प्रकृति के प्रति निर्दयता ठीक नहीं!
अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. जहां अधिकारों की बात होती है, वहां कर्तव्य भी संलग्न रहता है. जैसे, यदि हमें जीवन जीने का अधिकार है, तो हमारा कर्तव्य भी है कि हम दूसरों की जान ना लें. उसी प्रकार, प्रकृति हमें जीवन जीने के लिए तमाम सुख-सुविधाएं प्रदान करती है, […]
अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. जहां अधिकारों की बात होती है, वहां कर्तव्य भी संलग्न रहता है. जैसे, यदि हमें जीवन जीने का अधिकार है, तो हमारा कर्तव्य भी है कि हम दूसरों की जान ना लें.
उसी प्रकार, प्रकृति हमें जीवन जीने के लिए तमाम सुख-सुविधाएं प्रदान करती है, तो हमारा कर्तव्य भी है कि हम समर्पित भाव से उसकी रक्षा करें. लेकिन, विडंबना है कि औद्योगिक विकास की हठ के आगे अपने कर्तव्यों की तिलांजलि देकर हम पर्यावरण की बलि चढ़ा रहे हैं.
‘पर्यावरण की रक्षा’ और ‘सभी प्राणियों के प्रति दयाभाव’ ना सिर्फ मौलिक कर्तव्य है, बल्कि एक नैतिक कर्तव्य भी है. लेकिन, पर्यावरण संरक्षण तो दूर, हमने इसके छेड़छाड़ की सारी सीमा ही पार कर दी है. ‘राष्ट्रीय वन नीति’ के मुताबिक, हमारे देश में 33 फीसदी वन की उपलब्धता पर्यावरण के लिए अनुकूल होती है, जबकि हमारे यहां मात्र 23 फीसदी वन शेष है. कितनी विचित्र बात है कि वनों की गोद में पल्लवित व पुष्पित सभ्यता में आज वन ही उपेक्षित हो गये! वन के साथ हमारा अस्तित्व जुड़ा है. बावजूद इसके हम बेफिक्र हैं. यही नहीं, औद्योगिक विकास और मानवीय स्वार्थों की पूर्ति के लिए प्रतिदिन लाखों पेड़-पौधों का गला घोंटा जा रहा है.
नतीजतन औद्योगिक कूड़ा-कचरा, प्रदूषण, कार्बन उत्सर्जन, हरित गृह प्रभाव और वैश्विक ऊष्णता से पूरा पर्यावरण दूषित हो गया है. दूसरी तरफ, जैव विविधता के धनी इस देश में एक समय असंख्य मासूम जीव-जंतु थे, जो प्रकृति को संतुलित बनाये रखते थे.
दुर्भाग्यवश, ऐसे कई जीव आज विलुप्त हो गये या होने के कगार पर हैं. आखिर प्रकृति के प्रति इतनी निर्दयता क्यों? क्या केवल कंक्रीट के आलीशान भवन व औद्योगिक संयंत्र ही मानव का पोषण करेंगी? अगर नहीं, तो फिर यह मूर्खता क्यों? अगर हां, तो फिर कैसे?
– ▪सुधीर कुमार, गोड्डा