जिन्हें नाज था हिंद पे, वो कहां हैं?

कुछ लोग होते हैं, लकीर के फकीर. जैसे प्रेमबाबू, हमेशा अतीत में खोये और वर्तमान को गरियाते हुए. कल ही की तो बात है. बंदे को देखते ही भड़क उठे- क्या जमाना आ गया है? तेरवीं भी भ्रष्ट हो गयी. सोचा था जमीन पर बैठ कर पत्तल में कद्दू-पूड़ी मिलेगी. इसी बहाने भारतीय संस्कृति के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 21, 2015 1:41 AM

कुछ लोग होते हैं, लकीर के फकीर. जैसे प्रेमबाबू, हमेशा अतीत में खोये और वर्तमान को गरियाते हुए. कल ही की तो बात है. बंदे को देखते ही भड़क उठे- क्या जमाना आ गया है? तेरवीं भी भ्रष्ट हो गयी. सोचा था जमीन पर बैठ कर पत्तल में कद्दू-पूड़ी मिलेगी. इसी बहाने भारतीय संस्कृति के दर्शन होंगे. मगर अब यहां भी सब उल्टा-पुल्टा हो गया.

नासपीटों ने गिद्ध भोज खिलाया. कहते हैं, यह बुफे है. अंगरेजों की औलाद कहीं के. मरनेवाला क-ख-ग वाला मास्टर था. बेशर्मी की हद कि पूछ रहे थे, वेज या नाॅन-वेज. बेटा खींसें निपोर रहा था, बाबूजी बिरयानी खाते हुए गये. कह गये थे कि मुंह में गंगाजल की जगह दो बूंद मदिरा टपका देना और मुर्गा सबको जरूर खिलाना. तुर्रा यह कि सब नाॅन-वेज भकोस रहे थे. हमारा तो खून खौल गया. सीता होते तो समा जाते जमीं में. मिनरल वाटर पीकर चले आये.

बंदा समझाने की कोशिश करता है कि तेरवीं में बुफे अब आम है. मगर प्रेमबाबू बेअसर, वही ‘एक हमारा जमाना’ की टेर. बिछौना और पीतल के बर्तनों में दाल-चावल. घड़े का ठंडा पानी और आत्मा तृप्त. अब डाइनिंग टेबुल है. अनब्रेकेबुल सिरेमिक क्राकरी में पिज्जा, नूडल-चाऊमीन, मंचूरियन और सैंडविच खा रहे हैं. चीन, जापान, कोरिया, इटली किसी को न छोड़ा. अंगीठी, चूल्हा, केरोसिन स्टोव इतिहास बन गये. ये मोबाइल, डिजिटल कैमरे, टीवी, कंप्यूटर वगैरह देखिए. अपना तो कुछ भी तो नहीं दिखता यहां. कभी विदेशी आइटम अमीरों की बपौती थे. अमीर भी खुश और औकात नहीं होने के कारण हम गरीब भी खुश. अब घर-घर में फाॅरेन का माल. मेड इन फाॅरेन की मिट्टी पलीद कर दी. हमारे वक्त में सिर्फ लाट साहबों और अमीरों की औलादें ही फॉरेन जाती थीं. अब एेरा-गैरा, नत्थू-खैरा जा रहा है. मानों बाजार शापिंग करने जा रहे हैं. मजाक हो गया है विलायत जाना.

बंदा प्रेमबाबू को समझाता है कि आज जो मार्किट लग्जरी आइटमों से पटी पड़ी है, उसमें पूंजी विदेशी है, मगर मेहनत भारतीयों की है. शीर्ष पर हमीं बैठे हैं. सारी दुनिया में भारतीय डाॅक्टरों की धूम है. हजारों-लाखों विदेशी इलाज के वास्ते भारत आते हैं. यहां उन्हें सस्ता भी पड़ता है. पहले भारत में इने-गिने अमीर थे. अब लाखों हैं. अनेक तो दुनिया के सौ शीर्ष अमीरों में शामिल हैं. कल हमारा सैटेलाइट चांद पर था, अब मंगल तक पहुंच गया. बुलेट ट्रेन भी चली ही समझो. सेंसेक्स का ग्राफ आसमान छू रहा है. हमारी क्रयशक्ति बढ़ी है. जो चाहो खरीदो. बैंक दिल खोल कर उधार देता है. प्रेमबाबू आप कहां हैं? जागो! जागो!!

मगर प्रेमबाबू जल्दी हार माननेवालों में से नहीं थे. अगले ही दिन अलसुबह आ धमके. ढेर आंकड़ों और ब्योरों का पुलिंदा लेकर, जिसमें कुपोषण, गुरबत, बीमारी और उधार न चुका सकने के कारण आत्महत्या करनेवाले लाखों लोगों की दास्तान बयान थी. भ्रष्टाचार और अपराधों का भी ब्योरा था. कमर तोड़ महंगाई का ग्राफ भी ऊंचा था. ये सब दिखाते हुए यकायक प्रेमबाबू ने भावुक होकर पूछा- जिन्हें नाज था हिंद पे, वो कहां हैं?

बंदे के पास बगलें झांकने के सिवा कोई जवाब नहीं था.

वीर विनोद छाबड़ा

व्यंग्यकार

chhabravirvinod@gmail.com

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