स्त्री के स्कूटी के पीछे बैठा मर्द

नासिरूद्दीन वरिष्ठ पत्रकार बिहार के एक छोटे शहर अररिया की बात है. मैं एक दोस्त के साथ कहीं जा रहा था. हम बात करने में मशगूल थे. थोड़ी देर बाद लगा कि सड़क किनारे खड़े, दुकानों में चाय पीते या राह चलते लोगों की निगाहें हमें देखते हुए घूम रही हैं. मुझे लगा कि ये […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 8, 2016 12:54 AM

नासिरूद्दीन

वरिष्ठ पत्रकार

बिहार के एक छोटे शहर अररिया की बात है. मैं एक दोस्त के साथ कहीं जा रहा था. हम बात करने में मशगूल थे. थोड़ी देर बाद लगा कि सड़क किनारे खड़े, दुकानों में चाय पीते या राह चलते लोगों की निगाहें हमें देखते हुए घूम रही हैं. मुझे लगा कि ये निगाहें मेरी महिला दोस्त के लिए हैं.

वैसे भी हम मर्दों को कौन घूरता है! घूरा तो उन्हें जाता है, जो चीजें कम दिखायी देती हों, कम मिलती हों. बाजारों, सड़कों, दुकानों, पटरियों पर तो हम मर्द ही मर्द छाये रहते हैं. हर जगह हम ही तो दिखायी देते हैं… तो हमें कौन देखता या घूरता है. है न?

खैर, एक चौक पर हम रुके तो घूरनेवाली कुछ निगाहों से निगाहें मिलीं. निगाहों में कुछ अटपटा-सा था. वे निगाहें महिला के लिए नहीं, बल्कि साथ चल रहे मर्द के लिए थीं. अचानक अहसास हुआ कि अरे ये तो मुझे घूरा जा रहा है. मर्दों से भरे बाजार में क्या मैं ही अजूबा बन गया हूं? मैंने तो कुछ गलत किया नहीं? फिर? क्या वजह हुई? अब समझ में आया, बात बहुत मामूली-सी थी. मेरी दोस्त स्कूटी चला रही थी और मैं पीछे आराम से बैठा था.

लेकिन, मुझे तौलती निगाहें ये पूछ रही थीं कि मैं यह क्या कर हूं. किसी लड़के या मर्द के स्कूटर या मोटरसाइकिल के पीछे बैठी लड़की या स्त्री तो हम रोज, सुबह शाम देखते हैं. यह आम है. कुछ भी अजूबा नहीं है. लेकिन, किसी लड़की की स्कूटी या स्कूटर के पीछे बैठे लड़के या मर्द हमारे लिए आम नहीं हैं. हमारी आंखों को इसकी आदत नहीं है. तो मैं अजूबा बन गया. हम कह सकते हैं कि बिहारी पिछड़े हैं. है न?

तो कुछ साल पहले का एक और वाकया सुनिये. लखनऊ में हमारी एक साथी रिपोर्टर स्कूटर से चलती थीं.

कहीं जाना होता, तो मैं उनकी स्कूटर के पीछे बैठ चल देता था. नतीजा, मैं मजाक की वजह बन जाता. मेरी यह हरकत साथियों के आनंद की वजह बन जाती. कोई मजाक करता, तो कोई सलाह दे डालता, आप ही स्कूटर क्यों नहीं चलाते. लड़की के पीछे बैठने में आपको बुरा नहीं लगता.

ये सिर्फ स्कूटर की बात नहीं है. किसी कार पर कोई मर्द हों और उसे कोई महिला चला रही हो… तब भी अजूबा लगता है. कैसा मर्द है? खुद बैठा है और महिला ड्राइव कर रही है. गाड़ी से उतरते ही मित्रमंडली का सवाल होगा, क्या तुम्हें गाड़ी चलाने नहीं आती? सीख लो. सवाल है लड़कियों को मर्दों के पीछे स्कूटर या मोटरसाइकिल पर बैठने में कोई शर्म नहीं आती. उन्हें कोई अटपटी नजरों से भी नहीं देखता.

ठीक इसी तरह भर कार महिलाओं को ले जा रहे हम मर्दों को कोई कौतूहल से नहीं देखता या उतरते ही महिलाओं से नहीं पूछता कि बहन जी/ भाभी जी आप गाड़ी क्यों नहीं चला रही थीं. ऐसा क्यों? असल में हम मर्दों को ड्राइविंग सीट पर बैठने की आदत पड़ी हुई है. हमें लगता है कि दुनिया को हम ही चलाते हैं तो स्कूटर, मोटरसाइकिल, कार भी हम ही चलाएंगे.

समाज भी मर्दों को ही स्त्रियों को हांकते हुए ले जाते देखने का आदी है. वह ऐसा ही देखना भी चाहता है. कोई स्त्री मर्द को हांके… कोई स्त्री मर्द को राह दिखाये… कोई स्त्री मर्द को मंजिल तक पहुंचाए… यह न तो अभी हमारा समाज पचा पाता है और न ही मर्द मन इसे मान पा रहा है. पर कब तक?

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