।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
भारतीय समाज में तीन लोक से न्यारी काशी की महिमा ऐसी है कि देश के हर भाग के लोग उसके सान्निध्य में रहना चाहते हैं. चूंकि काशी नगरी को इधर से उधर नहीं किया जा सकता, इसलिए विभिन्न क्षेत्रों के प्रसिद्ध शैव केंद्रों को उस क्षेत्र की काशी कह दिया गया. उत्तर में हिमालय के गढ़वाल अंचल में स्थित ‘उत्तर काशी’ में तो बाकायदा मणिकर्णिका घाट और विशाल त्रिशूल भी हैं. दक्षिण में कर्नाटक के मैसूर जिले में कपिला नदी के तट पर बसा नंजनगुड नगर को ‘दक्षिण काशी’ कहा गया है, जहां श्रीकांतेश्वर यानी लक्ष्मीपति विष्णु के स्वामी शिव का प्रसिद्ध प्राचीन मंदिर है. वैसे दक्षिण भारत में ‘दक्षिण काशी’ बनने का गौरव महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में समुद्र तट पर, पुष्पाद्रि पर्वत के ऊपर स्थित हरिहरेश्वर को भी प्राप्त है. गोला गोकर्णनाथ उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले का एक छोटा-सा नगर है, जिसके प्राचीन शिव मंदिर के कारण उसे ‘छोटी काशी’ कहा जाता है. यहां सावन में दूर-दूर से बहुत-से शिव-भक्त शिवलिंग पर जल चढ़ाने आते हैं. शिव मंदिर के पास ही भूतनाथ मंदिर है, जिसका अपना महत्व है.
इसके पीछे एक पौराणिक कथा है, जो मैने पहली बार सत्तर के दशक में आकाशवाणी के कवि सम्मेलन में वहां पहुंचने पर सुनी थी. उसके बाद इतना बड़ा अंतराल हो गया कि सब भूल गया. लेकिन पिछले साल लखीमपुर खीरी से लौटते समय जब थोड़ी देर के लिए वहां रुका, तो तरुण कवि कनक तिवारी ने न केवल मंदिर की पृष्ठभूमि बतायी, बल्कि वहां के प्रसिद्ध साहित्यकारों से मिलाया भी. ‘गोकर्ण’ का शाब्दिक अर्थ गाय का कान होता है. चूंकि शिव एक बार पृथ्वीरूपी गाय के कान से उत्पन्न हुए थे, इसलिए उनका एक नाम ‘गोकर्ण’ भी है. इसी तरह, ‘गोला’ उस पुरानी दुकान को कहते हैं, जिससे वहां बाजार बस गया हो.
लोकश्रुति है कि रावण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए कैलाश पर्वत पर कठोर तपस्या की. प्रसन्न होकर शिव स्वयं प्रकट हुए. वरदान के रूप में रावण ने इतनी शक्ति मांगी कि वहां से अपने आराधित शिवलिंग को उठा कर लंका नगरी ले जा सके. शिव ने तथास्तु तो कह दिया, मगर एक शर्त के साथ कि वह उसे कहीं रास्ते में धरती पर नहीं रखेगा. रावण चला, रास्ते में उसे लघुशंका लगी. उसने एक चरवाहे को कांवर अपने कंधे पर रखने के लिए अनुरोध किया. चरवाहे ने कहा कि मैं केवल दो घड़ी तक कंधे पर रखूंगा. रावण को आने में देर हुई और चरवाहा कांवर वहीं छोड़ कर चला गया. रावण के आने तक शिवलिंग इतना दृढ़ हो गया था कि उठाये न उठे. क्रोधित रावण ने चरवाहे को दौड़ाया. चरवाहा भाग कर एक कुएं में कूद गया. वह कुआं आज भी भूतनाथ मंदिर के परिसर में है. भगवान शिव ने उस चरवाहे को भूतेश्वर की संज्ञा देकर अपनी महिमा के समतुल्य पूजनीय बनाया. आज भी भूतनाथ महादेव मंदिर में नागपंचमी के बाद आनेवाले सोमवार को दूर-दराज से शिवभक्त जुटते हैं. इस कथा के आधार पर कुछ लोग ‘गोला’ को ‘ग्वाला’भी मानते हैं.
यह कथा सुनते हुए मुङो कोई सुख नहीं मिला, क्योंकि उन मंदिरों के आसपास गंदे नालों में नगर की गंदगी दरुगध फैलाते हुए अविरल बह रही थी. जगह-जगह कचरों का अंबार लगा हुआ था. हां, उन प्राचीन जर्जर मंदिरों के आसपास दुकानदारी खूब जवां थी. नाक पर रूमाल रख कर उस छोटी काशी का माहात्म्य सुनना बड़ा कष्टदायक था. मगर गत 18 नवंबर को अगहन मास के पहले सोमवार के दिन जब फिर से मुङो एक दिन गोला में रुकना पड़ा, तो उन मंदिरों का दृश्य पूरी तरह बदल चुका था. कनक ने बताया कि नगर में जो आप काया-कल्प देख रहे हैं, वह किसी अधिकारी के जुनून का प्रतिफल है और वह अधिकारी आपके पड़ोस में है. मैं उस परिवर्तन से इतना प्रभावित था कि आगे की यात्र स्थगित कर मैंने उस अधिकारी से मिलने का मन बना लिया. दस्तक देकर कमरे में घुसा, तो पूरे बिछौने पर मैथिलीशरण गुप्त और रामधारी सिंह दिनकर का साहित्य पसरा हुआ था.
आश्चर्य हुआ कि आइआइटी कानपुर का ग्रेजुएट एक प्रौद्योगिकीविद् आइएएस अधिकारी अपने निजी समय का उपयोग साहित्य पढ़ने में करता है, क्योंकि इससे उसे ‘आंतरिक ऊर्जा मिलती है.’ वह ऊर्जा उसे समाज में फैली आसुरी प्रवृत्तियों से लड़ने की क्षमता देती है. आचरण में विनम्रता और लक्ष्य प्राप्ति में कठोरता. बातों-बातों में पता चला कि वे बेगूसराय जिले के ही एक ग्रामीण परिवार के हैं. देर तक साहित्यिक वार्ता होती रही. उनकी यह मान्यता मेरे लिए अति सुखकर थी कि समाज में यदि सत्साहित्य का प्रचार-प्रसार पहले की तरह हो, तो समाज के अधिकांश अपराध स्वत: दूर हो जायेंगे. वे सबेरे मुङो अपने साथ उन सारे मंदिरों के परिसर में ले गये, जहां का परिवर्तित रूप पहचान में नहीं आता था. गंदी नालियों को समेट कर भूभाग समतल बनाया गया था, जिस पर सैकड़ों भक्त बैठ कर कीर्तन-भजन कर सकते हैं. ऐसे चार-पांच सभा-स्थल बन चुके हैं. इनका दुरुपयोग न हो, इसके लिए नगर पालिका के नियमों में प्रावधान है कि केवल धार्मिक और सांस्कृतिक प्रयोजन से इन्हें दिया जायेगा.
शुरू में उन्हें काफी विरोध झेलना पड़ा, क्योंकि मंदिरों के आसपास की भूमि और भवनों पर स्थानीय लोगों ने कब्जा जमा लिया था. नगर में भक्तों के विश्रम के लिए तकरीबन 40 धर्मशालाएं थीं, जिन पर दबंगों ने कब्जा कर रखा है. चूंकि वे यहां अकेले रहते हैं, इसलिए जनसेवा के लिए उनके पास समय ही समय है. लोग अपनी व्यक्तिगत समस्याओं का हल ढूंढने भी उनके पास आ जाते हैं. ऐसे अधिकारी ‘बड़े लोगों’ की आंखों की किरकिरी तो हो ही जाते हैं, मगर जो अंत:करण से कुछ करना चाहता है, उसके लिए न समय की कमी रहती है, न साधनों की.
जो जगह आज भी पिछड़ी ही मानी जाती है, वहां 1925 में जमनालाल बजाज ने एशिया का सबसे बड़ा चीनी मिल लगाया था और उसका उद्घाटन करने प्रधानमंत्री नेहरू आये थे. जिस अतिथि गृह में मैं ठहरा था, उसको कभी महात्मा गांधी के आतिथ्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ था. उसी परिसर में लक्ष्मीनारायण मंदिर के सामने प्रदर्शनी के लिए रखे उस पुराने वाष्प-चालित इंजन को देख कर मैं धन्य हुआ, जिससे चीनी मिल संचालित होता था. गोला के पास के ही पंडित वंशीधर शुक्ल थे, जिनके बहुत सारे गीत सामान्य जन के कंठहार बन चुके हैं- ‘उठ जाग मुसाफिर भोर भयो, अब रैन कहां जो सोवत है.’ मूल काशी में परतंत्रता के दिनों में एक ‘काशी करवट’ होती थी. विश्वनाथ मंदिर के पास एक कुआं था, जिसमें लोग जीवन-जंजाल से मुक्त होने के लिए कूद कर जान दे देते थे. बचपन में मैंने उस कुएं में झांका भी था. मगर छोटी काशी ने जब-जब बड़ी करवट ली है, देश-प्रदेश के लिए अच्छा ही हुआ है.