क्या नयी इबारत लिखेगा 2016?
उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार बीते 25 दिसंबर को अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूस-अफगानिस्तान के दौरे से लौटते हुए अचानक कुछ घंटों के लिए पाकिस्तान जाने का कदम न उठाया होता, तो वर्ष 2015 उनकी सरकार के खाते में शायद ही कोई चमकदार पहलकदमी होती. ‘सबका साथ-सबका विकास’, ‘न खायेंगे न खाने देंगे’, ‘कालाधन वापस लायेंगे’ […]
उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
बीते 25 दिसंबर को अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूस-अफगानिस्तान के दौरे से लौटते हुए अचानक कुछ घंटों के लिए पाकिस्तान जाने का कदम न उठाया होता, तो वर्ष 2015 उनकी सरकार के खाते में शायद ही कोई चमकदार पहलकदमी होती. ‘सबका साथ-सबका विकास’, ‘न खायेंगे न खाने देंगे’, ‘कालाधन वापस लायेंगे’ जैसे उनके सारे वायदों-नारों की चमक महज अठारह महीने की सरकार में फीकी पड़ चुकी थी.
दिल्ली और बिहार में चुनावी हार के बाद उनकी पार्टी का उत्साह मंद पड़ गया था. रिकाॅर्डतोड़ वैदेशिक दौरों के बावजूद मोदी जी को निवेश-व्यापार में बहुत ठोस कामयाबी नहीं मिली. अपने शपथग्रहण समारोह में पड़ोसी देशों के प्रमुखों को बुला कर नये तरह के रिश्तों का संकेत देनेवाले प्रधानमंत्री की नेपाल-कूटनीति की कमजोरियां तत्काल सामने आयीं. इतनी सारी नकारात्मकता के बीच प्रधानमंत्री ने वर्षांत में लीक से हट कर पाकिस्तान के साथ कूटनीति का नया शास्त्र गढ़ने की कोशिश की है.
यह चमत्कारिक पहल क्या वर्ष 2016 में भारत-पाक रिश्तों की नयी इबारत लिखेगी? यह सिर्फ दो देशों के रिश्तों का मसला नहीं है, हमारी घरेलू राजनीति और अर्थनीति को भी यह प्रभावित करता है.
प्रधानमंत्री मोदी के आलोचक ही नहीं, उनके पारंपरिक प्रशंसकों का एक हिस्सा भी इस पहल से ज्यादा उत्साहित नहीं है. कुछ तो बेहद सख्त नाराज हैं. दूसरी तरफ, उनके ज्यादातर आलोचक इसे ऐसी नुमाइशी पहल मान रहे हैं, जिसका कोई नतीजा नहीं निकलनेवाला.
बहरहारल, कोशिश चाहे नुमाइशी ही क्यों न हो, संभव है, काबुल से दिल्ली के रास्ते में लाहौर रुकने की योजना अचानक नहीं, कुछ पहले तय हुई हो (नये खुलासों से इस बात में दम भी दिखता है), हो सकता है दोनों तरफ से कुछ खास काॅरपोरेट घरानों के व्यापारिक-हित हों. संभव है, इसके जरिये प्रधानमंत्री का राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बदलने का मकसद भी हो, पर मैं निजी तौर पर भारत-पाक के बीच संवाद की हर कोशिश के पक्ष में हूं. इसलिए प्रधानमंत्री मोदी की लौहार जाने की पहल 2015 की एक बड़ी घटना है.
यह सही है कि उनके आकस्मिक दौरे के पीछे किसी सुसंगत कूटनीतिक पृष्ठभूमि का अभाव दिखता है, पर दो प्रधानमंत्रियों के अनौपचारिक ढंग से मिलने के भी फायदे होते हैं. रिश्तों की बेहतरी की हर कोशिश को पंचर करनेवाली कट्टरपंथी मानसिकता भी इस तरह की पहल से कुछ कमजोर होती है. अब बड़ा सवाल यह है कि यह सिलसिला कैसे आगे बढ़ेगा?
दोनों देशों के रिश्तों के बीच बहुत सारे ‘विघ्न-संतोषी तत्व’ देश-विदेश में हमेशा सक्रिय रहते हैं. इसमें एक बड़ा खेमा तो स्वयं प्रधानमंत्री जी का अपना ‘राजनीतिक परिवार’ है, जिसमें उनकी पार्टी के अलावा संघ, विहिप आदि शामिल रहे हैं. क्या प्रधानमंत्री मोदी वर्ष 2016 में भारत-पाक रिश्तों को लेकर अपने ‘परिवार’ की दशकों की सोच को बदल पायेंगे? उनके दौरे के ऐन बाद भाजपा के महासचिव राम माधव का भारत-पाक-बांग्लादेश पर आया विवादास्पद बयान मेरे सवाल को जायज ठहराता है.
हालांकि, भाजपा ने फौरन माधव के बयान को उनका निजी मंतव्य बताते हुए स्पष्टीकरण भी जारी किया. कुछ खास अंतरराष्ट्रीय शक्तियों की भी भारत-पाक रिश्तों को पेंचदार बनाने में हमेशा भूमिका रही है. अत्याधुनिक हथियार बनानेवाली कंपनियों के आर्थिक हितों के लिए लाबिंग करनेवाली विदेशी सरकारें और उनके शीर्ष नेताओं की भूमिका का समय-समय पर पर्दाफाश भी होता रहा है.
दोनों देशों के तूफानी रिश्तों में इनकी नौकरशाही, खास कर फौज, सुरक्षा एजेंसियों और मीडिया की भी हमेशा से अहम भूमिका रही है. अभी देखिये, 25 दिसंबर को प्रधानमंत्री का लाहौर दौरा था. लेकिन महज दो-तीन दिनों के अंदर हमारे मीडिया के एक हिस्से में माहौल पर सवाल उठाती कहानियां शुरू हो गयीं. दरअसल, हमारे यहां कम से कम आधे दर्जन अंगरेजी-हिंदी न्यूज चैनल भारत-पाक रिश्तों में सुधार के ‘आदि-शत्रु’ बने हुए हैं.
हर शाम अपनी अग्निवर्षी बहसों में ‘देश जवाब चाहता है’ का आह्वान करनेवाले अंगरेजी-हिंदी न्यूज चैनल देशों के रिश्तों को ज्यादा से ज्यादा खराब करने में कुछ यूं लगे रहते हैं, मानो रिश्ते ठीक होने से उनके ‘न्यूज आवर’ या ‘प्राइम-टाइम’ का एक स्थायी मसला ही खत्म हो जायेगा. दोनों देशों के मीडिया कवरेज को देखने के बाद हम आसानी से समझ सकते हैं कि भारत के मुख्यधारा मीडिया के अहम हिस्से में आज भी दोनों देशों के रिश्तों को लेकर ज्यादा उग्रता है, जबकि पाकिस्तान में ऐसी उग्रता वहां के उर्दू अखबारों में ज्यादा दिखती है.
राजनीतिक दलों के स्तर पर भी पाकिस्तान के मुकाबले भारत में इन रिश्तों को लेकर अभी तक आम-सहमति का माहौल नहीं है. प्रधानमंत्री मोदी के लाहौर दौरे को लेकर वहां के लगभग सारे प्रमुख विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का साथ दिया. मुख्य विपक्षी-पीपीपी ने भी खुल कर समर्थन किया.
यह बात किसी से छुपी नहीं कि इस दौरे में निजता-अनौपचारिकता ज्यादा थी, पर इससे वहां के विपक्षी दल नवाज शरीफ से बेवजह नहीं बिदके. जबकि भारत में हालात ऐसे नहीं दिखे. मुख्य विपक्षी कांग्रेस हो या अन्य क्षेत्रीय दल, कइयों ने मोदी के लाहौर दौरे को अलग-अलग दलीलें और वजहें गिना कर लगभग खारिज ही किया. इनमें कुछ की सैद्धांतिक वजहें हो सकती हैं, पर ज्यादातर की निजी राजनीतिक वजहें थीं. प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी का विपक्षी दलों के साथ या अतीत के सत्ताधारी दलों से ऐसे मामलों में जिस तरह का रिश्ता रहा, उसे आज तक कोई नहीं भूला है.
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की कूटनीतिक कोशिशों के विफल हो जाने के बाद सन् 2004 में सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री डाॅ मनमोहन सिंह ने रिश्तों को जोड़ने की नये सिरे से कोशिश की. दोनों देशों के बीच सबसे पहली शिखर-मुलाकात क्यूबा के हवाना में हुई. मनमोहन सिंह और परवेज मुशर्रफ के बीच मुद्दों और उनके समाधान को लेकर अच्छी समझदारी बनी. इसके साथ ही कश्मीर मसले की रोशनी में मुशर्रफ ने अपना चार-सूत्री फाॅर्मूला पेश किया.
बात काफी आगे बढ़ी, लेकिन उस पूरे दौर में तत्कालीन विपक्षी भाजपा मनमोहन सिंह की हर पहल को ध्वस्त करने में जुटी रही. राजनीतिक दबाव बनाया गया कि कांग्रेस के अंदर भी एक बड़ी लाबी पार्टी आलाकमान को भरमाने में कामयाब रही कि भारत-पाक कूटनीति का मनमोहन फाॅर्मूला देश और पार्टी के हक मे नहीं होगा. मनमोहन पाकिस्तान जाना चाहते थे, पर कांग्रेस और सरकार के अंदर से ही ऐसा दबाव बनता रहा कि उनके पाक-दौरे का कार्यक्रम नहीं बन सका.
उधर, मुशर्रफ भी लाल-मसजिद उग्रवादी कब्जे के बाद कमजोर होते गये और इस तरह एक बड़ी संभावना का अंत हो गया. ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी के पास सबक लेने के लिए काफी कुछ है.
क्या वर्ष 2016 एक नया प्रस्थानबिंदु बनेगा? क्या मोदी घरेलू-राजनीति में अनावश्यक टकराव पैदा करने की रणनीति खत्म कर बेहतर कामकाजी माहौल बनाने की पहल करेंगे? हमारी विदेश नीति अंततः गृह-नीति के बिल्कुल उलट नहीं हो सकती. इसलिए मोदी अगर पड़ोसियों से रिश्तों की नयी इबारत लिखना चाहते हैं, तो उन्हें अपनी सरकार के घरेलू एजेंडे के कुछ खास पहलुओं में भी बदलाव करना होगा.