समाज सुधार सरकार का काम नहीं

आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने शीर्ष नौकरशाहों से ऐसे विचार मांगे हैं, जिनसे नागरिक बेहतर सेवाएं पा सकें और देश की प्रगति में हाथ बंटा सकें. अधिकारियों को इस बारे में कुछ हफ्तों में सोच कर उन्हें सूचित करना है. मेरा मानना है कि यदि ऐसे विचारों से […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 5, 2016 5:56 AM
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने शीर्ष नौकरशाहों से ऐसे विचार मांगे हैं, जिनसे नागरिक बेहतर सेवाएं पा सकें और देश की प्रगति में हाथ बंटा सकें. अधिकारियों को इस बारे में कुछ हफ्तों में सोच कर उन्हें सूचित करना है.
मेरा मानना है कि यदि ऐसे विचारों से किसी नयी समझ की उम्मीद की जा रही है, तो ऐसा हो पाना कठिन है. आधुनिक लोकतंत्र 250 वर्ष पुराना है (और उसकी मूलभूत अवधारणाओं की जड़ें ईसा पूर्व पांचवीं सदी के एथेंस तक जाती हैं). आधुनिक नागरिक सरकार संभवतः 500 वर्ष पुरानी है. इसलिए किसी नयी चीज के खोजे जाने की संभावना नहीं दिखती है.
हालांकि, यह सच है कि नवोन्मेष की गुंजाइश है. प्रधानमंत्री ने गुजरात में स्वयं ही एक ऐसी चीज का सूत्रपात किया था. उन्होंने ग्रामीण घरों और खेतों में बिजली आपूर्ति का बंटवारा कर दिया था, ताकि घरों को लगातार बिजली मिलती रहे, जबकि खेतों में दिन में कुछ ही घंटे आपूर्ति हो. इस साधारण व्यवस्था ने दुनिया के उस इलाके में बड़ा अंतर पैदा कर दिया, जहां बाधित लाइन (यानी चोरी) और उपभोक्ताओं द्वारा भुगतान करने में हिचकिचाहट जैसी अजीब समस्याओं के कारण बिजली की आपूर्ति कम होती है.
प्रधानमंत्री के निर्देशों के बारे में ‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ में टीएन निनान ने लिखा है कि एक दूसरे कारण से भी नौकरशाहों के लिए अच्छे नये विचार रख पाना आसान नहीं होगा. उनका कहना है कि नौकरशाह ‘नियमों और पूर्ववर्ती उदाहरणों का पालन करने के लिए प्रशिक्षित होते हैं, उनमें से अधिकतर प्रशासक है, समस्या का समाधान करनेवाले प्रबंधक नहीं. इसी कारण से नये विचार आम तौर पर राजनेताओं, टेक्नोक्रेट और सिविल सोसाइटी के कार्यकर्ताओं की ओर से आते हैं.’
उन्होंने अनुदानित चावल योजना, दोपहर का भोजन कार्यक्रम और सूचना के अधिकार जैसे नवोन्मेषों को सूचीबद्ध किया है, जिनका विचार प्रशासन से बाहर से आया है. मेरी राय में सभी बड़ी चीजें विधेयक के रूप में ही की जाती हैं. यह भले ही कहा जा सकता है कि समेकित कराधान या अधिक प्रभावी भूमि अधिग्रहण कानून से भारत के आर्थिक प्रदर्शन में भारी बेहतरी आ जायेगी, लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूं. ये छोटी चीजें हैं और इनका अधिक संबंध उल्लेखनीय बदलाव की तुलना में क्षमता से है.
भारत में करने के लिए एक ही बड़ी चीज रह गयी है. अब यह लागू करने के स्तर पर आ गया है, नरेंद्र मोदी जिसे गवर्नेंस की संज्ञा देते हैं. यहां मैं उन्हीं बातों को दोहरा रहा हूं, जिन्हें मैं पहले लिख चुका हूं. व्यक्ति के व्यवहार और नैतिकता में बदलाव लाने का काम सरकार के दायरे में नहीं आता है.
उदाहरण के लिए, स्वच्छ भारत अभियान को लें, जिसे मोदी ने खुद ही सड़कों को साफ करते हुए प्रोत्साहित किया था. भारतीयों के लिए अधिक स्वच्छ रहना अच्छी बात है, पर क्या यह सरकार का काम है? मैं ऐसा नहीं मानता हूं. यह समाज-सुधार है, जिसे समाज के भीतर घटित होना है और जिसे धार्मिक संगठनों जैसे सामाजिक संस्थाओं द्वारा किया जाना है, न कि सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों द्वारा. इसीलिए मेरा मानना है कि जो बड़े परिवर्तन मोदी लाना चाहते हैं, वह उनकी ताकत से परे हैं.
निनान ने सलाह दी है कि मोदी को ‘पूअर इकोनॉमिक्स’ पढ़नी चाहिए, जिसे भारत में काम करने का अनुभव रखनेवाले एमआइटी के दो प्रोफेसरों ने लिखा है. इन प्रोफेसरों- एस्थर डफ्लो और अभिजीत बनर्जी- ने अपने एक अध्ययन में सरकारी डॉक्टरों के पास अभिनय करनेवाले कलाकार भेजे, जिन्होंने पांच बड़ी बीमारियों के लक्षण बताये.
आश्चर्यजनक रूप से 97 फीसदी मौकों पर चिकित्सकों ने रोगियों की सही पड़ताल नहीं की, क्योंकि उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं थी. उन्होंने प्रति रोगी औसतन 60 सेकेंड से अधिक समय नहीं दिया. अगर आप सरकारी डॉक्टरों द्वारा सिर्फ तीन फीसदी अवसरों पर ही ठीक से देखा जाना चाहते हैं, तो बेहतर यही है कि आप घर में बैठें और इलाज न करायें.
भारत में काम कर चुके हावर्ड के विद्वान लांट प्रिशेट ने भारत सरकार की समस्याओं को रेखांकित करने के लिए दो और उदाहरण प्रस्तुत किया है. पहला, एक सर्वेक्षण में पाया गया कि अगर आप दलाल को पैसा नहीं देंगे, तो दिल्ली में वाहन चालक लाइसेंस की परीक्षा में आप असफल हो सकते हैं. लेकिन, अगर आप रिश्वत देते हैं, तो आपको परीक्षा देने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी और आपको लाइसेंस मिल जायेगा. इसका मतलब यह हुआ कि अगर आप कानून का पालन करते हैं, तो आपको इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा. और अगर आपने घूस दे दिया, तो आप गाड़ी चलाने के लिए स्वतंत्र हैं.
यह घूस प्रणाली इस कदर संगठित है कि किसी भी सड़क यातायात कार्यालय के कर्मचारी को सीधे रिश्वत नहीं दी गयी. यह प्रणाली इतनी सक्षम थी कि लगभग सभी भावी चालकों को इसे मानने के लिए बाध्य कर दिया गया था. प्रिशेट का दूसरा उदाहरण उस अध्ययन के बारे में है, जिसमें पाया गया है कि राजस्थान में नर्सें अपना काम करने नहीं जाती हैं. इनमें से आधे से अधिक ने तो घर पर रह कर या कुछ और काम करते हुए नर्स होने का वेतन उठाया था.
एक भले स्वयंसेवी संगठन ने हाजिरी पर नजर रख कर इसमें सुधार की कोशिश की थी, पर यह सफल नहीं हो सका. नर्सों ने घर पर रहना जारी रखा, लेकिन अब उनकी तैयारी पूरी थी. वे जब भी अनुपस्थित पकड़ी जातीं, इसके लिए वे कोई आधिकारिक बहाना कर देती थीं.
जो लोग भारत में ऐसी चीजों से परिचित हैं, उनके लिए यह सब कोई आश्चर्य की बात नहीं है. राज्य का या तो पतन हो चुका है या फिर यह निष्क्रिय हो चुका है. और यह सच है, चाहे आप पुलिस स्टेशन को देखें या फुटपाथ पर हुए काम को.
अब यही सवाल उठता है- क्या हम इसे सरकार की समस्या मानें, और क्या सरकार वास्तव में शानदार समाधान दे सकती है? या फिर, क्या हम इसे समाज की समस्या मानें. मेरी राय में दूसरी बात अधिक जंचती है, और इसी कारण सरकार, भले ही उसके इरादे नेक हों, के अधिकारियों के लिए इसे बदल पाना संभव प्रतीत नहीं होता.

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