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सिक्कों की खनक में खो गयीं खुशियां

पड़ोस के एक चाचाजी की बेटी की शादी थी. स्नेहा उनकी इकलौती और लाडली बेटी है, इसलिए वह शादी में कोई कमी नहीं रहने देना चाहते थे. बगलवाली सुषमा आंटी दोपहर में हमारे घर आयीं, यह पूछने कि हम कब जा रहे हैं, क्योंकि उन्हें भी हमारे साथ गाड़ी में चलना था. आंटी ने बताया […]

पड़ोस के एक चाचाजी की बेटी की शादी थी. स्नेहा उनकी इकलौती और लाडली बेटी है, इसलिए वह शादी में कोई कमी नहीं रहने देना चाहते थे. बगलवाली सुषमा आंटी दोपहर में हमारे घर आयीं, यह पूछने कि हम कब जा रहे हैं, क्योंकि उन्हें भी हमारे साथ गाड़ी में चलना था.

आंटी ने बताया कि लड़का (दूल्हा) फ्रांस में एचआर मैनेजर है. लड़के के पिता मंत्री रह चुके हैं, भाई ‘गूगल’ में इंजीनियर है. मां मुंबई में इंटीरियर डिजाइनर है. तभी मैंने आंटी से पूछा-सबके सब नोट छापने में लगे हैं, परिवार कौन संभाल रहा है? उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा- बेटी, आजकल पैसा ही सब कुछ है.

मैंने कहा-जब पैसा ही सब कुछ है, तो लोग पैसा ही क्यों नहीं खाते, पैसे से इनसान क्यों नहीं पैदा होता? आंटी ने मुङो रोकते हुए कहा, पैसे से तो इनसान जन्म ले ही रहा है. लोग सरोगेट मदर या टेस्ट ट्यूब बेबी के जरिये अपनी सूनी गोद भर रहे हैं कि नहीं? मैं चुप हो गयी और इस उपयोगितावादी समाज के बारे में सोचने लगी.

लड़के की नौकरी, गाड़ी, मकान, नौकर-चाकर आदि के बारे में लोग खूब बात कर रहे थे, पर लड़के और उसके परिवार के चरित्र, स्वभाव, व्यक्तित्व के बारे में किसी ने जिक्र तक नहीं किया. मुङो चिंता होने लगी कि सिक्कों की खनखन के बीच स्नेहा की मासूम खिलखिलाहट की फिक्र कौन करेगा.

भारी मन से मैं तैयार होने चली गयी. घर से निकलते ही सुषमा आंटी फिर शुरू हो गयीं-राजस्थान और यूपी से हलवाई बुलाये गये हैं.. और न जाने क्या-क्या. बारात लड़की के घर के सामने पहुंच चुकी थी. पर बैंड-बाजे की आवाजकम और मोटरगाड़ियों की रेलम-पेल से मचा शोर ज्यादा सुनायी दे रहा था. हम गाड़ी खड़ी कर जैसे ही उतरे, एक जोर की चिल्लाहट सुनायी दी.

आंटी ने पूछा, यह कौन चिल्ला रहा है? मैंने चुटकी ली, लगता है कि इन लोगों ने चिल्लानेवाले को भी बुलाया है. मेरी बात पर लगे ठहाके के बीच मैंने उन्हें बताया कि यह कोई चिल्ला नहीं रहा, बल्कि हनी सिंह का गाना है. बराती आतिशबाजी कर रहे थे. ऐसी कि आसमान थर्रा जाये. दूर-दूर तक सिर्फ खाने के स्टॉल नजर आ रहे थे और सूट, मिनीस पहने पुरुष व महिला वेटर.

आंटी ने कहा, यहां तो मेहमानों से ज्यादा वेटर दिख रहे हैं. मैंने जवाब दिया- जहां लोगों से ज्यादा व्यंजन हों, वहां यह तो होना ही है. खा-पी कर हम लोग जयमाला के स्टेज तक पहुंचे. एक बेढब-सा अधेड़, दूल्हा बना बैठा था. मैं समझ गयी कि यहां लोगों ने लड़के की हैसियत को तवज्जो दी है, बेटी की पसंद को नहीं.

मैंने सोचा कि पहले लोग कम पढ़े-लिखे थे इसलिए बाल विवाह करवाते थे. उन्हें बस लड़की को ‘निबटा’ कर गंगा नहाने से मतलब होता था. लड़का कुछ करे न करे, जैसा भी दिखे, बस शादी कर दो. पर अब लोग पढ़-लिख कर भी अनपढ़ हो गये हैं. कोई करे भी क्या, जब बड़े लोग ही इसी रास्ते पर चल रहे हैं?

महाजनो येन गत: स पंथा..

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