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पाकिस्तान की राज्य-नीति का सच

पुण्य प्रसून वाजपेयी वरिष्ठ पत्रकार लश्कर-ए-तोएबा, जैश-ए-मोहम्मद, हिजबुल मुजाहिदीन, हरकत-उल-मुजाहिदीन, पाकिस्तान तालिबान और इस लिस्ट में और कई नाम. इन नामों से जुड़े दफ्तरों की संख्या 127, जो पीओके में नहीं, बल्कि कराची, मुल्तान, बहावलपुर, लाहौर और रावलपिंडी तक में हैं. ट्रेनिंग सेंटर मुजफ्फराबाद और मीरपुर में हैं. यानी पाकिस्तान के एक छोर से दूसरे […]

पुण्य प्रसून वाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
लश्कर-ए-तोएबा, जैश-ए-मोहम्मद, हिजबुल मुजाहिदीन, हरकत-उल-मुजाहिदीन, पाकिस्तान तालिबान और इस लिस्ट में और कई नाम. इन नामों से जुड़े दफ्तरों की संख्या 127, जो पीओके में नहीं, बल्कि कराची, मुल्तान, बहावलपुर, लाहौर और रावलपिंडी तक में हैं. ट्रेनिंग सेंटर मुजफ्फराबाद और मीरपुर में हैं. यानी पाकिस्तान के एक छोर से दूसरे छोर तक आतंकवादियों की मौजूदगी. भारत के लिए हर नाम आतंक पैदा करनेवाला, लेकिन पाकिस्तान के लिए वहां इन पर कोई बंदिश नहीं है.
तो सवाल है कि जिस आतंकवाद पर नकेल कसने के लिए भारत पाकिस्तान से बार-बार बातचीत करता है, जबकि पाकिस्तान अपनी जमीन पर इसे आतंक नहीं मानता, तो पठानकोट हमले के बाद ऐसा माहौल क्यों बनाया गया कि पाकिस्तान पठानकोट के दोषियों के खिलाफ कार्रवाई कर रहा है? तो क्या किसी आतंकी हमले को लेकर भारत ने यह दिखा दिया कि पाकिस्तान आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करे, नहीं तो उसका रुख कड़ा हो जायेगा? या फिर पठानकोट हमले को ही बातचीत का आधार बनाया जा रहा है, क्योंकि मोदी सरकार भी समझती है कि भारत के लिए जो आतंकी संगठन हैं, वे पाकिस्तान की राज्य-नीति का हिस्सा रहे हैं.
नवाज शरीफ सरकार भी इस सच को समझ रही है कि आतंकवाद उसके घर में सामाजिक-आर्थिक हालात की उपज भी है और सेना-आइएसआइ की नीति का हिस्सा भी. सभी आतंकी संगठनों ने खुल कर कश्मीर को अपने जेहाद का हिस्सा बनाया हुआ है. और कश्मीर से हमले निकल कर अब पंजाब के मैदानी हिस्सों में पहुंचे हैं, तो फिर पाकिस्तान से बातचीत के दायरे में आतंकवाद और कश्मीर से आगे निकलना दोनों सत्ता की जरूरत बन चुकी है.
तो सवाल है कि क्या पठानकोट हमले पर तुरंत कार्रवाई दिखा कर आतंक से बचने का रास्ता भी पाकिस्तान को मिल रहा है? इस घटना ने दोनों देशों को इस कशमकश से उबार दिया है कि हमलों को खारिज कर आगे बढ़ा जाये, तो आतंकी संगठनों के हमले बेमानी साबित हो जायेंगे. लगातार दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बातचीत और नवाज-मोदी की बातचीत संकेत यही दे रही है कि पठानकोट हमला सिर्फ बातचीत को बंद कराने के लिए किया गया था. पाकिस्तान के हर आतंकी संगठन का अतीत बताता है कि सत्ता की कमजोरी का लाभ आतंकवादी संगठनों को नहीं मिला, बल्कि सत्ता ने अपनी कमजोरी को सौदेबाजी की ताकत में बदलने के लिए इन संगठनों की पनाह ली. इसका उदाहरण जैश-ए-मोहम्मद का अजहर मसूद है, जो पठानकोट हमले को लेकर कटघरे में है.
अजहर मसूद दिसंबर 2003 में मुशर्रफ पर हमला करने का दोषी है, लेकिन मुशर्रफ की सरकार ही मसूद का कुछ नहीं बिगाड़ सकी. इतना ही नहीं, अमेरिकी पत्रकार डेनियल पर्ल की हत्या के इल्जाम में भी अमेरिका ने अजहर मसूद को अपने कानून के तहत तलब किया.
इंटरपोल ने मसूद की गिरफ्तारी पर जोर दिया. लेकिन इन सबसे इतर मसूद की खुली आवाजाही कराची के बिनौरी मसजिद में भी रही और बहावलपुर में जैश के हेडक्वाॅर्टर में भी रही. यानी त्रासदी यह है कि आतंकवाद की परिभाषा लाइन आॅफ कंट्रोल पार करते ही बदल जाती है. तो फिर यहां सवाल संवाद का नहीं, बल्कि अतीत के उन रास्तों को भी टटोलने का होगा, जो कभी इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान को तोड़ कर बांग्लादेश बनाया, या फिर अटल बिहारी वाजपेयी ने एलओसी पर एक लाख सैनिकों की तैनाती कर मुशर्रफ के गरूर को तोड़ा.
पाकिस्तान में आतंक के पनपने की बड़ी वजह गरीबी है. और भारत में आतंकवादियों की घुसपैठ की बड़ी वजह भ्रष्टाचार और आतंकवाद को लेकर राज्य-केंद्र के बीच कोई तालमेल का ना होना है. एक तरफ पाकिस्तान की आतंकवाद पर तैयार रिपोर्ट, ‘प्रोबिंग माइंडसेट आॅफ टेररिज्म’ के अनुसार करीब दो लाख परिवार आतंक की फैक्ट्री के हिस्से हैं. इनमें 90 फीसदी गरीब परिवार है.
इन नब्बे फीसदी में में से 60 फीसदी सीधे मसजिदों से जुड़े हैं. आतंक का आधार इसलाम से जोड़ा गया है, और इसलाम के नाम पर इंसाफ का सवाल हिंसा से कहीं ज्यादा व्यापक और असरदार है. यानी आतंक या जेहाद के नाम पर हिंसा इसलाम के इंसाफ के आगे कोई मायने नहीं रखती. पाकिस्तान के भीतर के सामाजिक ढांचे में उन युवाओं का रौब उनके अपने गांव या समाज में बाकियों की तुलना में ज्यादा हो जाता है, जो किसी आतंकी संगठन से जुड़ जाते हैं. लेकिन समझना यह भी होगा कि पाकिस्तान में आतंकवादी संगठन किसी को नहीं कहा जाता है. जैश-ए-मोहम्मद या लश्कर-ए-तोएबा कट्टरवादी इसलामी संगठन माने जाते हैं.
जाहिर है, ऐसे हालात में घूम-फिर कर सवाल भारत की आंतरिक सुरक्षा को लेकर ही उठेंगे. और बीजेपी तो इजरायल को ही सुरक्षा के लिहाज से आदर्श मानती रही है, तो फिर उस दिशा में वह बढ़ क्यों नहीं पा रही है! क्या संघीय ढांचा भारत में रुकावट है, जो एनसीटीसी पर सहमति नहीं बना पाता? या फिर आतंकवाद से निपटना सिर्फ सरकार की जिम्मेवारी है? यानी नागरिकों की भूमिका सिर्फ चुनाव में सत्ता तय करने तक सिमट चुकी है.
भारत की मुश्किल यह है कि नागरिकों की कोई भूमिका सत्ता के दायरे में है ही नहीं. इसलिए सत्ता बदलने का सुकून लोकतंत्र को जीना है और सत्ता के लिए वोट बैंक बनना देश के लिए त्रासदी है.
सच यही है कि भारत और पाकिस्तान कभी आपस में बात नहीं करते और दोनों देशों की सत्ताएं कभी नहीं चाहतीं कि दोनों देशों की जनता के बीच संवाद हो. बातचीत सत्ता करती है और बंधक जनता बनती है, जिसकी पीठ पर सवारी कर सियासी बिसात बिछायी जाती है. और बातचीत के दायरे में आतंकवाद और कश्मीर का ही जिक्र कर उन भावनाओं को उभारा जाता है, जिसके आसरे सत्ता को या तो मजबूती मिलती है या फिर सत्ता पलटती है.
फिर आतंकी घटनाओं के पन्नों को पलटें, तो 1993 के मुंबई ब्लास्ट के बाद पाकिस्तानी आतंकवाद की दस्तक 2000 में लाल किले पर हमले से होती है. और सच यह भी है कि जिस छोटे से दौर (अप्रैल 1997-मार्च1998) में आइके गुजराल पीएम थे, उस दौर में सबसे ज्यादा आवाजाही भारत और पाकिस्तान के नागरिकों की एक-दूसरे के घर हुई. उस दौर में दोनों देशों के भीतर न आइएसआइ सक्रिय था न रा.
तो कह सकते हैं कि गुजराल दोनों देशों के मिजाज से वाकिफ थे, क्योंकि न सिर्फ उनका जन्म अविभाजित भारत के झेलम में हुआ और पढ़ाई लाहौर में, बल्कि 1942 के राजनीतिक संघर्ष में जेल भी पाकिस्तान की थी. लेकिन, नये हालातों में गुजराल की सोच यह कह कर भी खारिज की जा सकती है कि तब का दौर अलग था, अब का दौर अलग है.

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