अब झोलाछाप ऑनलाइन है
झोलाछाप लेखक. हंसने की बात नहीं है. एक जमाना था इनका भी. झोलाछाप डाॅक्टर की तरह इनके झोले में भी हर मौजू का लेख उपलब्ध. कविता-कहानी, परिचर्चा, रपट जो चाहिए मांगो, सब मिलेगा. तेरी झोली भर दूंगा, संपादक जी. आप हुकुम तो करो. यह प्राणी हमेशा बड़े लेखक का बचा खाता रहा. बड़ा लेखक, बड़ा […]
झोलाछाप लेखक. हंसने की बात नहीं है. एक जमाना था इनका भी. झोलाछाप डाॅक्टर की तरह इनके झोले में भी हर मौजू का लेख उपलब्ध. कविता-कहानी, परिचर्चा, रपट जो चाहिए मांगो, सब मिलेगा. तेरी झोली भर दूंगा, संपादक जी. आप हुकुम तो करो.
यह प्राणी हमेशा बड़े लेखक का बचा खाता रहा. बड़ा लेखक, बड़ा कद, बड़ा इगो, बड़ा पारिश्रामिक और जब मूड बना, तभी लिखा. लेकिन, संपादक जी को तुरंत चाहिए था. अरे, फलां झोलाछाप को बुलाओ. बाहर बलजीते के ढाबे में बैठा होगा. अभी तड़ से लिख देगा. लेकिन, उसके झोले में तो पहले से ही सब मौजूद है. लीजिए हुजूर. और ये थोड़े से हमारी तरफ से. वक्त-जरूरत काम आयेंगे. पारिश्रमिक! बेहद संतोषी जीव. छपना मात्र ही बड़ी पूंजी. पट्ठे ने लिखा भी बड़े मन से. इसी कारण आयु पर्यंत मुफलिसी की गिरफ्त में रहा.
झोलाछाप लेखक की एक अमीर क्लास भी देखी बंदे ने. किसी बड़ी कंपनी में रहा या सरकारी मुलाजिम. पेट भरा हुआ मगर फिर भी छपास जबरदस्त. हाथ में ब्रीफकेस, क्लीन शेव, गोरे-गोरे मुखड़े पे काला-काला चश्मा और बाइक पर सवार. स्मार्टी नंबर वन. आनन-फानन में तमाम अखबारों की परिक्रमा कर डाली. बेचारे मुफलिस झोलाछाप बड़ी कातर दृष्टि से इन्हें निहारा करते और बद्दुआ देते कि जा तेरी बाइक पंचर हो जाए. पेट्रोल का अकाल पड़े. सिपाही तुझे बिना हेलमेट के इलजाम में जेल में ठूंस दे.
झोलछापों में छपास की होड़ का आलम तो यह रहा कि भनक तक न लगने पाती कि किसने किस विषय पर लिखा है? इनके जासूस भी अखबारों में फैले होते. संपादक ने किसी झोलुए को ऑर्डर दिया नहीं कि दूसरे को खबर हो गयी. वह ‘पहले’ से पहले लिख लाया. संपादक ने भी लपक लिया, इस आशंका से कि पहले वाले का क्या भरोसा?
बंदे ने छपास के मारे अनेक मासूम झोलाछापों को कम प्रसार संख्या वाले दैनिक, साप्ताहिक या पाक्षिक टेबुलायडों का भी शिकार बनते हुए देखा. बेचारे खुद को पढ़वाने के लिए अखबार का प्रचार भी करते दिखे.
समय एक जैसा नहीं रहा. अखबारों में नये और युवा मालिकान इंग्लैंड-अमेरिका से तालीम हासिल आ विराजे. मीडिया इलेक्ट्रॉनिक हो गया. फोटो बड़े होने लगे और लेख छोटे. झोलाछाप यह नहीं समझ पाये कि किसी विषय को ‘डेढ़ गुणा डेढ़’ के फोटोफ्रेम में ‘कैसे समेटा जाये? जब अखबारों के मल्टीसिटी एडीशन छपने लगे, तो सारे फीचर्स आॅनलाइन हो गये. हाइस्पीड के ऐसे हाइटेक माहौल में पता ही नहीं चला कि झोलाछाप प्रजाति डायनासोर की भांति कब विलुप्त हो गयी.
लेकिन, कुछ फीनिक्स टाइप झोलाछाप ने सलवार पहन कर रूप बदल लिया. अब वे आॅनलाइन लेखक हैं. उनके हाथ में कलम-दवात की जगह कंप्यूटर-माउस है, नेटवर्क से जुड़ा है. उनकी उड़ान सिर्फ चंद स्थानीय अखबारों-पत्रिकाओं तक सीमित नहीं है. वे फेसबुक पर छाये हैं, ब्लाॅग में भर-भर कर छपास मिटाते हैं. परंतु, एक दिक्कत नयी पैदा हो गयी है. वे बिना खबर दिये कहीं भी डाउनलोड कर लिये जाते हैं.
हां, एक बात और, ज्यादातर लेखक कल भी मुफलिस थे और आज भी हैं.
वीर विनोद छाबड़ा
व्यंग्यकार
chhabravirvinod@gmail.com