लोकतंत्र या मनतंत्र!

तमाम आलोचनाओं के बावजूद कांग्रेस संसद की कार्यवाही को बाधित करने की अपनी रणनीति से टस-से-मस होने के लिए तैयार नहीं दिख रही. दिन बदलने के साथ उनके मुद्दे भले बदल जा रहे हों, सदन के भीतर रवैया नहीं बदल रहा. पिछले कुछ दिनों से कांग्रेसियों के हंगामे की वजह से संसद की कार्यवाही का […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 15, 2015 6:55 AM

तमाम आलोचनाओं के बावजूद कांग्रेस संसद की कार्यवाही को बाधित करने की अपनी रणनीति से टस-से-मस होने के लिए तैयार नहीं दिख रही. दिन बदलने के साथ उनके मुद्दे भले बदल जा रहे हों, सदन के भीतर रवैया नहीं बदल रहा. पिछले कुछ दिनों से कांग्रेसियों के हंगामे की वजह से संसद की कार्यवाही का बार-बार बाधित होना रोजमर्रा की बात बन गयी है.

बड़ा खतरा यह है कि जब कोई चीज आये दिन की बात बन जाती है, तब उसे सामान्य समझ का हिस्सा मान लिया जाता है. मान लिया जाता है कि ऐसा तो होता ही रहता है. ऐसा मानने के साथ आलोचना-बुद्धि कुंठित हो जाती है, अच्छे-बुरे के बीच भेद कर विवेकपूर्वक साझा हित के बारे में सोचने और चेतने का विचार दम तोड़ जाता है. डर यह है कि आये दिन संसद का बाधित होना कहीं लोकतंत्र को पोसनेवाले इस विचार को ही ध्वस्त न कर दे कि जनप्रतिनिधियों की सर्वोच्च संस्था संसद जनहित और जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है.

संसद का शीतकालीन सत्र 23 दिसंबर तक चलना है. इस दौरान राज्यसभा में 16 विधेयकों पर विचार होना है. इसमें जीएसटी, रीयल इस्टेट और व्हिसल ब्लोअर बिल जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण विधेयक शामिल हैं. लेकिन, हंगामा कर सदन को बाधित करने पर अड़ी कांग्रेस ने सोमवार को कुछ अन्य मुद्दों के साथ पंजाब के अबोहर में एक शराब कारोबारी के फार्म हाउस पर दो युवकों के हाथ-पैर काट दिये जाने का मुद्दा उठाया. कायदे से इस मुद्दे के खिलाफ पार्टी की यह सक्रियता पंजाब की धरती पर दिखनी चाहिए थी, जो नहीं दिखी.

इससे संसद की कार्यवाही को लेकर उसकी मंशा पर सवाल उठना स्वाभाविक है. सोमवार को राज्यसभा में फैली अराजकता से दुखी उपसभापति पीजे कुरियन की इस कड़ी टिप्पणी का भी असर नहीं दिखा, ‘यह अलोकतांत्रिक और दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ लोग सदन की कार्यवाही को हाइजैक करने की कोशिश कर रहे हैं. अगर आपको काेई दिक्कत है, तो सीट पर जाएं, मैं आपको अपनी बात उठाने का मौका दूंगा.’

यहां तक कि कांग्रेस ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की उस चिंता पर भी ध्यान नहीं दिया, जो एक दिन पहले उन्होंने कोलकाता में पंडित जवाहर लाल नेहरू की स्मृति में आयोजित कार्यक्रम में व्यक्त किया था. महामहिम ने कहा था कि ‘संसद की कार्यवाही तीन डी : डिबेट (बहस), डिसेंट (मतभेद) व डिसीजन (निर्णय) के तहत चलनी चाहिए. सदन में हंगामे से कुछ हासिल नहीं किया जा सकता. चौथा डी डिसरप्शन (व्यवधान उत्पन्न करना, हंगामा) के लिए कई अन्य स्थान उपलब्ध हैं.’

हद तो यह है कि हालिया संसदीय इतिहास में कांग्रेस ने सत्ता में रहते हुए संसद नहीं चलने को लेकर जो चिंताएं जाहिर की थीं, सत्ता से बाहर होने पर खुद उन्हीं चिंताओं को बढ़ा रही है.

वर्ष 2012 में संसद का मॉनसून सत्र पूरी तरह बाधित रहा था. विपक्ष अड़ा था कि कोल-ब्लॉक आवंटन मामले में फंसी यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दें. तब कांग्रेस की तरफ से बताया गया था कि संसद एक साल में कम-से-कम 80 दिन चलती है और दोनों सदनों में रोजाना कम-से-कम छह घंटे कामकाज होता है. अगर संसद पर होनेवाले सालाना खर्च के हिसाब से देखें, तो कार्यवाही के लिए प्रति मिनट सरकारी खजाने से ढाई लाख रुपये का व्यय करना पड़ता है.

तब संसदीय मामलों के मंत्री पवन कुमार बंसल ने कहा था कि विपक्ष को इस बात का तनिक भी ख्याल नहीं है कि उसके हंगामे से जनता की गाढ़ी कमाई का कितना पैसा बरबाद हो रहा है. तो क्या कांग्रेस अब यह जताना चाहती है कि अच्छी बातें सिर्फ दूसरों को उपदेश देने के लिए होती हैं, खुद अमल करने के लिए नहीं? जनता की गाढ़ी कमाई हंगामे की भेंट चढ़ने का कांग्रेस का वर्ष 2012 का अपना तर्क क्या तीन साल बाद उसे एकदम ही याद नहीं? इस साल मॉनसून सत्र भी ठप रहा था. इसकी बड़ी वजह भी कांग्रेस का यह अविचारित संकल्प ही था कि संसद को नहीं चलने देना है. लोकतंत्र किसी व्यक्ति, जन-समूह या संस्था की स्वेच्छाचारिता पर व्यापक जनहित को ध्यान में रख कर अंकुश लगानेवाली राजनीतिक व्यवस्था का नाम है.

यह अंकुश विधि को सर्वोपरि मान कर लगाया जाता है और विधि से सभी बंधे होते हैं. लेकिन, अफसोस, पिछले कुछ दिनों से सदन के भीतर कांग्रेसियों का व्यवहार विधि से बंध कर चलने का संकेत भी नहीं दे रहा है. ऐसा लगता है कि कांग्रेसी सांसद अपने आलाकमान की इच्छा को ही सर्वोपरि मान कर चल रहे हैं. किसी नेता में इससे इतर कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं है.

देश की आजादी के संग्राम से उपजी पार्टी का यह रूप पिछले कुछ वर्षों से उसके अलोकप्रिय होते जाने का कारण बन रहा है. यह समय विधायिका को ठप करने का नहीं, बल्कि पिछली गलतियों से सीख लेते हुए उसे सजग, सुचारु और कार्यशील बनाने का है. याद रहे, विधायिका को ठप करना लोकतंत्र को ठप करने जैसा है.

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