खतरे नौकरशाही के राजनीतीकरण के
नौकरशाही से राजनीति में प्रवेश की परंपरा अनोखी नहीं है, लेकिन इसके अपने खतरे भी हैं. इसमें इस बात का खतरा सबसे ज्यादा होता है कि राजनीति में प्रवेश को इच्छुक कुछ नौकरशाह निर्णय लेते वक्त पूर्वाग्रह के साथ काम करें. यह लोकतंत्र के लिए अच्छी स्थिति नहीं कही जा सकती है. इस स्थिति को […]
नौकरशाही से राजनीति में प्रवेश की परंपरा अनोखी नहीं है, लेकिन इसके अपने खतरे भी हैं. इसमें इस बात का खतरा सबसे ज्यादा होता है कि राजनीति में प्रवेश को इच्छुक कुछ नौकरशाह निर्णय लेते वक्त पूर्वाग्रह के साथ काम करें. यह लोकतंत्र के लिए अच्छी स्थिति नहीं कही जा सकती है.
इस स्थिति को रोकने के लिए भारत का चुनाव आयोग नौकरशाहों के नौकरी से हटने के तुरंत बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल होने पर रोक लगाना चाहता है. आयोग की मांग है कि नौकरी छोड़ने और राजनीतिक दल में शामिल होने के बीच एक निषेध अवधि (कूलिंग ऑफ पीरियड) होनी चाहिए.
लेकिन, केंद्र सरकार ने इस प्रस्ताव को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और चुनाव लड़ने के अधिकार का हनन करनेवाला बताते हुए खारिज कर दिया है. एक मायने में केंद्र सरकार का तर्क गैरवाजिब नहीं है, लेकिन यहां लोकसेवकों के विशिष्ट अधिकारों और जवाबदेहियों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए. भारत में चुनाव नौकरशाही के द्वारा ही कराये जाते हैं. ऐसे में किसी नौकरशाह की निष्पक्षता का सवालों के घेरे में होना, चुनाव प्रक्रिया पर नकारात्मक असर डाल सकता है.
चुनाव आयोग का कहना है कि वह नौकरशाहों के चुनाव लड़ने के खिलाफ नहीं है, बस उनके राजनीतीकरण पर रोक लगाना चाहता है. यहां यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि देश में पहले से ही कुछ महत्वपूर्ण पदों पर काम करनेवाले व्यक्तियों की निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए उनके पद छोड़ने के बाद लाभ के पदों पर काम करने पर रोक या शर्ते लगायी गयी है. ऐसा इसलिए किया गया है ताकि वे अपने जिम्मेवारियों का निर्वाह करते वक्त ‘भविष्य’ का ध्यान न रखें.
हाल के वर्षो में जिस तरह से राजनीति को प्रशासनिक सेवा के बाद के ‘कैरियर विकल्प’ के तौर पर देखने की प्रवृत्ति बढ़ी है, उसके मद्देनजर चुनाव आयोग के प्रस्ताव को निष्पक्षता सुनिश्चित करने की वाजिब चिंता से जोड़ कर देखा जाना चाहिए. यह एक मान्य तथ्य है कि देश में भ्रष्टाचार की मूल जड़ मौजूदा चुनाव प्रक्रिया में निहित है. सरकार को चुनाव आयोग के प्रस्ताव के औचित्य का ध्यान रखते हुए ऐसे रास्ते की तलाश करनी चाहिए, जो संविधान और तर्कसम्मत तो हो ही, लोकतंत्र को स्वच्छ बनाने में मददगार भी हो.