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वादे, घोषणाएं और वास्तविकता
अभिजीत मुखोपाध्याय अर्थशास्त्री मई, 2014 में जब वर्तमान सरकार ने कार्यभार संभाला, तो वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक मंदी थी. 2008 के संकट के बाद अच्छा प्रदर्शन करने के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था में 2011 के बाद गिरावट आने लगी थी. उसके बाद उद्योग तथा शहरी आबादी के एक उतावले वर्ग ने ऐसा महसूस किया कि अर्थव्यवस्था […]
अभिजीत मुखोपाध्याय
अर्थशास्त्री
मई, 2014 में जब वर्तमान सरकार ने कार्यभार संभाला, तो वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक मंदी थी. 2008 के संकट के बाद अच्छा प्रदर्शन करने के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था में 2011 के बाद गिरावट आने लगी थी. उसके बाद उद्योग तथा शहरी आबादी के एक उतावले वर्ग ने ऐसा महसूस किया कि अर्थव्यवस्था को अगले स्तर तक उठाने की दिशा में सरकार पर्याप्त सुधार नहीं कर रही है, जो पिछली सरकार की हार का एक प्रमुख कारण बन गया.
मगर, इस उथल-पुथल के बीच एक अहम तथ्य नजरंदाज कर दिया गया कि 2012 के बाद स्वतंत्र भारत में पहली बार विनिर्माण क्षेत्र की प्रगति धराशायी हो गयी. सेवा क्षेत्र हावी हो उठा और उसने इस तथ्य से सार्वजनिक ध्यान बिल्कुल हटा दिया. इसलिए इसमें आश्चर्य नहीं कि नयी सरकार का पहला अहम प्रयत्न ‘मेक इन इंडिया’ के रूप में सामने आया, जिसका उद्देश्य भारत को विश्व का नया विनिर्माण केंद्र बनाना है.
बहुत से लोगों की सोच है कि यह चीन का अनुकरण है और जो कुछ हद तक सही भी है. मगर, इसका एक अन्य पहलू विदेशी निवेश आकृष्ट करना है, जो अर्थव्यवस्था में घटते निवेश को बढ़ा सके और साथ ही अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत के लिए ऋण का बोझ भी पैदा न करे.
फिर इस तथ्य के मद्देनजर कि सेवा क्षेत्र हालिया अतीत में जीडीपी में एक बड़ा योगदान (55 से 60 फीसदी) करते हुए भी आम आबादी के लिए पर्याप्त रोजगार नहीं पैदा कर सकता (नये रोजगारों का केवल 20 प्रतिशत, वह भी ज्यादातर अंगरेजी बोलनेवाली शहरी आबादी के लिए बाबूगिरी वाले काम). विनिर्माण में वृद्धि को ही बेरोजगारी का कारगर समाधान माना जाता है, क्योंकि इसमें कुशल तथा अकुशल सभी कामगारों को रोजगार देने की क्षमता होती है.
मगर, यदि वास्तविकता पर गौर करें, तो साफ है कि मेक इन इंडिया द्वारा उड़ान भरना अभी बाकी है. इसकी पहली वजह यह है कि भारत को विनिर्माण का केंद्र बनाने के लिए ज्यादा बुनियादी ढांचे की जरूरत है.
पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल की असफलता की वजह से बुनियादी ढांचे की अधिकतर परियोजनाएं या तो अपूर्ण हैं या अभी शुरू भी नहीं हो सकी हैं. नतीजन सरकार ने नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर एंड इनवेस्टमेंट फंड को हाल ही 20,000 करोड़ रुपये मुहैया करने के साथ ही पिछले बजट में 70,000 करोड़ रुपयों की अतिरिक्त बढ़ोतरी का वादा किया. यह रकम इस उदेश्य के लिए पर्याप्त हैं या नहीं, यह प्रश्न 2015 में अनुत्तरित ही रह गया.
दूसरी वजह, वैश्विक मांग के गिरे रहने से एफडीआइ उतना ही अनिश्चित रहा, जितना वह 2014 में था. हालांकि, हाल ही में पेंशन और कुछ रक्षा क्षेत्र ज्यादा एफडीआइ के लिए खोले गये हैं, पर वैश्विक स्थितियों के कारण अभी निवेशकों का मिजाज अनिश्चित दिख रहा है.
तीसरी वजह, विनिर्माण केवल सस्ती श्रम लागतों के भरोसे रफ्तार नहीं पकड़ता, उसके लिए अर्द्धकुशल तथा कुशल श्रमबल की जरूरत भी होती है और इस क्षेत्र में भारत की स्थिति दयनीय है. इसी समस्या के समाधान के लिए नयी सरकार ने ‘स्किल इंडिया’ कार्यक्रम की शुरुआत की, पर देश को अभी किसी तदर्थ प्रकृति के कार्यक्रम के बजाय कौशल निर्माण तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए बड़े पैमाने पर उपयुक्त संस्थानों की स्थापना की जरूरत है.
कौशल रातों-रात विकसित नहीं किये जा सकते. किसी भी देश में आर्थिक विकास के पहले हमेशा शिक्षा, स्वास्थ्य तथा अन्य बुनियादी सामाजिक संकेतकों के लिहाज से ठोस मानव संसाधन का विकास हुआ है. मगर, भारत में हालिया वर्षों में दोनों सरकारों द्वारा सामाजिक क्षेत्र पर व्यय में कटौती ही की गयी है. यह तय है कि इसे बढ़ाये बगैर मानव पूंजी का विकास मुमकिन नहीं है. वर्तमान सरकार कितनी भी शानदार घोषणाएं क्यों न कर ले, विश्व के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ है, न ही यह भारत में हो सकेगा.
अंतिम, मगर सर्वाधिक अहम वजह यह रही कि घरेलू निजी निवेश 2014 की ही तरह पूरे 2015 में भी उदासीन रहा. इसका कारण यह है कि 2003 से 2008 के वक्त उद्योगों ने अपने व्यवसाय के विस्तार हेतु सभी स्रोतों से बड़ी मात्रा में ऋण ले लिये, जिनका पुनर्भुगतान अभी बाकी है. अतः अब आर्थिक विकास में एक जड़ता देख वे कोई जोखिम नहीं लेना चाहते.
सार्वजनिक क्षेत्र के सभी बैंकों में गैर-निष्पादित आस्तियों (एनपीए) की बढ़ती मात्रा इसका सबूत पेश करती है. घरेलू उद्योग वस्तु एवं सेवा कर अथवा श्रम सुधार जैसे कदमों को लागू करने की मांग कर रहे हैं. मगर घरेलू मांग में इजाफा नहीं होने की स्थिति में इन सुधारों के बावजूद घरेलू निवेश तब तक परवान नहीं चढ़ पायेगा, जब तक निवेश के क्षेत्र में सरकार प्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप न करे.
अब हम समाधान की संभावनाओं पर गौर करें. अंतरराष्ट्रीय मांग में मंदी की स्थिति में तार्किक यह होगा कि हम घरेलू मांग बढ़ाने की चेष्टा करें, जैसा चीन समेत अधिकतर प्रमुख देश कर रहे हैं.
पर यह भ्रमित कर देनेवाली स्थिति है कि भारतीय अर्थव्यवस्था अपने पुनरुत्थान के लिए अब भी निर्यात तथा एफडीआइ पर निगाहें टिकाये बैठी हैं. तेल तथा जिंसों की कीमतों में ऐतिहासिक गिरावट के कारण चालू खाते का घाटा अपने निम्नतम स्तर पर है और विदेशी मुद्रा का सुरक्षित भंडार भरा-पूरा है. ऐसे में हमारी आर्थिक जड़ता का समाधान बाहर से नहीं आयेगा, सरकार को ही आगे आकर राजकोषीय प्रोत्साहन प्रदान करना होगा.
घरेलू निवेश के पूंजीकरण के लिए वित्तीय समावेशन के इरादे का जोरदार प्रचार किया गया है. जन-धन योजना के अंतर्गत 19 करोड़ नये बैंक खाते खोले गये, जिनमें 25,000 करोड़ रुपये जमा होने की आधिकारिक घोषणा की गयी है.
हालांकि, यह समावेशन की दिशा में पहला कदम है, पर यह जमा रकम कभी भी घरेलू निवेश के लिए प्राथमिक स्रोत मुहैया नहीं कर सकती. जब तक ऋण तक, खासकर कृषि ऋण तक ज्यादा से ज्यादा लोगों की पहुंच सुगम नहीं बनायी जाती, वित्तीय समावेशन तथा उसके नतीजे में घरेलू मांग पैदा करने की कवायद हमेशा ही एक अवास्तविकता बनी रहेगी.
भारत अभी जनांकिकीय परिवर्तन के दौर से भी गुजर रहा है. यहां की आबादी में युवाओं की तादाद हावी होने जा रही है. ऐसा आकलन किया गया है कि 2010 से 2020 के बीच लगभग 13 करोड़ युवा श्रमबल में शामिल होंगे. यानी हर साल लगभग एक करोड़ 30 लाख युवा इसमें जुड़ेंगे. यदि इस जनबल को शिक्षा, प्रशिक्षण और रोजगार नहीं मिला, तो यह जनांकिकीय पूंजी दोधारी तलवार भी साबित हो सकती है, जो सामाजिक तथा राजनीतिक अशांति ही पैदा करेगी.
यह केवल आशा ही की जा सकती है कि नयी सरकार 2015 में की गयी अपनी घोषणाओं तथा उनके प्रचार के बजाय, आगामी वर्षों में क्रमशः आगे आती युवाओं की इस आबादी के लिए आजीविका के अवसर पैदा कर एक समावेशी किस्म के आर्थिक विकास की ओर सार्थक ढंग से बढ़ेगी.
(अनुवाद : विजय नंदन)
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