दांत में फंसे रेशे जैसी कहानियां

।। राजेंद्र तिवारी।। (कारपोरेट संपादक, प्रभात खबर) एक कहानी संग्रह आया है पेंगुइन बुक्स से. ‘तमन्ना अब तुम कहां हो’. 118 कहानियां और 69 टू-लाइनर कहानियां. लेखक हैं निधीश त्यागी. इसका जिक्र करने से मैं खुद को रोक नहीं पा रहा हूं. ये छोटी-छोटी प्रेम कहानियां न कहीं से शुरू होती हैं और न खत्म. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 1, 2013 3:50 AM

।। राजेंद्र तिवारी।।

(कारपोरेट संपादक, प्रभात खबर)

एक कहानी संग्रह आया है पेंगुइन बुक्स से. ‘तमन्ना अब तुम कहां हो’. 118 कहानियां और 69 टू-लाइनर कहानियां. लेखक हैं निधीश त्यागी. इसका जिक्र करने से मैं खुद को रोक नहीं पा रहा हूं. ये छोटी-छोटी प्रेम कहानियां न कहीं से शुरू होती हैं और न खत्म. ये तो बस बीच का एक हिस्सा भर हैं. इनका अधूरापन ही इनकी संपूर्णता है. जी हां, संपूर्णता. आप किसी ढाबे में मटन खा रहे होते हैं और आपके दातों में उसके रेशे फंस जाते हैं. ये कहानियां दांतों में फंसे उस रेशे जैसी ही हैं. आप जितना कुरेदेंगे, उतना ज्यादा इनका एहसास होगा. और सबसे बड़ी खूबसूरती यह है कि ये निरंतरता के साथ आपको पीछे ले जाती हैं और निरंतरता के साथ ही आगे, लेकिन खुद बीच में एक ताकतवर कथ्य के रूप में खड़ी रहती हैं. मैं न तो साहित्यकार हूं और न ही आलोचक, लेकिन एक पाठक होने के नाते मुङो इनमें कहानी का एक नया व्याकरण दिखायी देता है, ठीक वैसे ही जैसे 1950-60 के दशक में निर्मल वर्मा की कहानियों ने नया व्याकरण दिया था. निधीश ने ये कहानियां 2007 में अपने एक ब्लॉग पर एक श्रृंखला के तहत लिखनी शुरू की थीं. यह ब्लॉग उनके नाम से नहीं था और इसके बावजूद इसकी खासी चर्चा रही थी. प्रिंट में आने के बाद, मुङो यकीन है कि ये कहानियां एक नयी राह बनानेवाली साबित होंगी. प्रस्तुत हैं इस संग्रह से चार कहानियां-

लौटने की कोई जगह नहीं होती

वेटिंग का टिकट कन्फर्म नहीं हो सका, ट्रेन उसके सामने से ही चली गयी. उसने लौटने का टिकट वेटिंग में ये सोच कर ले लिया था, कि जब तक ट्रेन पर सवार होने का वक्त आयेगा, तब तक टिकट कन्फर्म हो चुकेगा. उस शहर में कुछ लोगों को वह जानता था, पर किसी को पता नहीं था कि वह वहां आया हुआ है. शादियों का समय था और भीड़ बहुत ज्यादा थी. उसकी आंखों के सामने से ही ट्रेन चली गयी. उस सर्द रात वह उस शहर को जल्दी से जल्दी छोड़ देना चाहता था, और वेटिंग रूम में जगह नहीं थी.

उसे पता था उसे किससे मिलना था. वह उसे ढूंढ़ता रहा तो था. पर जैसा सोचते हैं, वैसा कहां होता है. कई बार उसे लगा कि सपने सच नहीं होते. और फिर उसने शादी कर ली. बच्चे पैदा किये. और फिर एक तरह की दुनियादारी ओढ़ ली. किसी अंधेरे कोने में कभी ऐसा जरूर लगता था कि कुछ अधूरा है, पर सच तो ये भी था कि सपने सच नहीं होते और दुनियादारी की अपनी जिम्मेदारियां हैं, अपनी जवाबदेहियां भी. मध्यवर्गीय नियतियां, रेलगाड़ी के जनरल डिब्बे की तरह धीरे-धीरे एडजस्ट होते-होते एक दिन सेटल हो ही जाती हैं.

और तब एक दिन अचानक वह शख्स उसे मिल ही गया, जिसे मिल कर उसे अधूरा लगना बंद हो गया. जिसकी तलाश, इंतजार, उम्मीद वह छोड़ चुका था. दोनों को पता था कि उनकी जिंदगियां और आत्माएं एक दूसरे से गुंथी हुई हैं. वे बहुत कम समय के लिए मिलते. और दोनों की बहुत सारी बातें एक दूसरे में अपने मायने ढूंढ़ लेतीं.. वे जिंदगी के अलावा हर कहीं साथ थे. सपने में, स्मृति में, कविताओं और फंतासियों में, जीने के जोखिम और प्रार्थनाओं के अमूर्त में.

एक दिन नाराज होकर उसने भी शादी करने का फैसला कर लिया. वह उसकी शादी में शरीक होने गया. उस दिन वे ज्यादा देर तक तो नहीं मिल पाये. पर उसे भला लगा कि वह दूसरे शहर और दूसरी दुनिया से इस मौके पर आ सका. जैसे कि शादियां होती हैं, उतनी चमक -दमक तो इसमें न थी, पर फिर भी एक औपचारिक समारोह तो था ही. एक ऐसा समारोह.. जहां वह सिवाए उसके किसी को ठीक से नहीं पहचानता था. पर अब उसकी जद्दोजहद प्लेटफॉर्म पर खाली बेंच ढूंढ़ने को लेकर थी. वह एक और नये इंतजार में कदम रख रहा था. जो पहले से कहीं ज्यादा कोरा, सफेद और बियाबान था.

सलीब से उतरने के बाद भी खून बहता रहा उसका

वह सलीब लेकर चल रहा था. उसने उसे सलीब से उतारा. वह लहूलुहान वहीं बैठ गया. उसने उसे पानी दिया. कहा, तुम्हें थोड़ा आराम करना चाहिए. वह घुटने में सिर देकर बैठा रहा. उसने उससे कहा- ज्यादा मत सोचो. और देखो जो हुआ सो हुआ, अब आगे देखो और सोचो कि बिना सलीब का इंसानी जीवन कितना बेहतर होगा. तभी उसकी निगाहें उसके पांवों पर गयीं, जहां से खून बंद होने का नाम नहीं ले रहा था. उसका एक पांव बेड़ी से बंधा था और जो सलीब से जुड़ी हुई थी. घुटने में सिर देकर वह वहीं बैठा रहा. जिसने उसे सलीब से उतारा था, वह भी थका था, वह सो गया. नींद में एक सपना था. सपने में सलीबों का एक पार्क था. बहुत सारे लोग वहां सलीब-सलीब खेल रहे थे.

हाथ पकड़ लिया, कहीं गुम हो जातीं तो कहां ढूंढ़ते, कैसे पहचानते

वे पूर्वज थे. चार पीढ़ी पहले के. तब मेरठ ही जिला था. उनकी शादी हुई तो उन्होंने एक दूसरे को पहले कभी नहीं देखा था. दिन में जब रोशनी होती, तो उनके मुंह पर घूंघट होता, घर के भीतर चहल-पहल और सामूहिक परिवार का लिहाज. वह ज्यादातर खेत, अहाते या बैठक में जहां औरतें झांक सकती थीं, पर आ नहीं. शाम को जब वे साथ होते तो लैंप की स्याह रोशनी होती. उनकी पहचान अंधेरे की ज्यादा थी, रोशनी की कम. एक बार किसी काम से दोनों दिल्ली गये. चांदनी चौक में. वहां भीड़ थी. अजनबियत थी. उन्होंने कहा- यहां घूंघट मत करो. वह धीरे से मान गयी. इक्के से उतरते हुए उन्होंने धीरे से उनका हाथ पकड़ लिया. कहीं गुम जातीं तो कैसे खोजते उन्हें, पहचानते कैसे. उनके अंधेरों की पहचान वहां कैसे काम आती. उनकी छोटी उंगलियों पर शर्म का पसीना था, उनके हाथों में जिम्मेदारी की पकड़. उन्होंने एक-दूसरे की आंखों में देखा. लगभग पहली बार. वह मुस्कराई. पहली बार इन आंखों में उनका मुस्कराना दर्ज हुआ. चांदनी चौक से खरीदी चूड़ियों और माटी के इत्र की तरह ये निशानियां नई पहचान थीं एक दूसरे से. एक लंबी उम्र तक. परछाइयों की तरह हम तक.

पतंग की तरह खुशी जब आसमान नापती है, तो लगता नहीं कभी खत्म होगी

कई बार उदासी कुछ इस तरह से दबोच लेती है, लगता है अबकी बार नहीं जाने वाली. पर मौसम बदलता है. बादल छंटते हैं. रोशनी होती है. पसीने के साथ बुखार उतरने के बाद लौटते स्वाद की तरह हवा का हल्का सा झोंका पहले हल्के से छूता है, फिर जोरों से झटका देकर बैठे हुए मन को उठा ले जाता है, एक नयी खुशी में. एक पतंग की तरह खुशी आसमान को इस तरह और इस कदर नापती है कि उतरने का नाम ही नहीं लेती. अब कल खेलना- माएं बुलाती हैं बच्चों को मैदानों से अंधेरा होने से जरा ही पहले. पर पतंग की तरह बच्चे आखिरी बार- एक और बार-खुशी की एक और बाजी खेलते हैं. न खत्म होने वाले आसमान में. एक जिंदा पल की शिद्दत के साथ. बिना किसी अगली इच्छा, बिना किसी पिछले पछतावे के. स्मृति और उम्मीदों से शापमुक्त. और लगता है कि ऐसे जिया भी जा सकता है. पर ऐसा होता कहां है.

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