प्राथमिकता गवर्नेंस या ‘एकछत्र राज’!
देश के मौजूदा नेतृत्वकारी समूह को अपने अच्छे शासकीय कामकाज से देश को भरोसे में लेना चाहिए. सत्ता-समूह को अपनी प्राथमिकता तय करनी चाहिए कि पहले उसे बेहतर गवर्नेंस देना है या असहमत लोगों को ध्वस्त करना है! राष्ट्रीय राजनीति का यह विचित्र दौर है. केंद्र में सत्ताधारी समूह ने एक साथ कई मोर्चे खोल […]
By Prabhat Khabar Digital Desk |
December 18, 2015 12:58 AM
देश के मौजूदा नेतृत्वकारी समूह को अपने अच्छे शासकीय कामकाज से देश को भरोसे में लेना चाहिए. सत्ता-समूह को अपनी प्राथमिकता तय करनी चाहिए कि पहले उसे बेहतर गवर्नेंस देना है या असहमत लोगों को ध्वस्त करना है!
राष्ट्रीय राजनीति का यह विचित्र दौर है. केंद्र में सत्ताधारी समूह ने एक साथ कई मोर्चे खोल दिये हैं. संसद में वह विपक्ष से उलझा हुआ है. जीएसटी पर सबका समर्थन जुटाने की चुनौती है. पर विपक्ष का बड़ा खेमा सरकार के रवैये से खफा है. उसकी शिकायत है कि सरकार और भाजपा का शीर्ष नेतृत्व ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ के अपने एजेंडे से प्रेरित होकर काम कर रहा है. दिल्ली की आम आदमी पार्टी (आप) सरकार को भी लग रहा है कि भाजपा और केंद्र का शीर्ष नेतृत्व उसके खिलाफ हाथ धोकर पड़ा है. कुछ समय पहले तक बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का भी यही सुर था, अब भी है. महज संयोग नहीं कि दिल्ली सचिवालय में सीबीआइ छापेमारी के सवाल पर ममता केजरीवाल सरकार के साथ नजर आयीं. अरुणाचल के ताजा संकट में भी विपक्षी खेमे भाजपा की भूमिका देख रहे हैं. केरल में सत्तारूढ़ यूडीएफ और मुख्य विपक्षी एलडीएफ, दोनों ने कोल्लम के एक समारोह को ‘संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों’ से जोड़ने के लिए प्रधानमंत्री मोदी और केरल में भाजपा के संभावित सहयोगी एसएनडीपी नेता वी नतेसन के रवैये पर गहरी नाराजगी जतायी. क्या यह सब सिर्फ विपक्ष की खिसियाहट है या इसमें केंद्र और उसके शीर्ष नेताओं की भी भूमिका है?
अगर हम बीते अठारह महीने के महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रमों को देखें, तो सियासत और गवर्नेंस की एक खास तस्वीर उभरती है. यह है- विपक्षी खेमों या समाज के असहमत लोगों से टकराव की तस्वीर. इंदिरा गांधी के शासन के कुछेक वर्षों को छोड़ दें, तो सियासत और शासन की ऐसी तस्वीर पहले कभी नहीं देखी गयी. ऐसा लगता है, मानो ‘राजकाज’ चलानेवाले लोगों का शीर्ष समूह अपने विचारों या तौर-तरीकों से असहमत लोगों को राजनीतिक रूप से ध्वस्त करके ‘एकछत्र राज’ करना चाहता है. ‘एकछत्र राज’ की आकांक्षा राजतंत्र या तानाशाही में तो संभव है, लेकिन जनतंत्र में यह संभव नहीं है. देश की सत्ता चलानेवाले समूह इसे अच्छी तरह जानते हैं, लेकिन व्यवहार में वे इसका अमल नहीं कर पा रहे हैं.
अगर प्रधानमंत्री किसी प्रदेश के दौरे पर जाते हैं, तो प्रोटोकोल के हिसाब से भी उक्त राज्य के मुख्यमंत्री उनके साथ रहते हैं. पर केरल में प्रधानमंत्री के हाल के दौरे में वहां के मुख्यमंत्री ओमन चांडी को कहा गया कि वे समारोह में न आयें. सवाल है, शासन और सियासत में ऐसी संकीर्णता क्यों? समारोह में केरल के पूर्व मुख्यमंत्री आर शंकर की मूर्ति का प्रधानमंत्री द्वारा अनावरण होना था. शंकर 1962-64 के दौरान राज्य के कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे. पर समारोह में कांग्रेसियों की बात छोड़िए, शंकर के बेटे-बेटी को भी नहीं बुलाया गया. और तो और, प्रधानमंत्री जी ने अपने भाषण में शंकर की कांग्रेसी पृष्ठभूमि को नजरंदाज करते हुए बार-बार इस बात का उल्लेख किया कि किस तरह शंकर ने जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी को केरल आमंत्रित किया था.
उनके साथ शंकर की प्रगाढ़ता थी. उन्हें कांग्रेसी के बजाय एक हिंदुत्ववादी नेता के रूप में पेश किया गया. शीर्ष स्तर पर इस तरह की राजनीतिक संकीर्णता पहले कम देखी गयी है.
शासकीय स्तर पर शीर्ष नियुक्तियों में भी यह संकीर्णता परिलक्षित हो रही है. चाहे वह पुणे का फिल्म एवं टीवी प्रशिक्षण संस्थान के चेयरमैन का पद हो, अकादमी अध्यक्षों या विभिन्न राज्यों में राज्यपाल के पद हों. कई राज्यों में संघ-पृष्ठभूमि के हाल में नियुक्त राज्यपालों ने बेवजह विवाद खड़े किये हैं. असम के राज्यपाल ने तो पिछले दिनों यह भी कहा कि यह देश हिंदुओं का है. अरुणाचल के राज्यपाल प्रशासनिक पृष्ठभूमि के हैं, लेकिन उन्होंने भी अपने विवादास्पद फैसले से राज्य में संवैधानिक संकट-सा खड़ा कर दिया है. राजनीतिक दलों के अंदर के विवाद को किनारे लगा कर विधानसभा के स्तर पर संविधान-सम्मत कदम उठाने के बजाय वह स्वयं मौजूदा संवैधानिक संकट का हिस्सा बन गये हैं.
दिल्ली राज्य सचिवालय में सीबीआइ की छापेमारी में भी टकराव और अनावश्यक विवाद पैदा करने की मंशा का संकेत मिलता है. मुख्यमंत्री केजरीवाल के प्रधान सचिव के यहां निजी शिकायत पर जिस तरह और जिन मामलों में छापेमारी हुई, उस पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं. जांच के सभी मामले शिक्षा, परिवहन या वैट विभाग के हैं. लेकिन इन विभागों में छापेमारी नहीं की गयी. हम किसी अफसर की संलिप्तता या निर्दोष होने पर कोई टिप्पणी नहीं कर रहे हैं, लेकिन छापेमारी का तरीका निस्संदेह विवाद पैदा करनेवाला था. यह भी कुछ कम रहस्यमय नहीं कि छापेमारी शकूरबस्ती झुग्गीकांड के कुछ ही घंटे बाद हुई. इस कांड में रेल विभाग के आदेश पर कई सालों से रहते आये लोगों की झुग्गियां सर्द मौसम में उजाड़ी गयीं. अफरा-तफरी के बीच वहां एक बच्ची की मौत भी हो गयी. संसद से सड़क तक यह मुद्दा उस दिन छाया हुआ था. लेकिन सीबीआइ की छापेमारी ने केंद्र सरकार की नाक के नीचे गरीबों के साथ हुए भारी जुल्म के मुद्दे को हाशिये पर डाल दिया.
पंजाब के अबोहर में दलितों के साथ हुए अमानुषिक अत्याचार के लिये जिम्मेवार मानी जा रही पंजाब की अकाली-भाजपा सरकार की भारी फजीहत की कहानी भी छापेमारी विवाद में दब गयी. अब नयी कहानी है- ‘केजरीवाल-जेटली विवाद.’ इस बहाने सीबीआइ की स्वायत्तता और संसदीय जवाबदेही की बात उठती और उस पर राष्ट्रीय बहस छिड़ती, तो भी गवर्नेंस की एजेंसियाें का कुछ भला होता. नेशनल हेराल्ड संपत्ति विवाद हो या चिदंबरम परिवार का कंपनी-विवाद, ऐसे मामलों में शासन की तरफ से जिस तरह की पारदर्शिता की दरकार थी, वह नहीं दिखी है. जो मामले कोर्ट में हैं, उन पर न्यायिक प्रक्रिया के तहत फैसला होगा, पर विपक्षी नेताओं या असहमत लोगों से जुड़े मामलों में सरकारी एजेंसियों की अति-सक्रियता से सवाल जरूर उठते हैं.
क्या मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता शीतलवाड़ मामले में पूर्वाग्रहगस्त ‘शासकीय अतिसक्रियता’ साफ नहीं दिखायी देती? यदि सरकार भ्रष्टाचार की संरचनाओं को ध्वस्त करना चाहती है, तो इसका स्वागत होना चाहिए, पर ऐसी संरचनाएं तो केंद्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी दिखते हैं. उन पर संसद से सड़क तक सवाल भी उठे हैं. वहां तो कुछ नहीं हुआ? भ्रष्टाचार की संरचनाएं सिर्फ विपक्षी खेमों या शासक समूह की सोच से असहमत लोगों के बीच ही मौजूद हैं, इसे कौन मानेगा? लगता है, देश के मौजूदा नेतृत्वकारी समूह को अपने अच्छे शासकीय कामकाज से देश को भरोसे में लेना चाहिए. दाल से लेकर दवा की महंगाई, प्रशासनिक लूट और बेरोजगारी के सवालों को संबोधित करना चाहिए. उसे अपनी प्राथमिकता तय करनी चाहिए कि पहले उसे बेहतर गवर्नेंस देना है या असहमत लोगों को ध्वस्त करना है!
उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
urmilesh218@gmail.com