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कैलेंडर का समय ही समय नहीं होता

कैलेंडर से परे जो समय है, वह अनंत काल से प्रवाहित है. उस समय का, प्रत्येक दिन का स्वागत हमें एक तिथि के स्वागत से कहीं अधिक कर्मनिष्ठ बनाता है. हम प्रत्येक दिन न सही, सभी दिन दूसरे के संबंध में सोचते हैं. समय संबंधी हमारी धारणा-दृष्टि किसी न किसी रूप में जीवन-संबंधी हमारी धारणा […]

कैलेंडर से परे जो समय है, वह अनंत काल से प्रवाहित है. उस समय का, प्रत्येक दिन का स्वागत हमें एक तिथि के स्वागत से कहीं अधिक कर्मनिष्ठ बनाता है. हम प्रत्येक दिन न सही, सभी दिन दूसरे के संबंध में सोचते हैं.

समय संबंधी हमारी धारणा-दृष्टि किसी न किसी रूप में जीवन-संबंधी हमारी धारणा दृष्टि और संस्कृति-दर्शन से जुड़ी हुई है. एक धारणा यह है कि समय स्थिर है और उसमें मनुष्य और उसकी सभ्यताएं प्रवाहित होती चलती हैं. दूसरी धारणा में समय निरंतर गतिमान है. अखंडकाल-प्रवाह में सभी ग्रह-नक्षत्र ही नहीं, ब्रह्मांड तक विलीन हो जाता है. मनुष्य जीवन के आधार पर समय को सुविधा हेतु कई खंडों में विभाजित करता है. अतीत, वर्तमान और भविष्य में समय को विभाजित करना स्मृति, यथार्थ और स्वप्न को महत्व देना है, जिसके अभाव में जीवन अर्थहीन बन जाता है. समय का न कोई आदि है, न अंत. कैलेंडर की तारीखों, मास, वर्ष से समय की एक स्थूल पहचान होती है, जिसके बिना व्यवहारिक-सांसारिक-भौतिक जीवन का कोई अर्थ नहीं रहता. यह जानते हुए भी कि समय निरंतरता में हमारी आयु घटती जाती है, फिर भी हम नये वर्ष का स्वागत करते हैं. एक-दूसरे के लिए मंगलकामनाएं करते हैं, जिनमें औपचारिकता अधिक और अनौपचारिकता कम होती है.

दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, वर्ष, शताब्दी, सहस्राब्दि बीतते हैं. काल बोध से इतिहास-बोध के जुड़ने पर हमारे विचार-चिंतन में अधिक कुहासा नहीं रहता. पहले सूर्योदय के साथ प्रत्येक दिन का स्वागत होता था, जो अब लुप्तप्राय है. कुछ तिथियां हमने सुविधा अनुसार छांट रखी हैं. जिस भाव से हम मंगलकामनाएं करते हैं, वह भाव सदैव बना नहीं रहता है. हमारा भाव-जगत सिकुड़ता गया है. दर्शन और संस्कृति के स्थान पर बाजार बैठा हुआ है. दार्शनिक चिंतन की बात दूर, चिंतन का धरातल भी प्रभावित हुआ है. मनुष्य ही समय को गति देता है और दृढ़ इच्छा शक्तिवाले बाजार से अलग समाज और मानव को प्रमुख स्थान देनेवाले मनुष्य कम हो रहे हैं. बहुत कुछ राजनीति और आर्थिकी के दायरे में सिमटता जा रहा है. मानव मन और मस्तिष्क बदल रहा है और हमारी आध्यात्मिक चेतना कमजोर हो रही है. नैतिक चेतना भी.

कैलेंडर का समय सामान्य है. उसके परे जो समय है, उसमें कैलेंडरों के लिए कोई स्थान नहीं है. खंडित चेतना और समग्र चेतना में आज खंडित चेतना कहीं अधिक प्रमुख है. भारत, जिसकी प्राचीन संस्कृति का गुणगान किया जाता है, समग्र चेतना विलुप्त हो रही है. हमने भौतिक समृद्धि और चुनावी राजनीति को ही सब कुछ समझ लिया है, आध्यात्मिक समृद्धि और राजनैतिक दर्शन या विचारधारा बेमानी होती जा रही है. जिस प्रकार भारत कई भारत है, उसी प्रकार भारत में कई समय है. अब समय प्रबंधन (टाइम मैनेजमेंट) सर्व प्रमुख है. यह प्रबंधन क्षेत्र का प्रमुख विषय है, जिसमें उत्पादकता पर विशेष ध्यान है. भारतीय परंपरा में काल ‘शिव’ से जुड़ा है, जिसे ‘महाकाल’ कहते हैं. काली ‘काल-शक्ति’ हैं. हिंदू धर्म के आधुनिक-प्रवक्ता वेदों में काल-चिंतन पर अधिक ध्यान नहीं देते. अब व्यक्ति का जन्म विशेष तिथियां अधिक महत्वपूर्ण हो गयी हैं. हमारा इतिहास-बोध, हमारे संस्कृति-बोध और हमारे काल-बोध अथवा चिंतन से प्रभावित-संचालित है.

भारत के अन्य प्रधानमंत्री की तुलना में नरेंद्र मोदी को तिथियों से गहरा लगाव है. जबकि, तिथियां एक समय के बाद अपना महत्व खो बैठती हैं. तिथियां जिन कारणों, घटनाओं से महत्वपूर्ण बनती हैं, उनकी अनदेखी करना ऊपरी तौर पर तिथियों का महत्व निर्धारण हैं. तिथियां अनंतकाल में विलीन हो जाती हैं. वे जिन ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़ी होती हैं, वे ऐतिहासिक घटनाएं हमारे मानस से बाहर कर दी जाती हैं. कोई भी समाज अपने अतीत की मूल्यवान स्मृतियों को नष्ट नहीं करता. विनोद कुमार शुक्ल ने अपने उपन्यास ‘नौकर की कमीज’ में लिखा है- ‘घड़ी देखना समय देखना नहीं होता’ हम घड़ी या कैलेंडर में जिस समय को देखते हैं, वह हमारे मानस को एक विशेष दिशा में सक्रिय करता है. हमारा समय प्रत्येक प्रकार के बोध को नष्ट और दुर्बल करने का है, जिससे हमारा समाज बोध, नैतिक बोध, इतिहास बोध और काल बोध प्रभावित होता है. हमारा चिंतन-क्रम एक शृंखला में न होकर खंडित रूप में होता है, जो आज की राजनीतिक ताकतों और बाजार के अनुकूल है. नरेंद्र मोदी जब कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते हैं, तो एक साथ राष्ट्रीय दल से उसको बाहर कर भाजपा को एक मात्र राष्ट्रीय दल के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते हैं और राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की स्मृति को, जिससे कांग्रेस का अभिन्न संबंध रहा है, पोंछ देना चाहते हैं. अब राजनीतिक दलों में न के बराबर ऐसे लोग हैं, जिनका व्यापक और समग्र चिंतन से कोई सरोकार हो. कैलेंडर के समय में तत्काल और तत्कालिकता का महत्व है. जिस धूम-धाम से होटलों, पबों आदि स्थलों नव वर्ष का स्वागत होता है, रंगारंग आयोजन किये जाते हैंं, उनमें कैलेंडर की एक तिथि महत्वपूर्ण हो जाती है. उस तिथि के बाद फिर सब कुछ पूर्ववत हो जाता है. कैलेंडर से परे जो समय है, वह अनंत काल से प्रवाहित है. उस समय का, प्रत्येक दिन का स्वागत हमें एक तिथि के स्वागत से कहीं अधिक कर्मनिष्ठ बनाता है. हम प्रत्येक दिन न सही, सभी दिन दूसरे के संबंध में सोचते हैं. काल बोध, जीवन बोध व समाज बोध तीनों आपस में जुड़ कर हमारे बोध को कहीं अधिक नैतिक और मानवीय बनाते हैं. राजनीति और आर्थिकी के सहमेल, सूचना प्रौद्योगिकी के लुभावने दौैर में हमारा समस्त बोध दावं पर है. कैलेंडर के पन्ने, उसके मास और तिथियां हमारे लिए अब सब कुछ हैं. अब समय का प्रबंधन प्रमुख है, जो इसमें आगे, उसकी मुट्ठी में समय है, पूरी दुनिया है. जो समय-प्रबंधन से बाहर है, वह पीछे छूट चुका है. अब स्मार्टनेस प्रमुख है, स्मार्ट जीवन, स्मार्ट सिटी, स्मार्ट भारत, जिसमें प्रत्येक क्षण का लेखा-जोखा है. समय के संबंध में बाजार ने हमारी धारणा बदल डाली है.

हम एक ही समय दो कालखंडों में जीवन-जीने को अभिशप्त हैं. अभी रामचंद्र गुहा ने अपने एक लेख ‘एक लंबे नाटक के पांच अंक’ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक साथ ‘आर्थिक आधुनिकतावादी’ और ‘सांस्कृतिक प्रतिक्रियावादी’ कहा है. वोट बैंक की राजनीति का यह कमाल है. क्या भारत एक साथ ‘आर्थिक आधुनिकतावाद’ और ‘सांस्कृतिक प्रतिक्रियावाद’ के सहारे आगे बढ़ सकता है या उसे इन दोनों में से एक को त्यागना होगा. स्पष्ट है कि भारत एक साथ कई समय में जी रहा है-मध्यकाल और आधुनिक-उत्तर या आधुनिक काल में. पुराने समय और नये समय में किसी प्रकार के संतुलन का अभाव है. आनेवाले दिनों में हम यह देखेंगे कि कैलेंडर के समय और उससे बाहर के समय में राजनेता और अर्थशास्त्री नहीं, हमारे चिंतक और विचारक कैसा तालमेल स्थापित करते हैं. क्या उनकी आवाज सुनी जाएगी?

रविभूषण

वरिष्ठ साहित्यकार

ravibhushan1408@gmail.com

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