चरम पर है राजनीतिक टकराव
पुण्य प्रसून वाजपेयी वरिष्ठ पत्रकार साल 2015 भी बीत गया. साल 2014 के चुनाव के बाद सबसे उम्मीद भरा साल 2015 ही माना जा रहा था. माना जा रहा था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ नकेल कसी जायेगी, कालाधन को लेकर सरकार कोई ठोस निर्णय लेगी, संसद के भीतर दागी छवि वाले सांसदों के खिलाफ मुकदमा […]
पुण्य प्रसून वाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
साल 2015 भी बीत गया. साल 2014 के चुनाव के बाद सबसे उम्मीद भरा साल 2015 ही माना जा रहा था. माना जा रहा था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ नकेल कसी जायेगी, कालाधन को लेकर सरकार कोई ठोस निर्णय लेगी, संसद के भीतर दागी छवि वाले सांसदों के खिलाफ मुकदमा चलेगा, कालाबाजारियों और बिचौलियों के खिलाफ कार्रवाई होगी, किसानों और मजदूरों को लेकर सरकार के भीतर चिंता होगी और आनेवाले वक्त में एक नये तरह की राजनीतिक पौध देखने को मिलेगी. लेकिन 2015 बीतते-बीतते यह सवाल निकल कर आ रहा है कि क्या संसदीय राजनीति 2014 से पहले की उन्हीं परिस्थितियों की ओर लौट रही है? भाजपा और उसके साथ खड़े आरएसएस की यह धारणा 2014 में ही बनी थी कि वह अपना शुद्धिकरण करेगी.
लेकिन, इसका एहसास किसी को भी नहीं था कि शुद्धिकरण का यह रास्ता अपनों के खिलाफ खड़ा होगा. अपनों को लेकर भ्रष्टाचार के खिलाफ जो भी आवाज उठेगी, उसे दबा दिया जायेगा! शायद यही वजह है कि भ्रष्टाचार को लेकर भारत की समूची राजनीति जो राजनीतिक सत्ता को मजबूत कर रही थी और सारे तंत्रों को कमजोर कर रही थी, वह इतनी ताकतवर हो चली है कि ऐसा लग रहा है राजनीतिक सत्ता जिसके पास होगी, उसी का कहा आखिरी होगा. इसका भी एहसास किसी को नहीं था कि कोई अपना ही व्यक्ति प्रधानमंत्री मोदी के ‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’ की राह पकड़े और वह अगर अपनों के ही खिलाफ कोई मुद्दा उठाये, तो फिर उसे पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जायेगा.
मुश्किल यह नहीं है कि कीर्ति आजाद बाहर कर दिये गये और अरुण जेटली सत्ता में बने हुए हैं, बल्कि मुश्किल यह है कि जो मापदंड 2014 के लोकसभा चुनाव के परिणाम में तय हुए थे, वे 2015 में इस तरह से डगमगा गये, जिससे लगता है कि भाजपा में एक ऐसे कॉकस ने जन्म ले लिया है, जिसके तहत इसका अहसास हर किसी को है कि अगर यह कॉकस रहेगा, तो ही सत्ता रहेगी. हालांकि, दिल्ली के बाद बिहार ने एक रास्ता जरूर दिखाया कि जिन मापदंडों के आसरे आप लगातार चुनाव जीत रहे हैं, यह जरूरी नहीं कि उसके सहारे आगे भी जीतते चले जायें.
मौजूदा वक्त शायद एक खतरनाक दौर से गुजर रहा है. इसकी तीन सबसे बड़ी वजहें हैं. पहली, आर्थिक स्थिति डगमगाई हुई है. दूसरी, सामाजिक स्तर पर असमानता को पाटने को लेकर कोई विजन नहीं है.
तीसरी, न सामाजिक दबाव काम कर रहा है और न ही सरकार के पास कोई विजन है, जिसके जरिये यह रास्ता निकले कि आनेवाले दिनों में देश जायेगा किधर. 2014 में यह कहा गया था कि कानून को अपना काम मजबूती से करना चाहिए, लेकिन कानून में राजनीतिक हस्तक्षेप होने को लेकर बहस छेड़ दी गयी. राज्यसभा में अगर कोई विधेयक रुक रहा है, तो राज्यसभा की भी कोई महत्ता नहीं होनी चाहिए, इसकी भी बहस शुरू की गयी. यानी लोकसभा में जिसकी सत्ता रहे वही सर्वोपरि हो जाये, यह एक नयी राजनीतिक सोच पैदा करने की कोशिश की गयी.
मनमोहन सिंह के दौर में 2009 के बाद से जो स्थितियां बनी थीं, चाहे वह टूजी स्केम हो, कोलगेट हो, कॉमनवेल्थ स्केम हो, आदर्श घोटाला हो, यानी कमोबेश वही स्थिति आज बनी हुई देश में.
इसीलिए 2015 में यह बात निकल कर आयी कि भारतीय राजनीति के लिए देश मायने नहीं रखता, बल्कि राजनीतिक सत्ता मायने रखती है. मसलन, जीएसटी बिल. जो जीएसटी बिल कांग्रेस लेकर आयी थी, उसका उस समय भाजपा विरोध कर रही थी. जो भूमि अधिग्रहण बिल कांग्रेस लेकर आयी थी, उसका भाजपा विरोध कर रही थी. आज जब इन विधेयकों को भाजपा लेकर आयी है, तो कांग्रेस विरोध कर रही है.
यानी राजनीतिक तौर पर 2015 का पहला संदेश है कि जिसकी सत्ता रहेगी और उसके जेहन में जो भी विजन होगा, वह उसी अनुसार देश को चलना होगा, नहीं तो देश पटरी से उतर जायेगा. दूसरा संदेश है कि राजनीतिक सत्ता ही अगर सब कुछ है, तो अब संसदीय राजनीति के भीतर ऐसे प्रावधानों को खोजना होगा, जो कि राजनीतिक सत्ता के अनुकूल सब कुछ को ना बना दे.
तीसरा संदेश है कि संविधानिक संस्थानों में नियुक्तियों में राजनीतिक भागीदारी को खत्म करना होगा. यानी अब कांग्रेस और भाजपा की लकीर पर देश को नहीं चलना होगा, बल्कि न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका तीनों को बिना राजनीतिक दखल के अपना काम करना होगा. लेकिन, मौजूदा स्थिति यह है कि पीएमओ इतना ताकतवर हो चला है कि ब्यूरोक्रेसी, न्यायपालिका और संविधानिक संस्थाओं को भी उसके मातहत काम करना पड़ रहा है. दरअसल, 2015 ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि 2016 का रास्ता आनेवाले वक्त में कठिन इसलिए होगा, क्योंकि राजनीतिक टकराव चरम पर है. पार्टी के भीतर भी भ्रष्टाचार की आवाज ना उठे और अगर वह राजनीतिक सत्ता की चूलें हिलाने लगे, तो वह भी मंजूर नहीं होगा- यह कीर्ति आजाद का उदाहरण है.
राजनीतिक तौर पर किसी राज्य के संगठन तक को दरकिनार किया कैसे जा सकता है- बिहार इसका बेहतरीन उदाहरण है. यानी एक वक्त में जो सारे काम कांग्रेस कर रही थी, अब मोदी सरकार में उसी का प्रतिबिंब नजर आ रहा है. तो क्या भारत की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियां दोबारा सत्तर के दशक में लौट रही हैं?
कांग्रेस में विरासत और परिवार महत्वपूर्ण था, जिसके इर्द-गिर्द चीजें घूमती थीं. तो क्या भाजपा में ऐसी स्थिति आ गयी है, जहां संघ परिवार सबसे ताकतवर नजर आता था, लेकिन उसकी मजबूरी है कि भाजपा सत्ता में रहे और भाजपा को सत्ता में लाने के लिए अगर एक चेहरा नरेंद्र मोदी हैं, तो उन्हीं के अनुकूल सारे काम उसे करने होंगे क्या? और यह भाजपा के भीतर अगर चेक एंड बैलेंस की स्थिति खत्म होती है, तो भाजपा का भी कांग्रेसीकरण कैसे होगा, यह उसके सामने एक नयी तस्वीर 2015 में आयी है.
यानी 2016 की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि राजनीतिक सत्ता का लोकतांत्रिकरण सरकार कैसे कर पाती है और इस देश के अनुकूल सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाें को लाने के लिए क्या राजनीतिक सत्ता भी काम करेगी और उसके नेता भी काम करेंगे या वे तानाशाह हो जायेंगे? यह बड़ा संदेश है 2015 का.
अंधेरा दोनों तरफ है. 2016 शुरू होते-होते कोई उजाला होगा या नहीं, इसकी संभावना नजर नहीं आ रही है. हालांकि, यह कहा जा सकता है कि जिनको सत्ता में बिठाया गया है, यह जरूरी नहीं कि उनके जरिये उजाला निकले. उजाला जनता ही तय करती है. तो इंतजार कीजिए 2016 में आनेवाले वक्त में उस सुबह का, जिसमें जनता कुछ तय करेगी.