।। राजीव रंजन झा ।।
(संपादक, शेयर मंथन)
लक्ष्मी पूजक देश भारत से लक्ष्मी शताब्दियों से रूठी हुई हैं. कोई युग रहा होगा, जब इसे सोने की चिड़िया कहा गया. यहां तक मुगल सत्ता के क्षीण पड़ जाने पर भी व्यापारियों की तरह आये अंगरेजों को मुगल बादशाह के दरबार में हाजिरी लगा कर भेंट-उपहार वगैरह देने के लिए महीनों इंतजार करना पड़ता था. लेकिन अब दीपावली के दिन पूजन के लिए लक्ष्मी-गणोश की मूर्तियां भी चीन से आ रही हैं. इस दीपावली पर लक्ष्मी के स्वागत के लिए घर-आंगन को सजानेवाली जलती-बुझती लड़ियां जब आपने अपनी दीवारों और दरवाजों पर सजायी होंगी, तो आपके मन में शायद ही यह बात आयी होगी कि अरे, इन लड़ियों ने तो थोड़ी लक्ष्मी भारत से चीन भेज दी. यह तो लक्ष्मी का स्वागत करने के बदले उनकी विदाई करना हो गया!
लोग इस बात से अनजान नहीं रहते. कुछ के मन में यह बात आ भी जाती है, क्योंकि समाचार चैनल और अखबार इस बारे में हर साल खबरें जरूर देते हैं. फिर भी जब वे बाजार जाते हैं, तो उनके लिए अपने सामने उपलब्ध चीजों में से चुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता.
वैसे तो चीन के बने सामानों की गुणवत्ता को लेकर अपने यहां खूब चुटकुले चल पड़े हैं. लोग पूछने लगे हैं कि चीन से टमाटर नहीं लाये जा सकते क्या! ऐसा नहीं है कि चीन की महारत केवल सस्ते और घटिया सामान बनाने में है. मोबाइल फोन, लैपटॉप, इलेक्ट्रॉनिक सामान वगैरह के महंगे अमेरिकी और कोरियाई ब्रांड खरीद कर आप बड़े खुश होते हैं, जो चीन में ही बने होते हैं. चीन आपके लिए हर गुणवत्ता और हर कीमत के सामान बनाने के लिए तैयार है, आप बस आदेश करें!
मगर यही खूबी भारत क्यों नहीं हासिल कर सकता? चीन तो सारी दुनिया के बाजारों के लिए उत्पादन-केंद्र बन गया है. मगर भारत में ऐसी क्या परेशानी है, जिसके चलते यहां के उद्योग खुद भारतीय बाजार के लिए भी चीजें बनाने में सक्षम नहीं हो पा रहे? चीन में जो उत्पादन हो रहा है, वह किसी ऐसे रॉकेट विज्ञान पर आधारित नहीं है, जो सिर्फ चीन के पास हो. वैसे भी अंतरिक्ष विज्ञान में भारत आज चीन से आगे ही होने का दावा कर सकता है!
दरअसल, चीन किसी भी गुणवत्ता का जो सामान बनाता है, वैसी ही गुणवत्ता का वही सामान किसी दूसरे देश में उतनी कीमत पर बनाना संभव नहीं हो पाता. केवल दीपावली के सजावटी झालर ही नहीं, बल्कि भारत की बड़ी और नामी कंपनियों के बहुत से बिजली-संबंधी उत्पाद चीन की कंपनियों से खरीद कर भारत लाये जा रहे हैं. बस, उन पर ठप्पा भारतीय कंपनी का लगा होता है. कई भारतीय कंपनियों ने चीन में खुद अपनी कंपनी खोल ली है. वे चीन में अपने कारखाने लगा कर वहां के सस्ते उत्पादन का फायदा लेने की कोशिश कर रही हैं. सुनने में तो यह भी आया है कि कुछ छोटे उद्यमी भारत में अपनी लगी-लगायी चालू फैक्टरी की सारी मशीनें यहां से हटा कर चीन ले जा रही हैं और वहीं अपनी मशीनें लगा कर उत्पादन करने लगी हैं.
आखिर चीन के बराबर कीमत पर उत्पादन कर पाना भारत या अन्य देशों के लिए क्यों नहीं संभव हो पाता? दरअसल चीन को एक बड़ा फायदा मिलता है बड़े पैमाने पर उत्पादन के चलते, क्योंकि इससे प्रति वस्तु लागत अपने-आप कम हो जाती है. चीन ने अपने यहां विशाल उत्पादन को सहारा देने के लिए हरसंभव मदद करने की एक स्पष्ट नीति अपनायी, जिसका लाभ उसे मिला. अब चूंकि चीन ने एक विशाल उत्पादन क्षमता तैयार कर ली है, इसलिए उससे प्रतिस्पर्धा कर पाना किसी अन्य देश के लिए मुश्किल होता जा रहा है.
वैसे तो भारत में उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए भी सरकारी जुबानी जमाखर्च में कभी कोई कमी नहीं रही है. लेकिन हकीकत एकदम उल्टी है. बड़े उत्पादन संयंत्रों के लिए राजनीतिक परिवेश लगातार प्रतिकूल होता गया है. ऐसी तमाम बड़ी परियोजनाएं हैं, जिनके बारे में सालों-साल से केवल परियोजना के प्रस्ताव की ही खबरें आती रही हैं, जबकि अब तक उन परियोजनाओं को चालू होकर भारत की उत्पादन श्रृंखला का हिस्सा बन जाना चाहिए था.
अन्य देशों की तुलना में भारत में भूमि की लागत बेतहाशा बढ़ चुकी है. मोटी बात यह है कि एक कारखाना लगाना भारत में काफी महंगा हो चला है. इसके बदले चीन तो छोड़िए, अमेरिका या किसी यूरोपीय देश में भी कम लागत पर कारखाना लगाया जा सकता है. देश में कृषि भूमि का भी यही हाल है. भारत का कोई किसान यहां अपनी 10 बीघा जमीन बेच कर किसी अफ्रीकी देश में उसी पैसे से सौ बीघा से ज्यादा कृषि-योग्य भूमि खरीद सकता है. अब भूमि अधिग्रहण कानून से यहां पहले से ही तुलनात्मक रूप से महंगी भूमि और भी महंगी हो जायेगी.
भारत में श्रमिकों की स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती. फिर भी भारत में श्रमिक लागत चीन से ज्यादा बैठती है! यह बात एक साम्यवादी देश के संदर्भ में विचित्र लग सकती है. यह तर्क भी हो सकता है कि शायद चीन के श्रमिक को मिलनेवाले कुछ कम युआन भी कम खर्चो के चलते उसे भारत के श्रमिक से बेहतर जीवन-शैली दे पाते हों.
ऊर्जा की लागत भी भारत में अन्य औद्योगिक देशों और खास कर चीन से कहीं ज्यादा है. इन सबके बीच अगर यह बात भी सामने आये कि भारत में बहुत-से बने-बनाये सामानों पर आयात शुल्क उनके कच्चे माल के आयात शुल्क से कम है, तो भला कौन यहां कच्चा माल मंगा कर उत्पादन करना चाहेगा? लेकिन भारत में उत्पादन को बढ़ावा देने की कसमें खानेवाली सरकार ने ऐसी ही नीतियां अपना रखी हैं. एल्युमीनियम और इससे बने सामानों, पूंजीगत वस्तुओं, सीमेंट, रसायन, इलेक्ट्रॉनिक्स, कागज, इस्पात, कपड़ा और टायर जैसे उद्योगों में यह स्थिति खास तौर पर दिखती है.
भारतीय उद्योगों के लिए यह स्थिति इसलिए और भी गंभीर हो जाती है कि अब भारत बहुत से बहुपक्षीय या द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) कर चुका है. वैसे तो एफटीए भारतीय निर्यातकों के लिए भी उस संधि में शामिल देशों में निर्यात के लिए बराबर का विकल्प खोलता है, लेकिन इसका फायदा तो तभी होगा, जब आपका घरेलू उत्पादन प्रतिस्पर्धी लागत पर हो सके. ऐसा नहीं होने के चलते भारतीय निर्यातक तो उन देशों के बाजार में अपनी ज्यादा जगह नहीं बना पाते, लेकिन उनकी कंपनियों के लिए भारत एकदम खुला बाजार बन जाता है. मूल प्रश्न यही है कि भारत में उत्पादन लागत घटा कर इसे अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के लायक स्तरों पर लाने के लिए सरकार कर क्या रही है?