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एक राष्ट्र के रूप में हमारी असफलता

आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया हमारे देश के हालिया इतिहास में बड़ी राष्ट्रीय त्रासदियों की संख्या इतनी अधिक हैं कि उनका हिसाब रखना बहुत कठिन है. मेरी उम्र चालीस से पचास वर्ष के बीच है और मैं व्यक्तिगत रूप से उस संत्रास को याद करता हूं जो पांच घटनाओं से पैदा हुई थीं […]

आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
हमारे देश के हालिया इतिहास में बड़ी राष्ट्रीय त्रासदियों की संख्या इतनी अधिक हैं कि उनका हिसाब रखना बहुत कठिन है. मेरी उम्र चालीस से पचास वर्ष के बीच है और मैं व्यक्तिगत रूप से उस संत्रास को याद करता हूं जो पांच घटनाओं से पैदा हुई थीं और जिनमें हजारों लोगों की मौत हुई थी.
वर्ष 1983 में असम के नेली में हुए जनसंहार, जिसे आजाद भारत की सबसे बड़ी हिंसक घटनाओं में गिना जाता है, में 2,000 से अधिक लोग मारे गये थे, जिनमें अधिकतर मुसलमान थे. 1984 में 2 एवं 3 दिसंबर की रात भोपाल में यूनियन कार्बाइड के कारखाने से जहरीली गैस के रिसाव से पूरे शहर में मौत का तांडव मच गया था, जिसमें करीब 3,000 लोग असमय काल के गाल में समा गये. और फिर उसी घृणित महीने में दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगे में करीब 2,000 सिखों की हत्या हो गयी थी.
वर्ष 1992 में बाबरी मसजिद गिराये जाने के बाद हुए विभिन्न दंगों में फिर से हजारों लोग मारे गये. तब मेरी आयु 20 वर्ष से अधिक थी और घटनाक्रम के बारे में मैं पूरी तरह से अवगत था. और फिर, 2002 में कम-से-कम एक हजार लोग गुजरात की हिंसा में मारे गये.
यहां हाल के दशकों की पांच बड़ी राष्ट्रीय त्रासदियों का उल्लेख करते हुए मैंने निश्चित रूप से कुछ बड़ी घटनाएं छोड़ दी हैं. ऐसी अन्य अनेक घटनाएं हैं जिनमें सैकड़ों लोग नाव डूबने से मरे, प्राकृतिक आपदाओं में हजारों लोग मारे गये और ऐसे मामलों में राज्य अपने नागरिकों की मदद करने में नाकाम रहा है.
और, मैं हजारों कश्मीरियों की मौतों और पंडितों के विस्थापन को भी यहां शामिल नहीं कर रहा हूं, क्योंकि यह सब एक घटना में नहीं, बल्कि कई महीनों और सालों के दौरान हुआ.
लेकिन, ऊपर शुरुआत में मैंने जिन पांच त्रासद मामलों का उल्लेख किया है, उनमें से किसी में घटना में पीड़ितों को आसानी से न्याय नहीं मिल सका है. जब हम इनमें से किसी भी मामले के नतीजों और बाद में हुई घटनाओं का परीक्षण करते हैं, तो एक राष्ट्र के रूप में हमारी असफलता बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है. इन मामलों की समुचित तरीके से जांच करने और दोषियों को गंभीर अपराधों के लिए सजा देने में हमारी अक्षमता पूरी तरह से सामने है.
हमें बताया जाता है कि व्यापक हिंसा के मामलों में न्याय के अभाव का एक कारण यह है कि जो राजनीतिक दल सत्ता में होता है, वह या तो हिंसा में शामिल अपने लोगों पर मुकदमा चलाने के लिए अनिच्छुक होता है या फिर जानबूझ कर हिंसा होने देता है.
उदाहरणस्वरूप, इसी कारण से 2002 की घटनाओं में न्याय पाना बहुत मुश्किल होता रहा है. मैं इस उदाहरण का उल्लेख इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि मैं इस घटना को भली-भांति जानता हूं तथा इस मामले के कुछ पहलुओं की जांच के लिए एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया द्वारा भेजी गयी तीन-सदस्यीय टीम का सदस्य भी था.
लेकिन, वर्ष 1984 की त्रासद घटनाओं के संबंध में तत्परता से कार्रवाई कर इस निराशा के दुष्चक्र को तोड़ने का एक अच्छा मौका अभी सत्ता में बैठी भारतीय जनता पार्टी के पास है.
वह लगातार कहती रही है कि कांग्रेस पार्टी जान-बूझकर दोषियों को बचाती रही है. केंद्र की सत्ता में आने के बाद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) द्वारा गठित एक कमिटी ने पाया था कि ‘अपराधों की समुचित जांच नहीं की गयी’ और ‘जांच के नाम पर बस खानापूर्ति करने की कोशिश हुई’. इस रिपोर्ट के बाद सरकार ने एक तीन-सदस्यीय दल का गठन किया है, जिसका काम उन मामलों को दर्ज करना और अभियोग-पत्र दाखिल करना था जिनकी जांच नहीं की गयी थी.
मुझे उम्मीद है कि यह जांच टीम निर्णायक, ठोस और त्वरित कार्रवाई करेगी, ताकि तीन दशक पहले नृशंस तरीके से मार दिये गये लोगों के परिवारों को न्याय मिल सके. हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि ये मामले बहुत पुराने हो चुके हैं और अब इनकी ठीक ढंग से जांच कर पाना संभव नहीं है, लेकिन अगर इनमें दोषियों को सजा होती है तो हममें में से बहुत लोगों को यह उम्मीद बंधेगी कि जान-बूझ कर भारतीयों के खून बहाने के अपराधों से बच पाना कठिन है.
इस विशेष जांच दल का गठन इस साल फरवरी में किया गया था. विशेष दल का नेतृत्व भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी प्रमोद अस्थाना कर रहे हैं और इसमें एक अन्य पुलिस अधिकारी कुमार ज्ञानेश और सेवानिवृत सत्र न्यायाधीश राकेश कपूर सदस्य हैं. सरकार ने इन लोगों को उन सबूतों को परखने के लिए छह माह का समय दिया था, जिन्हें दिल्ली पुलिस ने नजरअंदाज कर दिया था या उन्हें ठीक से नहीं देखा था. लेकिन, बिना यह बताये कि इन छह महीनों में इस दल ने क्या काम किया, इसके कार्यकाल को बढ़ा दिया गया.
कुछ सप्ताह पहले कारवां पत्रिका में एक रिपोर्ट ने इस मामले की पड़ताल की थी और निष्कर्ष निकाला था कि इस टीम ने कोई खास काम नहीं किया है. पत्रिका की इस रिपोर्ट में जनसंहार के पीड़ित परिवारों का प्रतिनिधित्व करनेवाले वरिष्ठ वकील एचएस फुलका का बयान भी है.
उन्होंने कहा है कि ‘जब इस विशेष जांच दल का गठन हुआ था, तब इससे बहुत उम्मीदें थीं, लेकिन उन्होंने किसी भी स्तर पर कुछ भी काम नहीं किया है. वे न तो किसी पीड़ित से ही मिले, और जब एक पीड़ित ने उन्हें शिकायत भेजी तो उसे बिना किसी टिप्पणी के वापस कर दिया गया. उन्होंने उसे स्वीकार भी नहीं किया.’ फुलका का मानना है कि इस विशेष जांच दल को सिर्फ दिखावे के लिए बनाया गया है और केंद्र की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार बिना कुछ किये सिर्फ इस मामले में श्रेय लेना चाहती है. मैं चाहता हूं कि यह सही नहीं हो.
इसमें कोई संदेह नहीं है कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार सिखों के विरुद्ध हिंसा को रोकने में अक्षम साबित हुई थी और खुद इस पार्टी के कई नेताओं पर भी नरसंहार के गंभीर आरोप हैं. अब अगर मौजूदा सरकार इसमें ठोस और निर्णायक तेवर दिखाती है और अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई करती है, तथा यह साबित करती है कि कम-से-कम इस हत्याकांड के मामले में पीड़ितों को न्याय दे पाना संभव है, तो यह भारतीयों के प्रति बड़ी सेवा होगी.

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