डॉ सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
प्रूफरीडर की महिमा से भला कौन परिचित नहीं होगा. परिचित ही नहीं, सभी उससे आतंकित भी रहते हैं. बड़ा लेखक भी उसके सामने लाचार नजर आता है. पुर्तगाल के नोबेल विजेता लेखक जुजे सरामागू की ‘लिस्बन की घेराबंदी का इतिहास’ नामक किताब के प्रूफ पढ़ते हुए राईमुंदु सिल्वा नाम के प्रूफरीडर ने उसके एक वाक्य ‘लिस्बन की घेराबंदी के समय मुजाहिदों ने पुर्तगालियों की मदद की’ में ‘मदद’ और ‘की’ के बीच ‘नहीं’ शब्द डाल दिया था, क्योंकि उसके अपने मतानुसार, मुजाहिदों ने आक्रमणकारियों के विरोध में पुर्तगालियों का साथ नहीं दिया था. जाहिर है, इससे लेखक का आशय ही बदल गया.
प्रूफरीडर के अत्याचार से, लगता है, कवि बिहारीलाल को भी दो-चार होना पड़ा था. वही बिहारीलाल, जिनके बारे में ‘बिहारी बड़ा कि देव’ का विवाद खड़ा कर देव को उनसे बड़ा सिद्ध करने में मिश्रबंधुओं ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था. कुछ कवि-आलोचक तो उनकी तुलना दुलारेलाल तक से करने लगे थे, जिसका एक कारण तो शायद तुक फिट बैठ जाना रहा होगा, और दूसरा यह कि दुलारेलाल एक बड़े प्रकाशक भी थे. इस विवाद को निपटाने का श्रेय निराला जी को जाता है. निराला जी कविता ही नहीं करते थे, बल्कि विवाद भी निपटाते थे.
एक दिन प्रकाशक दुलारेलाल भार्गव के दोहा-संकलन का विमोचन-समारोह था. बड़े-बड़े दौनों में शुद्ध घी का हलुआ खाते-खाते उपस्थित कविजनों में भार्गव जी के प्रशस्ति-गायन की होड़ लग गयी. एक कवि ने दुलारेलाल जी के दोहा-संग्रह को महाकवि बिहारी के कालजयी ‘बिहारी सतसई’ से भी श्रेष्ठ कह दिया, तो निराला यह सहन नहीं कर सके.
जब उन्हें संबोधन हेतु आमंत्रित किया गया, तो उन्होंने दौने में बचा हलुआ एक-साथ समेट कर खाया, कुरते की बांह से मुंह पोंछा और शेर की तरह खड़े होकर बड़ी-बड़ी आंखों से चारों ओर देखते हुए एक दोहा कहा, जिसे सुनते ही सन्नाटा छा गया. दुलारेलाल जी की प्रशस्ति कर रहे कवियों ने अपना चेहरा छिपाते हुए खिसकना शुरू कर दिया. खुद दुलारेलाल जी भी वहां नहीं रुक सके. महाप्राण निराला रचित वह दोहा था- कहां बिहारीलाल हैं, कहां दुलारेलाल? कहां मूंछ के बाल हैं, कहां पूंछ के बाल?
कवि बिहारीलाल ने लिखा है कि मैंने एकदम नयी नागरी लिपि में उस समय के सबसे जोरदार डेस्कटॉप-ऑपरेटर आमिर से अपनी ‘सतसई’ की पांडुलिपि टंकित करायी थी, जिसमें एक भी गलती नहीं थी, पर जब किताब छप कर आयी, तो देखा कि प्रूफरीडर ने मेरी किताब में भी काफी ‘और का और’ कर दिया था- नवनागरि तन मुलुक लहि, जोबन आमिर जोर. घटि-बढ़ि ते बढ़ि-घटि रकम, करी और की और.
फिर तो बिहारी ने इस समस्या पर बहुत ध्यान दिया और काफी सोच-विचार कर अच्छे प्रूफरीडर के गुण कुछ इस तरह बताये कि प्रूफरीडर की नजर वैसी ही पैनी, बड़ी और खुली रहनी चाहिए, जैसे किसी तरुणी को घूरते समय किसी युवक की हो जाती है और कि उस कुछ और ही तरह की चितवन द्वारा प्रूफ पढ़ने से ही चतुर-सुजान पाठक वश में आ पाते हैं
– अनियारे दीरघ दृगनु किती न तरुनि समान. वह चितवनि औरै कछू, जिहिं बस होत सुजान.