मोदी सरकार की पाकिस्तान नीति
आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपनी पाकिस्तानी नीति का प्रबंधन किस तरह करना चाहिए? इस मुद्दे पर बिना किसी भावावेश के विचार करते हैं. विदेश नीति आमतौर पर कुछ विशेषज्ञों का क्षेत्र होता है. न तो आपको और न ही मुझे वास्तव में पता है कि न्यूजीलैंड, नॉर्वे या […]
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपनी पाकिस्तानी नीति का प्रबंधन किस तरह करना चाहिए? इस मुद्दे पर बिना किसी भावावेश के विचार करते हैं. विदेश नीति आमतौर पर कुछ विशेषज्ञों का क्षेत्र होता है. न तो आपको और न ही मुझे वास्तव में पता है कि न्यूजीलैंड, नॉर्वे या नाइजीरिया के साथ भारत की नीति के तत्व क्या हैं. हम इसकी परवाह भी नहीं करते हैं. लोगों की रुचि का यह अभाव उन कुछ विशेषज्ञों और उन राजनेताओं, जिनको विशेषज्ञ अपनी सलाह देते हैं, को लचीलापन और खुली जगह देता है. इन देशों के साथ नीतियों में फेर-बदल करना आसान होता है.
हालांकि, कभी-कभी विदेश नीति आम चर्चा का विषय भी बनती है. अमेरिका के चुनावी परिदृश्य में इसने 11 सितंबर के हमलों के बाद प्रवेश किया था. जनता के दबाव में अमेरिका को उन देशों के साथ आक्रामक रूप से वास्ता बनाना पड़ा, जिनकी उसने बरसों से परवाह नहीं की थी. अमेरिका ने युद्ध का रास्ता अख्तियार किया, क्योंकि उसकी आबादी बदला चाहती थी. आम तौर पर जो राजनेता (जैसे कि हिलेरी क्लिंटन) सावधानी बरतने की सलाह देते थे, वे भी जन-भावना को रोक न सके. उन निर्णयों का परिणाम भी हमारे सामने है, पर यह एक अलग मुद्दा है.
पाकिस्तान पर हमारी नीति फिलहाल आम चर्चा में है. दो बातों के कारण यह स्थिति हुई है. पहली बात तो यह है कि पाकिस्तानी राज्य के तत्व और लड़ाके तीन दशक से भारत में उपद्रव करते आ रहे हैं. यह धारावाहिक रूप में होता रहता है और इस संबंध में लोगों की रुचि भी (जैसा कि टेलीविजन की बहसों की संख्या से जाहिर होता है) घटती-बढ़ती है.
सामान्यतः आतंक भारत के लिए बड़ा मुद्दा नहीं है. कश्मीर, उत्तर-पूर्व और नक्सल-प्रभावित क्षेत्रों के हिंसाग्रस्त इलाकों को छोड़ दें, तो भारत में 2015 में आतंक से 13, 2014 में चार, 2013 में 25 और उसके पिछले साल एक लोग हताहत हुए थे. इन संख्याओं में आतंकवादी के रूप में मारे गये लोग भी शामिल हैं. यानी आतंकवाद भारतीयों के लिए प्राथमिक चिंता का विषय नहीं है, जैसा कि आंकड़े बताते हैं. आंकड़ों को संदर्भ में रखने के लिए उल्लिखित है कि हर साल पांच लाख भारतीय बच्चे कुपोषण से मर जाते हैं.
लेकिन, हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि आतंक का एक हिस्सा जान-बूझ कर हम तक निर्यातित किया जाता है, इस कारण ऐसी घटनाओं को लेकर अधिक गुस्सा लाजिमी है. एक दूसरा पहलू भी है, जिसके कारण आतंकवाद और हमारी पाकिस्तान नीति आम चर्चा में रहती है. यह कारक है भाजपा, और खास कर प्रधानमंत्री का यह कहना कि पूर्ववर्ती सरकार का इन मसलों पर रुख नरम था, तथा कठोर रवैये (जो कि भाजपा ही अपना सकती है) से ही हमारी समस्या का समाधान हो सकता है. क्या वह ऐसा कर सकती है? घटनाएं इंगित कर रही हैं कि इसका उत्तर ‘नहीं’ में है, और इसका अनुमान लगाया जा सकता था. पाकिस्तान या किसी अन्य देश के साथ संबंध के हमारे पास तीन ही विकल्प हैं, भले ही कोई भी पार्टी सत्ता में रहे- बातचीत, मध्यस्थता और युद्ध.
हम पाकिस्तान को युद्ध के द्वारा झुका सकते हैं, हम किसी तीसरे पक्ष या अदालत को विवाद में मध्यस्थता करने को कह सकते हैं या फिर हम बातचीत कर सकते हैं. इस संबंध में कोई चौथा विकल्प नहीं है. भाजपा इस बात से सहमत थी कि बातचीत नहीं करना एक तरह की नीति है. लेकिन, ऐसा नहीं है. यह सिर्फ गुस्से और खीझ का संकेतक है. इससे हमारी इच्छाएं पूरी नहीं हो सकती हैं. पठानकोट हमले के बाद यह कहने से कि ‘अब सबकुछ पाकिस्तान के पाले में है’, कुछ समाधान नहीं निकल सकता है.
हमें पाकिस्तान से बातचीत करने की जरूरत है, क्योंकि हमें उनसे जिस बहुत खास चीज दरकार है, वह यह सुनिश्चित करना है कि उनके देश के लोग हमारे देश के लोगों की हत्या न करें. हमें अन्य चीजों की भी जरूरत है, जैसे कि अफगानिस्तान, ईरान और मध्य एशिया से त्वरित आवागमन के लिए रास्ता. लेकिन यह गौण मुद्दा है.
हमारे सामने मौजूद तीन विकल्पों में से युद्ध का तो मतलब ही नहीं है. ऐसा पोखरण में हमारी गलती के कारण है. वर्ष 1998 से पहले हम पारंपरिक हथियारों के मामले में पाकिस्तान से आगे थे, पर इस बढ़त को हमने गंवा दिया. हमने नवाज शरीफ को पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम को हथियारबंद करने के लिए मजबूर किया, और उन्हें चगाई में स्थित आत्मरक्षात्मक व्यवस्था का प्रचार करने की मंजूरी दी. अगर हम चाहें भी, तब भी हम पाकिस्तान पर कोई छोटा और त्वरित छापेमारी नहीं कर सकते हैं.
जो यह कहते हैं कि सीमित हमले का विकल्प है, वे यह गारंटी नहीं दे सकते हैं कि यह व्यापक युद्ध में परिणत नहीं होगा. और ऐसा करने के लिए एक पागल नेता चाहिए, जो क्षुद्र सैन्य प्रतिष्ठा के लिए हमारे जीवन को दांव पर लगा दे.
भारत किसी तीसरे देश या संस्था की मध्यस्थता के विरुद्ध है. ऐसे में सिर्फ एक ही विकल्प बचता हैः बातचीत करने का. हमें तब भी बातचीत करनी है, जब उल्लंघनों के स्पष्ट मामले सामने हों, जैसा कि मुंबई और पठानकोट में हुआ. हमें बातचीत करनी होगी, क्योंकि यह हमारे हित में है. बातचीत नहीं करने से आतंक नहीं थम जाता है. उनसे बातचीत के कई फायदे हैं, जिनमें बेमतलब और हमेशा होती रहनेवाली गोलीबारी को कम करना भी है, जिनमें नागरिकों के जान-माल का नुकसान भी होता है.
हमारा मीडिया और आम जनता में ‘कठोर रवैये’ के विचार को मोदी द्वारा सफलतापूर्वक बेचा गया था. अब यह उनके लिए बोझ बन गया है, और इसका उन्हें एहसास भी हो गया है.
यदि वे स्पष्टता से समस्या को समझते हैं और हमारे विकल्पों के बारे में सीधे जनता के सामने विवरण देते हैं, तो वे मौजूदा माहौल को बदलने में कामयाब हो सकते हैं, जिसका मानना है कि पाकिस्तान के संबंध में हमारे पास चौथा विकल्प भी है. भारतीयों में उनकी बहुत साख है. उन्हें यह बदली हुई समझ को बेचने में भी कोई मुश्किल नहीं होगी.