प्रदर्शन और जवाबदेही

सब जानते हैं कि कमान से छूटा हुआ तीर वापस नहीं आता, पर जब तीर गलत निशाने पर लगे तो दोषी कौन कहलायेगा? निश्चित ही गलती तीरंदाज की मानी जायेगी. लेकिन, बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती. कौशल के बावजूद तीरंदाज का निशाना चूक जाने की आशंका हमेशा लगी रहती है. तो, क्या इस आशंका […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 16, 2016 2:02 AM
सब जानते हैं कि कमान से छूटा हुआ तीर वापस नहीं आता, पर जब तीर गलत निशाने पर लगे तो दोषी कौन कहलायेगा? निश्चित ही गलती तीरंदाज की मानी जायेगी. लेकिन, बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती. कौशल के बावजूद तीरंदाज का निशाना चूक जाने की आशंका हमेशा लगी रहती है.
तो, क्या इस आशंका के कारण तीर चलाया ही न जाये? दूसरे शब्दों में कहें, तो राजनीतिक दलों या नागरिक संगठनों के आह्वान पर धरना-प्रदर्शन का होना किसी लोकतंत्र को जीवंत बनाये रखने के लिए जरूरी है. लेकिन यह आशंका भी बनी रहती है कि प्रदर्शन कहीं उग्र रूप न ले ले और बेकाबू भीड़ निजी और सार्वजनिक संपदा के नुकसान पर न उतर आये. जहां एक तरफ सार्वजनिक या निजी संपदा के नुकसान की भरपाई और भीड़ को बेकाबू होने से रोकने की जरूरत है, वहीं लोकतंत्र को सतत सजग बनाये रखने के लिए धरना-प्रदर्शन जैसे संविधान प्रदत्त अधिकारों का अमल में लाया जाना भी आवश्यक है. परस्पर विपरीत जान पड़ती इस स्थिति में क्या करना उचित है?
शायद, सर्वोच्च न्यायालय के सामने ऐसी ही दुविधा रही होगी, जिस कारण उसने कहा है कि धरना, प्रदर्शन, बंद, हड़ताल आदि में भीड़ के बेकाबू होने पर धन-संपत्ति के नुकसान के हर्जाने की वसूली के बारे वह नये सिरे से दिशा-निर्देश जारी करना चाहती है. सनद रहे, धरना-प्रदर्शन के दौरान संपदा के नुकसान की भरपाई के बारे में अदालत का फैसला सात साल पहले ही आ चुका है. उस फैसले में कहा गया था कि विरोध, बंद, धरना-प्रदर्शन के कारण अगर निजी या सार्वजनिक संपदा का नुकसान होता है, तो जिस व्यक्ति, राजनीतिक दल या संगठन ने लोगों का आह्वान किया है, उसे जिम्मेदार मानते हुए हर्जाने की वसूली की जाये.
फैसले के बावजूद अदालतों को हर्जाने की वसूली में विशेष सफलता नहीं मिली और आयोजक संगठनों को नुकसान की भरपाई के मामले में जवाबदेह नहीं ठहराया जा सका. इस बीच धरना-प्रदर्शन के क्रम में भीड़ के उग्र होने और संपत्ति के नुकसान का सिलसिला जारी रहा. इसलिए सर्वोच्च न्यायालय अपने सात साल पुराने फैसले को नये सिरे से कारगर बनाना चाहती है. अच्छी बात है कि सरकार की तरफ से अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने भी नये दिशा-निर्देश बनाने में सहयोग देने की बात कही है.
बीते साल मई महीने में सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान को रोकने से संबंधित मौजूदा कानून को ज्यादा सख्त बनाने के लिए कोशिशें हुई थीं. उम्मीद करनी चाहिए कि अदालत की पहल लोकतंत्र के भीतर धरना-प्रदर्शन को जवाबदेह बनाने की ऐसी कोशिशों को मजबूती देगी.

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