चुनाव का वक्त सरकारों को सदाशयी बना देता है. सत्ता में बैठे लोग अचानक सांता क्लाज के रूप में नजर आने लगते हैं. उनकी झोलियों से आम जनता के लिए नित-नयी सौगात निकलने लगती है. 2014 के चुनाव से पहले भी मंजर कुछ अलग नहीं है. सभी की थाली में रोटी पहुंचाने का वादा कर चुकी केंद्र सरकार ने अब हर जरूरतमंद को इलाज के लिए मुफ्त दवाई देने की पहल की है.
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने सार्वजनिक अस्पतालों और डिस्पेंसरियों के मार्फत गुणवत्तापूर्ण दवाइयां जरूरतमंदों तक पहुंचाने के लिए एक एजेंसी के गठन की घोषणा की है. इसका काम स्वास्थ्य सेवा संबंधित वस्तुओं की खरीद करना और उसका वितरण करना होगा. सरकार द्वारा सूचीबद्ध 348 अनिवार्य दवाइयां इसमें शामिल होंगी. महंगे इलाज की मार ङोल रही आम जनता की मदद के लिए सरकार की यह पहल स्वागतयोग्य है. यह एक तथ्य है भारत में 70 प्रतिशत लोगों के लिए इलाज का खर्च उनकी जेब की क्षमता से बाहर होता है.
अगर सचमुच ऐसी व्यवस्था की जा सके कि हेल्थ सेंटर्स मांगी गयी दवा देने से इनकार नहीं कर पायें, तो यह आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए सपना सच होने जैसा होगा. लेकिन, सरकार योजनाओं के साथ समस्या इसी ‘अगर’ के साथ शुरू होती है. सवाल योजना का नहीं उसके क्रियान्वयन का है. देश में सरकारी अस्पतालों की हालत किसी से छिपी नहीं है. देश की राजधानी दिल्ली के अस्पताल भी संसाधनों, बिस्तरों और मरीजों के लिए अनिवार्य सुविधाओं की कमी से जूझ रहे हैं, राज्यों के अस्पतालों का क्या कहना! दवाइयों का न मिलना, उनकी बर्बादी या मरीजों को एक्सपाइरी डेट की दवाइयां वितरित करना, सरकारी अस्पतालों से आनेवाली रूटीन खबरें हैं.
सवाल है कि स्वास्थ्य के मूलभूत ढांचे को सुधारे बिना, डिलिवरी तंत्र में लीकेज रोके बिना ऐसी घोषणाएं वास्तव में कितनी कामयाब हो सकती हैं? सरकार अगर वाकई मरीजों को ऐसी सुविधाएं देने के प्रति गंभीर होती, तो वह इसकी पहल अपने कार्यकाल की शुरुआत में करती. तब वह इस योजना की खामियों को दूर भी कर सकती थी. चुनाव से ऐन पहले की गयी घोषणाएं सदिच्छा (इंटेंट) दिखाने का काम तो करती हैं, पर वास्तव में बहुत कुछ बदल नहीं पातीं.