ज्यों-ज्यों बूड़े श्याम रंग
डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार धन के मामले में हम परंपरा से ही बहुत निस्पृह रहे हैं. उसे पाने की अभिलाषा छोड़ बाकी सब-कुछ किया हमने उसे पाने के लिए. गोधन, गजधन, वाजिधन और रतनधन खान के आगे, मतलब उन्हें पाने के बाद आनेवाले संतोष-धन के सामने सब धन धूरि समान समझा, लेकिन उस धूल […]
डॉ सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
धन के मामले में हम परंपरा से ही बहुत निस्पृह रहे हैं. उसे पाने की अभिलाषा छोड़ बाकी सब-कुछ किया हमने उसे पाने के लिए. गोधन, गजधन, वाजिधन और रतनधन खान के आगे, मतलब उन्हें पाने के बाद आनेवाले संतोष-धन के सामने सब धन धूरि समान समझा, लेकिन उस धूल को माथे से लगाने के लिए भी कम माथाफोड़ी नहीं की, लोगों की आंखों में धूल भी झोंकनी पड़ी, तो भी पीछे नहीं हटे. धनी को ही धणी यानी मालिक माना और उसी के आगे घणी खम्मा की.
कबीर जैसों के लाख समझाने के बावजूद मन को उतना नहीं रंगा, जितना धन को रंगा. पहले सफेद को काला किया और नित यही कामना करते रहे कि मोरा गोरा रंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे. इसमें इतने रमे कि ज्यों-ज्यों बूड़े श्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होते चले गये. फिर जब सरकार से हमारी बढ़ती कालिमा देखी न गयी, तो काले धन को वापस सफेद करने के लिए मनी-लांड्रिंग का सहारा लिया. जो बच रहा, उसे पीले धन यानी सोने में बदल कर सरकार की नजर लगने से बचाया.
धन के प्रति निस्पृहता की इस सनातन परंपरा के सच्चे वाहक मौजूदा साधु-संतों को देखिए, जो धन की ओर देखते तक नहीं, बस यह देखते हैं कि कोई बिना दिये न निकल पाये. इसीलिए तो वे आजकल अलग-अलग ‘सेवा’ की अलग-अलग फीस तय कर सीधे बैंक-खाते में जमा करने के लिए कहते हैं.
बिना देखे ही बैंक-बैलेंस बढ़ता रहे, जमीन-जायदाद इकट्ठी होती रहे, तो देखने की जरूरत भी क्या है? हिंदुस्तानी दुनिया में सबसे बड़ा दानी माना जाता है, पर वह भगवानों को ही दान देता है, ताकि वे करुणा से विगलित हो उसे तिगुना-चौगुना करके लौटा सकें. हालांकि, एक फिल्मी गीत के अनुसार उस करुणानिधान की क्षमता इससे लाखों गुना अधिक है- तुम एक पैसा दोगे वो दस लाख देगा. इसी आस में देश के सारे अमीर अपना काला-पीला धन लिए मंदिरों में लाइन लगाये खड़े रहते हैं, ताकि भगवान उनके एक के दस लाख कर सके.
अमीरों की इस नि:स्वार्थ दानशीलता से मंदिरों में रहनेवाले भगवान खुद बहुत धनी हो गये हैं. कई बड़े मंदिरों के पास देश से भी बड़े स्वर्ण भंडार हैं. तीन बरस पहले पद्मनाभन मंदिर के तहखाने से मिले खजाने की चकाचौंध से चुंधियाई लोगों की आंखें अभी तक सामान्य नहीं हुई हैं.
आजादी के बाद नेहरू ने उद्योगों को आधुनिक मंदिर कहा था, लेकिन आज मंदिर आधुनिक उद्योग बन चुके हैं. इन मंदिरों के पास मौजूद 50 लाख करोड़ रुपये की कीमत का कुल 22 हजार टन सोना अमेरिकी गोल्ड रिजर्व का ढाई गुना और भारतीय गोल्ड रिजर्व का चालीस गुना है. इतने पैसे से पूरा देश और बहुत-कुछ करने के अलावा दो साल तक मुफ्त में खाना खा सकता है.
फिर भी यहां लाखों लोग भूखे मरते हैं.
भारत में सोने पर सांस्कृतिक नियम लागू होते हैं, आर्थिक नहीं. यही कारण है कि अर्थशास्त्र के जो प्रोफेसर अपनी कक्षा में छात्रों को सोने के बजाय शेयर बाजार में पैसा लगाने का पाठ पढ़ाते हैं, घर लौट कर पहली फुरसत में वे अपनी बचत के बड़े हिस्से से बीवी-बच्ची के लिए गहने गढ़वाते हैं. अर्थशास्त्र के नियम अन्यत्र लोगों का जीवन बदल सकते होंगे, भारत में लोगों का जीवन ही अर्थशास्त्र के नियम बदलता है.