुका होता. अब के टीवी युग की तरह उस वक्त ध्यानचंद को आजादी के बाद पीएम की कुरसी की ही पेशकश तो नहीं कर दी जाती! अगर मौजूदा वक्त में वाकई कोई ऐसा खिलाड़ी निकल आये तो क्या होगा? सवाल सचिन तेंडुलकर को भारत रत्न मानने से आगे का है.
सचिन तेंडुलकर के भारत रत्न होने और हॉकी के जादूगर ध्यानचंद के खामोशी से दिल्ली के एम्स में मरने और देश में कोई धड़कन के न सुने जाने को क्यों समझना जरूरी है. आइए, चलते हैं टीवी युग को पीछे छोड़ 1926 से 1947 के दौर में. 21 बरस. जी, सचिन के 24, तो ध्यानचंद के 21 बरस. सचिन के कुल जमा 15,921 रन, तो ध्यानचंद के 1076 गोल. कुछ देर के लिए सचिन और अब के दौर को भूल जाइए. कल्पना की उड़ान भरें और पहुंच जाइए गुलाम भारत में संघर्ष करते कांग्रेस और मुसलिम लीग से इतर हॉकी के मैदान में. 1936 का बर्लिन ओलिंपिक. दुनिया के सबसे ताकतवर तानाशाह एडोल्फ हिटलर की देखरेख में ओलिंपिक के लिए बर्लिन शहर दुल्हन की तरह सजाया गया है.
बर्लिन इंतजार कर रहा है हॉकी के जादूगर ध्यानचंद का. जर्मनी के आखबारों में उनका नाम एक ऐसे सेनापति की तरह छापा गया है जो अंग्रेजों का गुलाम होकर भी अंग्रेजों को उनके घर में मात देता है. पहली बार 1928 में भारतीय हॉकी टीम ओलिंपिक में हिस्सा लेने ब्रिटेन पहुंचती है और 10 मार्च 1928 को एम्सटर्डम में फोल्कस्टोन फेस्टिवल. ओलिंपिक से ठीक पहले इस फेस्टिवल में जिस ब्रिटिश साम्राज्य में सूरज डूबता नहीं था उस देश की राष्ट्रीय टीम के खिलाफ भारत की हॉकी टीम मैदान में उतरती है. और भारतीय टीम ब्रिटेन की टीम को इस तरह पराजित करती है कि अपने ही गुलाम देश से हार की कसक से ओलिंपिक में ब्रिटेन खेलने से इनकार कर देता है. और हर किसी का ध्यान ध्यानचंद पर जाता है, जो महज 16 बरस में सेना में शामिल होने के बाद रेजिमेंट और फिर भारतीय सेना की हॉकी टीम में चुना जाता है और सिर्फ 21 बरस की उम्र में यानी 1926 में न्यूजीलैंड जानेवाली टीम में शरीक होता है. जब हॉकी टीम न्यूजीलैंड से लौटती है तो ब्रिटिश सैनिक अधिकारी ध्यानचंद का ओहदा बढ़ाते हुए उसे लांस-नायक बना देते हैं. क्योंकि न्यूजीलैंड में ध्यानचंद की स्टिक कुछ ऐसी चलती है कि भारत 21 में से 18 मैच जीतता है. दो मैच ड्रॉ होते हैं और एक में हार मिलती है. हॉकी टीम के भारत लौटने पर जब कर्नल जॉर्ज, ध्यानचंद से पूछते हैं कि भारत की टीम एक मैच क्यों हार गयी तो ध्यानचंद का जबाब होता है कि उन्हें लगा कि उनके पीछे बाकी 10 खिलाड़ी भी हैं. ‘तो आगे क्या होगा?’ जवाब मिलता है-’किसी से हारेंगे नहीं.’
तो बर्लिन ओलिंपिक एक ऐसे जादूगर का इंतजार कर रहा है, जिसने सिर्फ 21 बरस में दिये गये वादे को न सिर्फ निभाया, बल्कि मैदान में जब भी उतरा अपनी टीम को हारने नहीं दिया. चाहे एम्सटर्डम में 1928 का ओलिंपिक हो या सैन फ्रांसिस्को में 1932 का ओलिंपिक. और अब 1936 में क्या होगा जब हिटलर के सामने भारत खेलेगा? क्या हिटलर की मौजूदगी में जर्मनी की टीम के सामने ध्यानचंद की जादूगरी चलेगी? जर्मनी के अखबारों में ध्यानचंद के किस्से किसी सितारे की तरह तमकने लगे- ‘चांद’ का खेल देखने को पूरा जर्मनी बेताब. क्योंकि हर किसी को याद आ रहा है 1928 का ओलिंपिक. आस्ट्रिया को 6-0, बेल्जियम को 9-0, डेनमार्क को 5-0, स्विट्जरलैंड को 6-0 और नीदरलैंड को 3-0 से हरा कर भारत ने गोल्ड मेडल जीता, तो समूची ब्रिटिश मीडिया ने लिखा- यह हॉकी का खेल नहीं, जादू था और ध्यानचंद यकीनन हॉकी के जादूगर. जर्मनी के अखबार 1936 में लगातार यह छाप रहे थे जिस ध्यानचंद ने कभी भी जर्मनी की टीम को मैदान पर बख्शा नहीं, चाहे वह 1928 का ओलिंपिक हो या 1932 का, तो फिर 1936 में क्या होगा? क्योंकि हिटलर तो जीतने का नाम है. और इधर मुंबई में बर्लिन जाने के लिए तैयार हुई भारतीय टीम में भी हिटलर को लेकर किस्से चल पड़े थे. उस दिन बंबई के डाकयार्ड पर मालवाहक जहाजों को समुद्र में ही रोक दिया गया था. जहाजों की आवाजाही 24 घंटे नहीं हो पायी थी, क्योंकि ध्यानचंद की एक झलक के लिए हजारों लोग बंबई हार्बर में जुटे.
ओलिंपिक खेल लौटे ध्यानचंद का तबादला 1928 में नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस, वजीरिस्तान (अब पाकिस्तान में) में कर दिया गया, जहां हॉकी खेलना कठिन था. पहाड़ी इलाका था. मैदान था नहीं. लेकिन ओलिंपिक में सबसे ज्यादा गोल (5 मैच में 14) करनेवाले ध्यानचंद का नाम 1932 में सबसे पहले ओलिंपिक टीम के खिलाड़ियों में यह कह कर लिखा गया कि सैन फ्रांसिस्को ओलिंपिक से पहले प्रैक्टिस मैच के लिए टीम को सिलोन (श्रीलंका) भेज दिया जाये. और दो प्रैक्टिस मैच में भारत की ओलिंपिक टीम ने सिलोन को 20-0 और 10-0 से हराया. ध्यानचंद ने अकेले डेढ़ दर्जन गोल ठोंके. और उसके बाद 30 जुलाई 1932 से शुरू होनेवाले लास एंजिल्स ओलिंपिक के लिए भारतीय टीम 30 मई को मुंबई से रवाना हुई. 17 दिन के सफर के बाद 4 अगस्त को अपने पहले मैच में भारतीय टीम ने जापान को 11-1 से हराया. ध्यानचंद ने 3 गोल किये. फाइनल में मेजबान अमेरिका से ही सामना था. और माना जा रहा था कि मेजबान देश को मैच में अपने दर्शकों का लाभ मिलेगा. लेकिन भारत ने अमेरिकी टीम को 24-1 से हराया. इस मैच में ध्यानचंद ने 8 गोल किये. लेकिन पहली बार गोल ठोंकने में अपने भाई रूप सिंह से उन्हें मात मिली. क्योंकि रूप सिंह ने 10 गोल ठोंके.
1936 में जर्मनी के अखबारों में यही सवाल बड़ा था कि बर्लिन ओलिंपिक में ध्यानचंद का जादू चल गया तो क्या होगा. क्योंकि 1932 के ओलिंपिक में भारत ने कुल 35 गोल ठोंके थे और खाये महज 2 गोल थे. और तो और, ध्यानचंद और उनके भाई रूप सिंह ने 35 में से 25 गोल ठोंके थे. 1932 और 1936 के ओलिंपिक के बीच चार बरस में भारत ने 37 अंतरराष्ट्रीय मैच खेले जिसमें 34 भारत ने जीते, 2 ड्रॉ हुए और 2 रद्द हो गये. यानी भारत एक मैच भी नहीं हारा. इस दौर में भारत ने 338 गोल किये जिसमें अकेले ध्यानचंद ने 133 गोल किये. खैर, इतिहास कैसे दोहराया जायेगा इतिहास बदलनेवाले हिटलर को भी शायद इसका इंतजार था. तो ओलिंपिक शुरू होने से 13 दिन पहले 17 जुलाई को जर्मनी के साथ प्रैक्टिस मैच भारत को खेलना था. समुद्री सफर से टीम थकी हुई थी. बावजूद इसके भारत ने जर्मनी को 4-1 से हराया. और उसके बाद ओलिंपिक में बिना गोल खाये हर देश को बिलकुल रौंदते हुए भारत आगे बढ़ रहा था. जर्मनी के अखबारों में छप रहा था कि हॉकी नहीं, जादू देखने पहुंचें.
पहले मैच में हंगरी को 4-0, फिर अमेरिका को 7-0, जापान को 9-0, सेमीफाइनल में फ्रांस को 10-0 से हराया. और भारत बिना कोई गोल खाये हर किसी को हरा कर फाइनल में पहुंचा. जहां पहले से ही जर्मन टीम फाइनल में भारत का इंतजार कर रही थी. संयोग देखिए, भारत का जर्मनी के खिलाफ फाइनल मैच 15 अगस्त 1936 को पड़ा. भारतीय टीम में खलबली थी कि फाइनल देखने हिटलर भी आ रहे थे. मैदान में हिटलर की मौजूदगी से ही भारतीय टीम सहमी हुई थी. ड्रेसिंग रूम में सहमी टीम के सामने टीम के मैनेजर पंकज गुप्ता ने गुलाम भारत में आजादी का संघर्ष कर रहे कांग्रेस के तिरंगे को अपने बैग से निकाला और ध्यानचंद समेत हर खिलाड़ी को तिरंगे की कसम खिलायी कि हिटलर की मौजूदगी में घबराना नहीं है. यह कल्पना के परे था. हिटलर स्टेडियम में ही मौजूद थे. टीम ने खेलना शुरू किया और दनादन गोल दागने भी. हाफ टाइम तक भारत 2 गोल ठोंक चुका था. 14 अगस्त को बारिश हुई थी तो मैदान गीला था. और बिना स्पाइक वाले रबड़ के जूते लगातार फिसल रहे थे. उस वक्त ध्यानचंद ने हाफ टाइम के बाद जूते उतार कर नंगे पांव ही खेलना शुरू किया. जर्मनी को हारता देख हिटलर मैदान छोड़ जा चुके थे. और नंगे पांव ही ध्यानचंद ने हाफ टाइम के बाद गोल दागने शुरू किये. भारत 8-1 से जर्मनी को हरा चुका था.
बर्लिन ओलिंपिक में भारत की टीम पर जर्मनी ने ही एकमात्र गोल ठोंका था. लेकिन संयोग से यह गोल भी भारतीय खिलाड़ी तपसेल की गलती से हुआ. लेकिन तमगा देने का दिन 16 अगस्त तय हुआ और एलान हुआ कि हिटलर खुद ध्यानचंद को तमगा देंगे. इस एलान के बाद तो ध्यानचंद की आंखों की नींद उड़ गयी. समूची रात ध्यानचंद इस तनाव में सो नहीं पाये कि हिटलर कहेंगे क्या और कहीं जर्मनी की टीम को हराने पर कोई कदम उठाने का निर्देश न दे दें. इधर भारत में भी जैसे ही खबर आयी कि कि 16 अगस्त को हिटलर ओलिंपिक स्टेडियम में ध्यानचंद से मिलेंगे, वैसे ही भारतीय अखबारो में हिटलर के ऊल-जलूल निर्णयों के बारे में छपने लगा. और एक तरह की आंशका हर दिल में बैठने लगी कि हिटलर जब ध्यानचंद से मिलेंगे तो पता नहीं क्या कहेंगे. खैर वह वक्त भी आ गया. हिटलर के सामने ध्यानचंद खड़े थे. हिटलर ने ध्यानचंद की पीठ ठोंकी. नजरें ऊपर से नीचे तक कीं. हिटलर की नजर ध्यानचंद के जूतों में अटक गयी. जूते अंगूठे के पास फटे हुए थे. हिटलर ने पूछा, इंडिया में क्या करते हो. सेना में हूं- यह सुनते ही हिटलर ने ध्यानचंद की पीठ ठोंकी. क्या करते हो सेना में? पंजाब रेजिमेंट में लांस-नायक हूं. हिटलर ने तुरंत कहा जर्मनी में रह जाओ. यहां सेना में कर्नल का पद मिलेगा. ध्यानचंद ने कहा- नहीं, पंजाब रेजिमेंट पर मुङो गर्व है और भारत ही मेरा देश है. जैसी तुम्हारी इच्छा, यह कहते हुए हिटलर ने सोने का तमगा ध्यानचंद को दिया और तुरंत मुड़ कर स्टेडियम से निकल गये. ध्यानचंद की सांस में सांस आयी और दुनियाभर के अखबारों में पहली बार हिटलर के सामने किसी के नतमस्तक न होने की खबर छपी.
सोचिए, उस वक्त टीवी युग होता तो क्या होता. उस वक्त भी भावनाओं में देश बह रहा होता तो क्या होता. उस वक्त अगर सिर्फ वर्तमान को ही इंडिया का वजूद माना जाता तो महात्मा गांधी का संघर्ष भी ध्यानचंद के जादुई खेल के सामने काफूर हो चुका होता. अब के टीवी युग की तरह उस वक्त ध्यानचंद को आजादी के बाद पीएम की कुरसी की ही पेशकश तो नहीं कर दी जाती! अगर मौजूदा वक्त में वाकई कोई ऐसा खिलाड़ी निकल आये तो क्या होगा? सवाल सचिन को भारत रत्न मानने से आगे का है. क्योंकि बर्लिन से जब हॉकी टीम लौटी तो ध्यानचंद को देखने और छूने के लिए पूरे देश में जुनून सा था. और ध्यानचंद जहां जाते वहीं हजारों लोग उमड़ते. रेजिमेंट में भी ध्यानचंद जीवित किस्सा बन गये. क्योंकि जर्मनी में रहने के हिटलर के ऑफर को ठुकरा कर वह लौटे थे. ध्यानचंद को 1937 में लेफ्टिनेंट का दर्जा दिया गया. ध्यानचंद के तबादले होते रहे. सेना में वह काम करते रहे. 1945 में जब दूसरा विश्व युद्ध थमा तो 40 की उम्र में ध्यानचंद ने हॉकी से रिटायरमेंट की बात की. लेकिन देश के दबाव में वह हॉकी खेलते रहे और किसी भी देश से न हारने की जो बात उन्होंने 1926 में की थी, उसे 1947 तक बेधड़क निभाते रहे. आजादी के बाद जब भारतीय हॉकी फेडरेशन ने एशियन स्पोर्ट्स एसोसिएशन (ईस्ट अफ्रीका) से गुहार लगायी की उन्हें खेलने का मौका दे, जिससे विभाजन की आंच हॉकी पर न आये, तो एसोसिएशन ने साफ कहा कि अगर ध्यानचंद खेलने आयेंगे, तो ही भारतीय टीम आये. 23 नवंबर 1947 को जब ध्यानचंद ने 42 बरस की उम्र में टीम को जोड़ा तो उसमें दो पाकिस्तानी खिलाड़ी भी थे. दंगों और बहते लहू के बीच यह ऐसी टीम थी जो विभाजन से परे थी. टीम ने अफ्रीका में 22 मैच खेले. 61 गोल ठोंके. हारे किसी मैच में नहीं. 51 बरस की उम्र में 1956 में ध्यानचंद रिटायर हुए, तो सरकार ने पद्मविभूषण से उन्हें सम्मानित किया. लेकिन रिटायरमेंट के महज 23 बरस बाद ही यह देश ध्यानचंद को भूल गया. इलाज की तंगी से जुझते ध्यानचंद की मौत 3 दिसबंर 1979 को दिल्ली के एम्स में हुई. और ध्यानचंद की मौत पर देश या सरकार नहीं बल्कि पंजाब रेजिमेंट के जवान निकल कर आये, जिसमें काम करते हुये ध्यानचंद ने उम्र गुजार दी थी.
(लेखक के ब्लॉग से साभार. किंचित संपादित)