चंदन श्रीवास्तव
एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस
नजर में अटकने और दिल को खटकनेवाले कई समाचार हैं. जैसे- भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाने के वादे से आयी सरकार के वित्त मंत्री खुद भ्रष्टाचार के आरोपों से घिर गये हैं.या यह कि जिस दिसंबर में कभी बाबरी मसजिद को मिसमार किया गया था, उसी दिसंबर में अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए 20 टन पत्थर पहुंचा दिये गये हैं. या यह कि जनमत के दबाव में राज्यसभा ने किशोरों के साथ किये जानेवाले न्याय को पुनर्परिभाषित करते हुए एक संशोधन को मंजूर कर लिया है. राजनीति के सरगर्म समाचारों की भीड़ में एक समाचार और है- ठंड का समाचार. प्रभात खबर के एक पन्ने पर शीर्षक है- ‘10 वर्षों में सबसे ठंडा 21 दिसंबर .’ कंपकंपाने की अपनी हदों की ओर बढ़ते जाड़े में यह समाचार आंखों में सबसे ज्यादा चुभ रहा है.
कुछ नया नहीं है इन समाचारों में. नया तो ठंड का समाचार भी नहीं है, फिर सरगर्म समाचारों की भारी भीड़ में अपना मरियल-सा कद लेकर कंधे उचकाता यही समाचार आंखों में क्यों चुभा?
दरअसल, समाचारों की भीड़ में अपने लिए जगह तलाशता ठंड का समाचार उस भारत की कहानी कहता है, जो राजनीतिक भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता या फिर किसी अन्य अस्मितापरक चिंता का इजहार करते समाचारों के घटाटोप में हमारे आगे आ ही नहीं पाता. यह समाचार ऐसे बेघरों की कहानी कहता है, जो सड़क के किनारे किसी कार से कुचलने या फिर लू और ठंड की चपेट में आकर जान गंवाने से पहले कभी अखबारों की सुर्खी नहीं बन पाते.
ज्यादातर लोगों को हैरत होगी, लेकिन यह सच है कि बाढ़ और हिमस्खलन जैसी प्राकृतिक विपदा से जितने लोग नहीं मरते, उससे ज्यादा लोग बिजली गिरने और लू तथा ठंड की चपेट में आकर मरते हैं.
नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो के नये आंकड़े बताते हैं कि 2014 में हर घंटे प्राकृतिक विपदा के कारण औसतन दो व्यक्तियों ने जान गंवायी, और कुल 20,201 लोगों की जान गयी. इसकी तीन बड़ी वजहें रहीं- बिजली (ठनका) गिरना, लू और ठंड की चपेट में आना. बिजली गिरने से 2,582 व्यक्ति, लू से 1,248 और ठंड से 913 व्यक्ति मरे. बाढ़, भूकंप, मूसलाधार बारिश, चक्रवात, हिमस्खलन आदि से मरनेवालों की संख्या इसकी तुलना में कम है. बीते चौदह वर्षों में प्रत्येक वर्ष अकेले ठंड के कारण 800 से ज्यादा लोगों ने अपनी जान गंवायी.
ठंड की चपेट में आने की सबसे ज्यादा आशंका बेघर लोगों की है. और, नयी जनगणना में बेघर लोगों की संख्या पौने अठारह लाख बतायी गयी है. देश के शहरी इलाकों में 2011 की जनगणना के मुताबिक, 9 लाख 38 हजार और गंवई इलाकों में 8 लाख 34 हजार लोग बेघर हैं. बेघर लोगों का 40 फीसद हिस्सा सिर्फ तीन राज्यों यूपी(18 प्रतिशत) महाराष्ट्र (11 प्रतिशत) और राजस्थान (10 प्रतिशत) में केंद्रित है. बहरहाल, जनगणना की रिपोर्ट में दर्ज होने के बावजूद यह कोई पक्की संख्या नहीं है.
बेघर लोगों की परिभाषा कुछ इस तरह की गयी है कि उनकी ठीक-ठीक संख्या बता पाना बहुत ही मुश्किल है. कहा गया है कि जो एकदम से खुले आसमान के नीचे सोता हो, यानी सड़क के किनार, रेलवे प्लेटफाॅर्म अथवा फ्लाइओवरों के नीचे, उसे ही बेघर माना जायेगा. इस आबादी की ठीक-ठीक गिनती मुश्किल है, क्योंकि इनके रहने का कोई एक ठिकाना नहीं होता.
बढ़ती ठंड में बेघरों को देने के लिए हमारी राजनीति के पास क्या है? हो सकता है किसी राज्य जैसे दिल्ली में एक दो डिजायनर रैनबसेरे तैयार कर दिये जायें.
बहुत संभव है, बिहार और झारखंड सरीखे राज्यों में नगरपालिकाएं समय से पहले चेतने का संकेत देते हुए अलाव जलाने के इंतजाम करती दिखाई दें. सद्भाव भरी ऐसी राजनीतिक अभिव्यक्तियां एक कड़वी सच्चाई को ढक लेंगी. कड़वी सच्चाई यह है कि जीवन-जीविका के हमारे रोजमर्रा में बेघरों के लिए जगह पहले की तुलना में और ज्यादा तंग हुई है. अगर अर्थव्यवस्था के भीतर दाखिले का एक पैमाना साक्षरता है, तो फिर आंकड़े कहते हैं कि बेघर आबादी के बीच साक्षरता दो जनगणनाओं (2001 और 2011) के बीच 27 प्रतिशत से बढ़ कर 39 प्रतिशत हुई है, लेकिन देश के श्रमबल में बेघरों की संख्या 55 प्रतिशत से घट कर 51 प्रतिशत हो गयी है. ऐसा गांव और शहर दोनों में हुआ है. गंवई इलाके में खेतिहर मजदूरों में बेघर लोगों की संख्या 2001 में 24 प्रतिशत थी, जो 2011 में घट कर 17 प्रतिशत रह गयी.
प्रभात खबर में छपा ठंड का समाचार इसलिए सिर्फ ठंड की भयावहता का समाचार नहीं है. वह तेज छलांग मारती ऐसी अर्थव्यवस्था का भी समाचार है, जिसमें देश के सबसे कमजोर नागरिक के लिए जगह लगातार तंग होती जा रही है.