बाजार और दर्शकों का टकराव

विनोद अनुपम फिल्म समीक्षक दिसंबर के पहले हफ्ते में एक मित्र ने पूछा-इस हफ्ते किस फिल्म पर लिख रहे हो? मैंने कहा, ‘हेटस्टोरी-3’. उसने कहा-कहां फंसे हो, ‘कजरिया’ देखो और इस पर लिखो. दंग रह जाओगे, नये-नये डायरेक्टर, नये-नये कलाकारों और प्रयोगों के साथ हिंदी सिनेमा में सामने आ रहे हैं. मैं क्या कहता, पटना […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 2, 2016 6:06 AM
विनोद अनुपम
फिल्म समीक्षक
दिसंबर के पहले हफ्ते में एक मित्र ने पूछा-इस हफ्ते किस फिल्म पर लिख रहे हो? मैंने कहा, ‘हेटस्टोरी-3’. उसने कहा-कहां फंसे हो, ‘कजरिया’ देखो और इस पर लिखो. दंग रह जाओगे, नये-नये डायरेक्टर, नये-नये कलाकारों और प्रयोगों के साथ हिंदी सिनेमा में सामने आ रहे हैं.
मैं क्या कहता, पटना जैसे शहर तक भी कजरिया जैसी फिल्में पहुंच ही कहां पा रही हैं. यह बात एक कजरिया की नहीं, जिसमें मधुरीता आनंद ने भ्रूण हत्या जैसे मामले को पूरी संवेदना और सिनेमेटिक व्याकरण के साथ चित्रित करने की कोशिश की थी. साल 2015 में ‘हवाईजादा’, ‘किस्सा’, ‘कॉफी ब्लूम’, ‘मार्गरिटा विद स्ट्रा’, ‘मसान’, ‘पी से पीएम तक’, ‘गौर हरि दास्तान’, ‘तितली’, ‘एंग्री इंडियन गॉडेस’ जैसी फिल्में लगातार आती रहीं, जो हिंदी सिनेमा के लिए नयी परिभाषा रच रही थीं. मुश्किल यह कि ज्यादातर फिल्में जो दर्शकों से विशेष रूप से जुड़ी हुई थीं, उन तक नहीं पहुंच पायीं. कमाल यह कि बिहार के इतिहास पुरुष दशरथ मांझी पर केंद्रित फिल्म ‘मांझी’ को भी बिहार में कायदे के थियेटर नहीं मिल सके.
‘मसान’ दुनियाभर में चर्चित और ‘कोर्ट’ राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित होने के बावजूद हिंदी दर्शकों के लिए आसानी से उपलब्ध नहीं हो सकी. वास्तव में 2015 में एक ओर हिंदी सिनेमा पर वितरकों और थियेटर मालिकों के दवाब को और दूसरी ओर छोटे सिनेमाघरों की जरूरत को शिद्दत से महसूस किया गया.
साल 2015 भी इस द्वंद से उबरता नहीं दिखा कि दर्शकों की पसंद ही हिंदी सिनेमा पर भारी है या फिर हिंदी सिनेमा दर्शकों की पसंद तय कर रहा है. ‘बजरंगी भाईजान’, ‘पीकू’, ‘प्रेम रतन धन पायो’, ‘बदलापुर’, ‘बाजीराव मस्तानी’ जैसी फिल्मों की सफलता ने दर्शकों की बदलती रुचि को रेखांकित करने की कोशिश की, बावजूद इसके दर्शकों की पसंद के नाम पर ‘दिल धड़कने दो’, ‘वेलकम बैक’, ‘दिलवाले’, ‘कट्टी-बट्टी’, ‘किस-किस से प्यार करुं’ जैसी फिल्में बनती रहीं. ‘क्वीन’ जैसी सार्थक फिल्म से दस्तक देने वाले विकास बहल भी ‘शानदार’ में दर्शकों की पसंद को लेकर पूरी तरह भ्रमित दिखे. नतीजा हुआ कि दर्शकों ने उन्हें पूरी तरह से नकार दिया. दर्शकों की पसंद के नाम पर हिंदी सिनेमा सनी लियोनी के लिए पलक पांवड़े बिछाए दिखा. हालांकि, उनकी दोनों ही फिल्मों ‘एक पहेली लीला’ और ‘कुछ-कुछ लोचा है’ को दर्शकों ने तवज्जो नहीं दी. यह धारणा बन गयी है कि जहां सफलता के सारे फार्मूले फेल हो जाते हैं, वहां सेक्स काम करता है.
इस वर्ष हिंदी दर्शक इस गलतफहमी से लड़ते दिखे. साल की शुरुआत में ही विपाशा बसु ‘अलोन’ में ‘जिस्म’ के तेवर में दिखी, बाद में डर्टी पॉल्टिक्स, हंटर, कैलेंडर गर्ल्स, ‘यारा सिली सिली’ जैसी फिल्में भी आयीं और दर्शकों ने उन्हें हाशिए पर डाल दिया. लेकिन, वर्ष के अंत में ‘हेट स्टोरी-3’ अवश्य सफल रही. इसका कारण सेक्स के साथ कहानी का थ्रिल भी माना जाना चाहिए.
इस वर्ष की तमाम कमाऊ फिल्मों में एक ही चीज कॉमन है, वह है कहानी. आर बाल्की और अमिताभ बच्चन की ‘शमिताभ’ को भी दर्शकों ने इस आधार पर नकारने में संकोच नहीं किया. जबकि, नये कलाकारों की ‘प्यार का पंचनामा-2’ दर्शकों को बांधने में सफल रही. यहां पर ‘बाहुबली’ की चर्चा स्वभाविक है. पौराणिक कथा पर आधारित इस फिल्म ने कथात्मकता और अभिनव तकनीकी कुशलता के बल पर दक्षिण के साथ-साथ विभिन्न भाषायी क्षेत्रों और विदेशों में भी कमाई के मामले में अव्वल रही.
साल 2015 में नये प्रयोग तो अवश्य दिखे, लेकिन मुख्यधारा का सिनेमा इस वर्ष भी रीमेक और सिक्वल के संजाल से निकलने की कोशिश में नहीं दिखा. दर्शकों की कहानी की चाहत और रीमेक ने इस वर्ष भी इस सवाल को बनाए रखा कि आखिर फिल्मकार कहानियां क्यों नहीं ढूंढ़ने की कोशिश करते. साल की शुरुआत ‘तेवर’ जैसी बड़ी फिल्म से हुई. बड़ी इस अर्थ में कि मनोज वाजपेयी, सोनाक्षी सिन्हा और अर्जुन कपूर मुख्य भूमिका में थे. लेकिन, तेलगु की सुपरहिट ओक्कडू की रीमेक इस फिल्म को दर्शक बरदाश्त नहीं कर सके.
वास्तव में यह वर्ष कहीं न कहीं दर्शकों की पसंद और बाजार की टकराव का भी रहा. देखना दिलचस्प होगा कि इस वर्ष दर्शकों को ‘कजरिया’ जैसी फिल्म सुलभ हो पाती है या फिर अपनी पसंद को उन्हें बाजार को सामने समर्पित कर ‘हेट स्टोरी’ के सिक्वलों से ही संतोष पड़ता है.

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