हायेक, फ्रीडमैन और आज की व्यवस्था

।। रविभूषण ।। (वरिष्ठ साहित्यकार) भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के ‘विकास’ से संबंधित वक्तव्यों, भाषणों से देश के भावी, आर्थिक विकास (संवृद्धि) का कोई भिन्न चित्र नहीं बनता. मनमोहन सिंह अर्थशास्त्री हैं और मोदी की अर्थशास्त्रीय समझ कितनी संपन्न-सघन है, इसे समझने में ज्यादा देर नहीं लगेगी. आज किसी भी देश […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 25, 2013 5:12 AM

।। रविभूषण ।।

(वरिष्ठ साहित्यकार)

भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के ‘विकास’ से संबंधित वक्तव्यों, भाषणों से देश के भावी, आर्थिक विकास (संवृद्धि) का कोई भिन्न चित्र नहीं बनता. मनमोहन सिंह अर्थशास्त्री हैं और मोदी की अर्थशास्त्रीय समझ कितनी संपन्न-सघन है, इसे समझने में ज्यादा देर नहीं लगेगी. आज किसी भी देश की अर्थव्यवस्था विश्व अर्थव्यवस्था से पूर्णत: स्वतंत्र नहीं है. 1970 के दशक तक अर्थशास्त्र में कीनन का बोलबाला था. इसके बाद अपनी भिन्न नीतियों के कारण थैचर और रीगन आये और बाद का दशक उनका दशक बना. विश्व में हुए विविध परिवर्तनों की दृष्टि से हमें सत्तर के दशक पर ध्यान देना होगा. विचार और चिंतन के क्षेत्र में यह कहा जाता था कि सत्तर के दशक के आरंभ तक हम जिस क्षेत्र की बात करें, हमें प्लेटो के पास जाना पड़ेगा. बाद में प्लेटो वैचारिक परिदृश्य से बाहर हुए और फूको आये. अर्थशास्त्र के क्षेत्र में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विचार-चिंतन बदलने लगे थे. 1991 में मनमोहन सिंह को भुगतान संतुलन का संकट और रुपये का अवमूल्यन दूर करने के लिए वित्त मंत्री बनाया गया था. भारतीय राज्य का चरित्र मुख्यत: इसी समय से बदलने लगा है.

आज यह जानना जरूरी है कि भारतीय अर्थशास्त्रियों में ‘हायेकवादी’ और ‘फ्रीडमैनवादी’ कौन नहीं है? आज के अर्थशास्त्रियों के प्रेरक और प्रेरणा-स्नेत कौन हैं? अभी तक मोदी ने यह नहीं बताया गया है कि उनका अर्थशास्त्रीय चिंतन क्या है? केंद्र में सरकार किसी की भी रही हो- संप्रग, संयुक्त मोर्चा और राजग की- सबकी आर्थिक सोच-समझ लगभग एक रही है. अर्थनीति को लेकर मनमोहन सिंह, अहलूवालिया, चिदंबरम और यशवंत सिन्हा में क्या सचमुच कोई मतभेद है? आगामी लोकसभा चुनाव के बाद भी सरकार किसी की बने, प्रधानमंत्री कोई हो, 1991 से जारी भारत की आर्थिक नीति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा. नेहरू पर मोदी के हमले के पीछे कुछ प्रच्छन्न कारण भी हैं. नेहरू आत्मनिर्भर भारत बनाने के लिए कृत संकल्प थे. उनकी ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र थे. मोदी सार्वजनिक क्षेत्र को कितना महत्व देंगे? कॉरपोरेट निर्भर भारत क्या आत्मनिर्भर भारत हो सकता है?

बीसवीं सदी में जिन अर्थशास्त्रियों ने विश्व की अर्थव्यवस्था को सर्वाधिक प्रभावित किया, उनमें कीन्स, हायेक और फ्रीडमैन के नाम सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं. स्कॉटिश अर्थशास्त्री जॉन मीनार्ड कींस (1883-1946) सरकार की कल्याणकारी भूमिका को महत्व देते थे. वे सरकारी हस्तक्षेप पर आधारित अर्थव्यवस्था के पक्ष में थे. अर्थशास्त्र का एक बड़ा प्रश्न सरकार और बाजार के बीच के संबंध से जुड़ा था. 1929 की महामंदी और ‘मार्केट क्रैश’ ने सरकारी हस्तक्षेप को केंद्र में ला खड़ा किया. कींस को ‘न्यू डील’ और आधुनिक कल्याणकारी राज्य का ‘बौद्धिक निर्माता’ कहा जाता है. हायेक और फ्रीडमैन कींस के कल्याणकारी राज्य की अवधारणा और सरकारी हस्तक्षेप के विरोधी थे. फेडरिक वॉन हायेक (8 मई 1899- 23 मार्च 1992) की पुस्तक ‘रोड टू सर्फडम’ (गुलामी का रास्ता) उसी वर्ष (1944) प्रकाशित हुई थी, जब ब्रेट्नवुड्स में विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का जन्म हो रहा था. हायेक ने अर्थशास्त्र के साथ दर्शन और मनोविज्ञान का भी अध्ययन किया था. उन्होंने शारीरिक और तंत्रिका के स्तर पर शिक्षा को संयुक्त किया. नवउदारवादी अर्थव्यवस्था ने हमारे चित्त और मानस को किस प्रकार प्रभावित किया है, हम नहीं सोचते. हम यह भी नहीं सोचते कि बाजार आधारित अर्थव्यवस्था का केवल भ्रष्टाचार से ही नहीं, बलात्कार, यौन-अपराध और हिंस्र आचरण से भी कोई संबंध बनता है या नहीं? बीस-पच्चीस वर्ष पहले एक जज और प्रमुख पत्रकार के यौन-अपराधों के संबंध में क्या सोचा जा सकता था? कल्याणकारी राज्य के दौर में हमारा मानस आज जैसा विकृत नहीं था.

आज आस्ट्रियन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के अर्थशास्त्री फेडरिक वॉन हायेक और शिकागो स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन को पलट कर देखने की जरूरत है क्योंकि इन दोनों अर्थशास्त्रियों ने अर्थव्यवस्था में सरकारी हस्तक्षेप को खारिज न सही, सीमित तो किया ही है. किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में सरकार की जो भूमिका होती है, उसके संबंध में कींस और हायेक के विचार एक-दूसरे के विपरीत थे. उस समय सोवियत संघ की नीति ‘सेंट्रल प्लानिंग’ पर आधारित थी. बर्लिन की दीवार ढहने और सोवियत संघ के ध्वस्त होने के बाद ‘सेंट्रल प्लानिंग’ का पूर्ववत महत्व नहीं रहा. नेहरू के समय तक ‘सेंट्रल प्लानिंग’ का महत्व था, जो धीरे-धीरे घटता गया है. हायेक ने 1960 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘दि कांस्टीटय़ूशन ऑफ लिबर्टी’ में खुले तौर पर सरकार को समाप्त करने, उद्योगों के निजीकरण, सब्सिडी समाप्त करने, सामाजिक सुरक्षा पर खर्च घटाने और ट्रेड यूनियनों की ताकत सीमित करने की बात कही थी, वे केंद्रीय बैंक के निजीकरण के पक्ष में थे. इसके दो वर्ष बाद 1962 में फ्रीडमैन की पुस्तक ‘कैपिटलिज्म एंड फ्रीडम’ प्रकाशित हुई.

हायेक और फ्रीडमैन के विचार मुक्त बाजार के हैं. मार्गरेट थैचर और रोनाल्ड रीगन ने इन्हें अपनाया. हायेक मुख्य समस्या सरकार की ‘सेंट्रल प्लानिंग’ मानते थे. आज अधिसंख्य भारतीय अर्थशास्त्री ‘मुक्त बाजार’ के प्रवक्ता और पैरोकार हैं. ऐसे अर्थशास्त्री कम नहीं हैं, जो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से भारत सरकार के विभिन्न संस्थानों में आते हैं और फिर वहीं वापस हो जाते हैं. आज अगर भारत का आर्थिक परिदृश्य नवउदारवादी अर्थव्यवस्था और मुक्त बाजार के हिमायती होने के कारण बदला हुआ दिखता है, तो इसके मुख्य सिद्धांतकार हायेक और फ्रीडमैन हैं. आज की राजनीति भी इस मुक्त उदारवादी अर्थव्यवस्था से प्रभावित है. अर्थशास्त्र के जागरूक छात्र-अध्यापक यह जानते हैं कि 1973 में सीआइए ने चिली में निर्वाचित सरकार का तख्तापलट करवाया था और मुक्त बाजार की आर्थिक नीतियां लागू करायी थीं. मुक्त बाजार को अपने लिये एक कठोर सरकार और तानाशाह की जरूरत होती है. तानाशाह किसी भी वेश में आ सकता है. मीडिया मुक्त बाजार के समर्थन में है और नरेंद्र मोदी वहां छाये हुए हैं. अभी पानी, बिजली, जंगल, खनिज का एक अखिल भारतीय बाजार बन रहा है. भारतीय राज्य में दरारें आ चुकी हैं. अच्छी बात यह है कि देश में विदेशी पूंजी निवेश और खुली अर्थव्यवस्था के विरोधी अब भी हैं. क्या सचमुच मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी में कोई अंतर है? सिवा इसके कि एक चुप है और दूसरा बड़बोला आक्रामक?

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