नये साल में विकास किसका!

डॉ भरत झुनझुनवाला अर्थशास्त्री एनडीए सरकार का दूसरा वर्ष समाप्त होने की ओर बढ़ चला है. सरकार की दिशा निर्धारित हो चुकी है. लेकिन, नये वर्ष में इस दिशा में परिवर्तन की जरूरत दिख रही है. एनडीए सरकार के पहले कार्यकाल का विवेचन करने से वर्तमान सरकार की चुनौतियां कुछ स्पष्ट हो जाती हैं. तब […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 6, 2016 6:16 AM
डॉ भरत झुनझुनवाला
अर्थशास्त्री
एनडीए सरकार का दूसरा वर्ष समाप्त होने की ओर बढ़ चला है. सरकार की दिशा निर्धारित हो चुकी है. लेकिन, नये वर्ष में इस दिशा में परिवर्तन की जरूरत दिख रही है. एनडीए सरकार के पहले कार्यकाल का विवेचन करने से वर्तमान सरकार की चुनौतियां कुछ स्पष्ट हो जाती हैं.
तब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने कम-से-कम चार महान उपलब्धियां हासिल की थीं- भारत को परमाणु शक्ति बनाया था, करगिल युद्ध जीता था, इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी में भारत की पहल को आगे बढ़ाया था और राजमार्गों के नेटवर्क की स्वर्णिम चतुर्भुज (गोल्डन क्वाडरेंगल) जैसी महत्वाकांक्षी योजना को मूर्त रूप दिया था. लेकिन, एनडीए की 2004 के आम चुनाव में पराजय हो गयी, क्योंकि इन योजनाओं में आम आदमी के लिए कुछ खास नहीं था. सोनिया गांधी ने आम आदमी का मुद्दा उठाया और एनडीए को शिकस्त दे दी.
2009 के आम चुनाव में यूपीए की वापसी हुई. इसका श्रेय किसानों की ऋण माफी और मनरेगा को जाता है. ये दोनों कदम स्पष्ट रूप से विकास के एजेंडे के विपरीत थे. ऋण माफी से सरकार पर वित्तीय बोझ बढ़ा और हाइवे आदि में निवेश में कटौती करनी पड़ी. मनरेगा से आम आदमी की दिहाड़ी में वृद्धि हुई, जिससे शहरी उद्यमियों और बड़े किसानों के लिए श्रमिक महंगे हो गये.
फिर भी, यूपीए के शासनकाल में ग्रोथ रेट अच्छी रही, क्योंकि ऋण माफी तथा मनरेगा ने आम आदमी की क्रय शक्ति को बढ़ाया, बाजार में मांग बढ़ी और ग्रोथ हुई. जैसे खानपान में परहेज से स्वास्थ में सुधार होता है, उसी प्रकार अमीरों द्वारा ऊंचे लाभ से परहेज करने से अमीरों की आय में भी वृद्धि हुई थी.
2014 के लोकसभा चुनावों में एनडीए ने पुनः ग्रोथ के सपने को परोसा था. अच्छे शासन, कालेधन की वापसी, रोजगार सृजन आदि के वायदों पर भरोसा कर जनता ने एनडीए को सत्ता में बिठाया.
लेकिन, पिछले डेढ़ वर्षों में यह सपना काफी हद तक चकनाचूर हुआ है. शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार में निश्चित रूप से कुछ कमी आयी है. केंद्रीय मंत्रियों की छवि भी फिलहाल अच्छी है, लेकिन जमीनी स्तर पर भ्रष्टाचार में कोई अंतर नहीं दिख रहा है. सरकार को पीएमओ के आइएएस अधिकारी चला रहे है, जिनकी प्रवृत्ति नौकरशाही के हितों को बढ़ाने की रहती है.
कालेधन की वापसी तो दूर, धन के देश से बाहर जाने की गति और तेज हुई है. प्रधानमंत्री ने भी आश्चर्य जताया है कि भारतीय उद्यमी देश में निवेश के बजाय विदेशों में निवेश कर रहे हैं. यानी देश की पूंजी बाहर जा रही है. मध्यम वर्ग के लिए रोजगार सृजन में कुछ गति अवश्य आयी है, परंतु आम आदमी की मजदूरी अपनी जगह टिकी हुई है. दूसरी ओर, महंगाई की मार से आम आदमी की क्रय शक्ति में ह्रास हुआ है.
एनडीए द्वारा जिन कदमों को जनहितकारी बताया जा रहा है, उनमें कई वास्तव में जनविरोधी हैं. जन-धन योजना के माध्यम से आम आदमी की बचत को बड़े उद्यमियों के लिए उपलब्ध कराया जा रहा है. मेरे घर में काम करनेवाली सहायिका के पास एक अनधिकृत कॉलोनी में 80 गज का प्लाट था, जिसे वह गिरवी रख कर इस योजना के तहत लोन लेना चाहती थी.
सरकारी बैंक ने साफ इनकार कर दिया. इससे जाहिर होता है कि जनधन योजना में आम आदमी को लोन कम ही मिलेंगे. गुड्स एंड सर्विस टैक्स (जीएसटी) के माध्यम से छोटे उद्योगों को वर्तमान में मिलनेवाली टैक्स छूट को समाप्त करने की योजना है. कहावत है- पूत के पांव पालने में दिखाई देने लगते हैं. पिछले डेढ़ साल में एनडीए सरकार की जनविरोधी दिशा स्पष्ट दिखने लगी है.
दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने एनडीए को अप्रत्याशित हार की ओर धकेल दिया. बिहार में नीतीश-लालू गंठबंधन ने एनडीए को आईना दिखाया. एनडीए नेतृत्व द्वारा बिहार की हार का जिम्मा नीतीश और लालू के बेमेल गंठबंधन पर डाला जा रहा है, लेकिन इस गंठबंधन की सफलता के पीछे एनडीए के आम आदमी विरोधी चरित्र की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. यदि एनडीए द्वारा वास्तव में आम आदमी के हित में नीतियों को लागू किया जा रहा होता, तो दिल्ली और बिहार का आम आदमी इस तरह एनडीए के विरोध में वोट नहीं डालता.
ऊपरी तौर पर देखने पर आप और महागंठबंधन की जीत भले ही जातीय या स्थानीय समीकरणों के कारण प्रतीत हो, लेकिन इस जीत का बड़ा कारण केंद्र की एनडीए सरकार की जनविरोधी नीतियां हैं. स्पष्ट है कि एनडीए ने न तो 2004 की हार से सबक लिया था, और न ही दिल्ली तथा बिहार की हार से सबक लेता दिख रहा है.
बिहार चुनाव के बाद शेयर बाजार को संभालने के लिए एनडीए सरकार ने कई नये क्षेत्रों में विदेशी निवेश की छूट को मंजूरी दे दी. यूपीए द्वारा स्वदेशी औरविदेशी बड़ी कंपनियों को इंजन बना कर उसके पीछे भारतीय अर्थव्यवस्था की ट्रेन को चलाने का मंत्र लागू किया गया था.
इन बड़ी कंपनियों के द्वारा आम आदमी के रोजगार का तेजी से भक्षण किया जा रहा है. जैसे एक बड़ी टेक्सटाइल कंपनी में लगे एक ऑटोमेटिक लूम से सैकड़ों छोटे पावरलूम का धंधा चैपट हो जाता है. यूपीए सरकार के इस धूर्त महामंत्र को एनडीए सरकार ने और मुस्तैदी से लागू किया है. यानी जिस भोजन के कारण रोग उत्पन्न हुआ था, उसी को अब बड़ी मात्रा में परोसा जा रहा है. मेरे एक मित्र के नवजात शिशु को ठंड लग गयी.
डॉक्टर ने एंटीबायोटिक दवा दी. इससे बच्चे के स्वास्थ में सुधार नहीं हुआ, तो डॉक्टर ने और स्ट्रांग एंटीबायोटिक दवा दे दी. इससे बच्चे की मृत्यु हो गयी. इसी प्रकार एनडीए सरकार विदेशी निवेश से उत्पन्न हुए रोग का उपचार विदेशी निवेश को बढ़ावा देकर करना चाह रही है. इससे लगता है कि सरकार की पॉलिसी बड़े उद्योगों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा निर्धारित की जा रही है और उन लोगों की गाड़ी को प्रधानमंत्री पूर्ण निष्ठा एवं ईमानदारी से चला रहे है.
मुसाफिर को जाना मुंबई है, प्रधानमंत्री उसे ईमानदारी के साथ कोलकाता ले जा रहे हैं! जनता को चाहिए रोजगार, लेकिन प्रधानमंत्री उसके रोजगार के भक्षण का इंतजाम ईमानदारी से कर रहे है. इससे मध्यम वर्ग के कुछ हिस्से को अवश्य लाभ हो रहा है, परंतु आम आदमी को इससे कोई लेना-देना नहीं हैं.
एनडीए की सोच है कि ऊपरी वर्ग के विकास से कुछ आय ट्रिकल करके गरीबों तक भी पहुंचेगी. इस सोच में आंशिक सच है. जैसे मिडिल क्लास द्वारा प्रॉपर्टी की खरीद करने से गरीब को कंस्ट्रक्शन वर्कर का रोजगार मिलता है.
लेकिन, अपने देश में गरीब श्रमिकों की संख्या इतनी अधिक है कि इस ट्रिकल डाउन से आम आदमी को राहत कम ही मिलेगी. ऐसे में नव वर्ष 2016 में एनडीए के सामने बड़ी चुनौती यह है कि पिछले डेढ़ साल की जनविरोधी नीतियों में बदलाव करके वास्तव में आम आदमी को सीधे राहत देने की पॉलिसी लागू करे.

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