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चुनावी भरोसों से भरोसा उठा

चुनावी चौसर पर किसी को साठ साल मिले, किसी को साठ दिन चाहिए हमारी किस्मत बदलने का दावा करने वाले चौकीदारों को. जी हां, ये हैं तो चौकीदार ही. दुनिया में हमारा सिर ऊंचा रह सके इसलिए हमने इनको सूबेदार बना दिया. इनको तवज्जो हमने इसलिए दी थी कि हमारे अमन-चैन पर बुरी नजर डालने […]

चुनावी चौसर पर किसी को साठ साल मिले, किसी को साठ दिन चाहिए हमारी किस्मत बदलने का दावा करने वाले चौकीदारों को. जी हां, ये हैं तो चौकीदार ही. दुनिया में हमारा सिर ऊंचा रह सके इसलिए हमने इनको सूबेदार बना दिया. इनको तवज्जो हमने इसलिए दी थी कि हमारे अमन-चैन पर बुरी नजर डालने वालों की नींदें हराम कर दें.

अब तो हमारी नजरें ही पथराने लगीं हैं. पिछले साठ सालों में हमारी किस्मत बदल न सकी तो साठ दिनों में क्या हो जायेगा? एक बात जरूर है चौकीदार आयेंगे और सूबेदार बन जायेंगे. हम तो रास्ते के पत्थरों जैसे ठोकर खाते, उड़ती धूल के गुबार ही देखते रह जायेंगे.

गुजरे कुछ सालों में दिमाग की नसों ने इतने झटके खाये हैं कि अब यह अंदाज लगाना मुश्किल नहीं होता कि विरासत में मिले खाली खजाने को खंगालने में ही साठ दिन निकल जायेंगे. घोटालों की जांच में ही वक्त सरपट निकल जायेगा. आने वाले सूबेदार गड़े मुर्दे उखाड़ते रह जायेंगे. हमारे हिस्से में तो बचेगा नीला आसमान, भव्य मंदिर का सपना और जमीन के अंदर छिपा सपनों का खजाना. वह तोता जिसे पिंजरे से बाहर निकालने के लिए सब उतावले हो रहे हैं, बाहर आ भी जाये तो फड़फड़ा नहीं पायेगा और फिर वापस पिंजरे में ही आ गिरेगा.

वैसे हमारे देश में ‘हिज मास्टर्स वॉयस’ भी काफी चर्चित रहा है. माना कि ग्रामोफोन के दिन लद गये, लेकिन अब ट्विटर तो चहकेगा! साठ दिन ही क्यों साठ महीने ले लें, बदले में बेखौफ मुकम्मल जिंदगी का भरोसा तो दें. लेकिन अफसोस! इन चुनावी भरोसों ने ऐसा भरोसा तोड़ा है कि भरोसे से ही भरोसा उठ गया.

एमके मिश्र, रांची

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