संसद में जो व्यवधान हुआ है, उसकी बहुत हद तक जिम्मेवारी कांग्रेस की है, जो दोनों सदनों में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है. अगर उसे लगता है कि नेशनल हेरॉल्ड मामले में सरकार राजनीतिक बदले की नीयत से काम कर रही है, तो वह अपने तर्क जनता के सामने रख सकती थी. वह दोनों सदनों में बहस कराने की मांग कर सकती थी. लेकिन, अदालत के कार्य-क्षेत्र में आनेवाले मसले के बहाने संसद की कार्यवाही में लगातार बाधा डालना किसी भी लिहाज से उचित नहीं कहा जा सकता है.
शुक्रवार को राज्यसभा के सभापति द्वारा बुलायी गयी सर्वदलीय बैठक में वस्तु एवं सेवाकर (संविधान संशोधन) विधेयक को पारित कराने पर तो सहमति नहीं बन सकी, पर यह जरूर तय हुआ है कि सत्र के बाकी बचे तीन दिनों में कुछ महत्वपूर्ण विधेयकों पर निर्णय ले लिया जायेगा. इस फैसले से कुछ उम्मीद जरूर बंधी है. अभी तक तो मौजूदा शीतकालीन सत्र भी मॉनसून सत्र की तरह बरबादी की ओर जाता दिख रहा है. इस सत्र के दौरान 17 दिसंबर तक के विश्लेषण के अनुसार लोकसभा ने अपने निर्धारित समय के 89 फीसदी हिस्से का उपयोग किया है, वहीं राज्यसभा में यह आंकड़ा महज 44.7 फीसदी रहा है. लेकिन विधायी कार्यों पर लोकसभा ने 23.7 फीसदी और राज्यसभा ने 4.5 फीसदी समय ही दिया है. मॉनसून सत्र में लोकसभा ने विधायी कार्यों पर 7.6 फीसदी और राज्यसभा ने 0.1 फीसदी समय दिया था तथा आवंटित समय के उपयोग में इनका प्रदर्शन क्रमशः 45.7 और 8.5 फीसदी रहा था.
अब अगर बचे हुए तीन दिनों में लंबित विधेयकों को समुचित चर्चा के बाद पारित कर दिया जाता है, तो यह बड़े संतोष की बात होगी. संसद का बुनियादी काम राष्ट्रीय महत्व के मामलों पर चर्चा करना और जरूरी कानूनों का निर्माण होता है. अगर देश की सबसे बड़ी पंचायत अपनी भूमिका को सही ढंग से अंजाम नहीं देती है, तो निश्चित रूप से इसका खामियाजा देश और देश की जनता को भुगतना पड़ता है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि संसद में टीका-टिप्पणियों और अपनी बात को जोर-शोर से रखने की परिपाटी रही है, लेकिन इसे राजनीतिक उठा-पटक का अखाड़ा बना देना कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता है. अब तक संसद में जो व्यवधान हुआ है, उसकी बहुत हद तक जिम्मेवारी कांग्रेस की है, जो दोनों सदनों में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है. अगर उसे लगता है कि नेशनल हेरॉल्ड मामले में सरकार राजनीतिक बदले की नीयत से काम कर रही है, तो वह अपने तर्क जनता के सामने रख सकती थी. वह दोनों सदनों में बहस कराने की मांग कर सकती थी. लेकिन, अदालत के कार्य-क्षेत्र में आनेवाले मसले के बहाने संसद की कार्यवाही में लगातार बाधा डालना किसी भी लिहाज से उचित नहीं कहा जा सकता है. इस मसले में जो भी सच है, उसका फैसला अदालतों को करना है, न कि संसद को. इसी तरह से दिल्ली के मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव के दफ्तर पर केंद्रीय जांच ब्यूरो के छापे को आधार बना कर लोकसभा में हंगामा किया गया. संसद के बाहर भी इस मामले को राजनीति से प्रेरित साबित करने की कोशिशें हुईं.
दिल्ली सरकार द्वारा राज्य के क्रिकेट एसोसिएशन में हुए कथित घपले में एक वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री परोक्ष रूप से अपने ही दल के सांसद के ऊपर विपक्षी दलों के साथ मिल कर साजिश का आरोप लगा रहे हैं. सत्ता के शीर्ष पर भ्रष्टाचार को लेकर लंबे समय से चिंता व्यक्त की जाती रही है. ऐसे मामलों में त्वरित और निष्पक्ष जांच ही एकमात्र रास्ता हो सकता है. इन मसलों को आधार बना कर संसद और संसद के बाहर हो रही सियासी फुटबॉल से कोई नतीजा नहीं निकलेगा. राजनेताओं और राजनीतिक दलों के ऐसे पैंतरों से महत्वपूर्ण मुद्दे और समस्याएं हाशिये पर चले जाते हैं तथा जनता राजनीति को लेकर निराश होने लगती है. शासन और विधायिका की प्राथमिकताओं को राजनीतिक स्वार्थों की बलि-वेदी पर समर्पित करने से अर्थव्यवस्था, सामाजिक सद्भाव, नागरिक अधिकारों जैसे मामलों में नुकसान तो होता ही है, देश के विकास और समृद्धि की गति भी बाधित होती है.
भ्रष्टाचार और अनियमितताओं की जांच संबद्ध एजेंसियों और संस्थाओं के ऊपर छोड़ देना चाहिए और सत्ता तथा विपक्ष के खेमे में शामिल राजनीतिक दलों को अपनी लोकतांत्रिक जवाबदेही पर पूरी तरह ध्यान देना चाहिए. संसद के ठीक से चलने की जितनी जिम्मेवारी सरकार की है, उतनी ही विपक्ष की भी. अगर संसद चलेगी, तभी सरकार भी काम कर सकेगी और विपक्ष भी उससे जवाब तलब कर सकेगा. कांग्रेस पार्टी को यह समझने की जरूरत है कि विपक्ष का काम सरकार और संसद की राह में अवरोध खड़ा करना नहीं, बल्कि रचनात्मक सहयोग और समुचित आलोचना करना है. बहरहाल, अब उम्मीद की जानी चाहिए कि सर्वदलीय बैठक में बनी सहमति के मुताबिक सभी पक्ष शीतकालीन सत्र के बचे हुए तीन दिनों में जरूरी काम-काज को पूरी गंभीरता के साथ निष्पादित करेंगे तथा संसद की गरिमा को पुनर्स्थापित करेंगे.