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रोइए जार-जार कीजिए हाय-हाय
व्यालोक स्वतंत्र टिप्पणीकार इस बीच एक भोज में जाना हुआ. अब मिथिलांचल का भोज था, तो लोगों की उम्मीद भी वैसी ही थी. एक बुजुर्गवार मुझे काफी देर से देख रहे थे. आखिरकार, काफी दुख के साथ उन्होंने अपना दर्द उड़ेल ही दिया, ‘एह… अजुका लोक सब कि खाएत, मिथिला वासी के नाम पर त […]
व्यालोक
स्वतंत्र टिप्पणीकार
इस बीच एक भोज में जाना हुआ. अब मिथिलांचल का भोज था, तो लोगों की उम्मीद भी वैसी ही थी. एक बुजुर्गवार मुझे काफी देर से देख रहे थे. आखिरकार, काफी दुख के साथ उन्होंने अपना दर्द उड़ेल ही दिया, ‘एह… अजुका लोक सब कि खाएत, मिथिला वासी के नाम पर त कलंके छैथ इ सब.’ इससे भी जब उन्हें चैन नहीं मिला, तो वे खांटी खड़ी बोली में उतर आये.
‘अरे, मिथिला का तो असल खाना सब ही गायब हो गया. अब कहीं दिखता है, अरिकंचन (एक चौड़ा सा पत्ता, जिस पर पानी नहीं ठहरता) अरिकोंच या कंच का पत्ता? अहा! क्या स्वाद होता था, उसको बेसन में लपेट कर जब सब्जी बनायी जाती थी, तो मछली का मजा देती थी…’ मेरी ओर आग्नेय नेत्रों से देखते हुए उन्होंने कहा.
इसके तुरंत बाद ही मछली की याद आनी ही थी, ‘माछो सब मं अब पहिलुक्का गप्प कत? सिंघी, मांगुर, कवई आदि न जाने कितनी प्रजातियां तो दिखनी ही लगभग बंद हो गयी हैं. और ये, अन्हरा (आंध्र) वाली बरफ में रखी हुई मछलियां… गोबर हैं जी गोबर. कोई स्वाद ही नहीं होता.’ कलपते हुए सुर में वह बोले. वे अब मिथिलांचल की थाली पर पूरी तरह केंद्रित हो चुके थे. राजा जनक ने जिस तरह सीता-स्वयंवर की घोषणा की होगी, कुछ उसी दर्प से दमकते हुए वह बोले, ‘बताइए, कहीं भी जाइए.
मिथिला की थाली से मिथिला का ही सामान गायब हो चुका है. वही मटर-पनीर और छोले-भटूरे… अरे, मरुआ (रागी से मिलता-जुलता मोटा अन्न) की रोटी तो गायब ही हो गयी. महिलाओं से तिलौरी, अदौरी, कुम्हरौरी की बात कर दो, तो पसीना आ जाये. दम ही नहीं है इन लोगों में. अब बताइए, दरभंगा में पीजा (पित्जा) और बर्गर मिलता है… है कि नहीं दुखद.’ उन्होंने कुछ ऐसे जानकारी दी, मानो पित्जा खाना कोई बड़ा गुनाह हो.
अचानक उन्होंने संस्कृति के तालाब में डुबकी मारी और एक मोती निकाल कर ले आये, ‘अरे, बििरया तो आप लोग समझेंगे भी नहीं. चने के साग की बनती है, बेसन में लटपटा कर. इसका इस्तेमाल बरसात में तब किया जाता था, जब कोई सब्जी कहीं न दिखे. और स्वाद… अहा…! वह तो पूछिए ही मत.’
वे भोजन पर ही नहीं रुके. तांबूल-पुराण भी शुरू कर ही दिया. ‘अब देखिए, छौड़ा सब गुटखा खाता है. बताइए, उसमें छिपकली और क्या-क्या सब होता है, जबकि हमारे यहां पान की परंपरा थी. पान खाइए, कई तरह से गुणकारी भी है. अब तो घरों से पनबट्टा भी उठ ही गया.’ बुजुर्गवार ऐसे सुर में बोले, मानों उनका सबसे प्यारा साथी उठ गया.
उनके कुछ और साथी भी आ गये- ‘यौ जी, कतेक वस्तु पर रोख करब? घूरा (आग, जिसे लोग तापते थे) उइठ गेल, आब त हीटर आबि गेल. गली-गली में छौंरा सब देसी-विलायती पीकर गिरा रहता है, जबकि यहां तो भांग की संस्कृति थी. जो न करे ये आधुनिकता.’
वे मिथिलांचल की थाली से मिथिला की खास वस्तुएं उठने का शोक मना रहे थे और मैं थियोडोर एडॉर्नों को याद कर रहा था, जिन्होंने लिखा है कि तथाकथित आधुनिकता की पहली मार भोजन पर ही पड़ती है, उसकी स्थानीयता खत्म हो जाती है, वह ‘सुसंस्कृत’ होने लगता है.
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