अनिल रघुराज
संपादक, अर्थकाम.कॉम
समस्या बड़ी विकराल है. समस्या कृषि क्षेत्र की है जिसका योगदान भले ही सितंबर 2015 की तिमाही तक देश के जीडीपी में घट कर 11.58 प्रतिशत पर आ गया हो, लेकिन देश की 60 प्रतिशत से ज्यादा आबादी उस पर निर्भर है और लगभग 55 प्रतिशत श्रमशक्ति को उसने खुद में समा रखा है. अगर भगवान शिव की तरह उसने करोड़ों रोजगार-बेरोजगार लोगों को अपनी जटाओं में उलझा नहीं रखा होता, तो यहां न जाने कब का प्रलय मच गया होता. इसलिए सरकारों को देर-सबेर खेती-किसानी के दुख-दर्द पर सोचना ही पड़ता है.
करीब एक पखवाड़े पहले रिजर्व बैंक के कार्यपालक निदेशक दीपक मोहंती की अध्यक्षता में बनी 15 विशेषज्ञों की समिति ने अपनी रिपोर्ट पेश की है. इसमें उसने सिफारिश की है कि सरकार 3 लाख रुपये तक के कृषि ऋण के 9 प्रतिशत ब्याज में से 5 प्रतिशत हिस्सा खुद भरती है, उसे खत्म कर दिया जाये और इस तरह बची सब्सिडी से सभी छोटे व सीमांत किसानों की सभी फसलों का बीमा करवा दिया जाये. बड़ी जोत वाले किसानों से फसल बीमा का उचित प्रीमियम लिया जा सकता है.
अभी कुछ दिन पहले ही कैबिनेट ने ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ को मंजूरी दी है. प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट किया, ‘यह एक ऐतिहासिक दिन है. मेरा विश्वास है किसानों के कल्याण से प्रेरित यह योजना किसानों के जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन लायेगी.’ केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने इसे ‘अमृत योजना’ कह डाला. वहीं भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने दावा कि इससे किसानों को न्यूनतम प्रीमियम में अधिकतम लाभ मिलेगा. बात काफी हद तक सही भी है, क्योंकि अभी तक किसानों को जहां फसल बीमा के प्रीमियम का 15 प्रतिशत हिस्सा तक देना पड़ता था, वहीं अब उन्हें खरीफ में 2 प्रतिशत, रबी में 1.5 प्रतिशत और व्यावसायिक व बागवानी में 5 प्रतिशत देना पड़ेगा.
अगर बीमित किसान प्राकृतिक आपदा के कारण बोवनी नहीं कर पाता, तो इस जोखिम को भी यह योजना कवर करेगी. साथ ही ओला, जलभराव और भू-स्खलन जैसी आपदाओं को स्थानीय आपदा माना जायेगा.
लेकिन, अहम सवाल यह है कि क्या किसान को महज आसमानी आपदाओं का सामना करना पड़ता है? रिजर्व बैंक ने अपनी रिपोर्ट में बड़ी संस्थागत समस्या का निदान पेश किया था, जिससे कृषि क्षेत्र की बहुत सारी विसंगतियां दूर हो सकती थीं. क्या आपको पता है कि कृषि क्षेत्र को सरकार के कहने पर बैंकों की तरफ से हर साल कितना ऋण दिया जाता है? वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2015-16 के बजट में कृषि ऋण की अनुमानित रकम 8.5 लाख करोड़ रुपये रखी है. इस ऋण की मात्रा वित्त वर्ष 2010-11 में 3.75 लाख करोड़ रुपये थी, जहां से पिछले वित्त वर्ष 2014-15 तक 8 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गयी. इस दौरान वास्तव में किसानों को दिया गया हर साल ऋण बजट में निर्धारित लक्ष्य से ज्यादा रहा है. आखिर इतना ऋण जाता कहां है और इसके ब्याज पर छूट का फायदा किसको मिलता है?
टीआइएसएस के अनुसार, कुल सरकारी बैंक ऋण में दो लाख रुपये से कम के ऋणों का हिस्सा 1990 से 2011 के बीच 58.7 प्रतिशत से घट कर महज 5.8 प्रतिशत रह गया है. दूसरी तरफ 25 करोड़ रुपये से ज्यादा के ऋणों का हिस्सा इस दौरान 5.7 प्रतिशत से बढ़ कर 17.7 प्रतिशत हो गया है.
देश में 80 प्रतिशत से ज्यादा किसानों के पास ढाई एकड़ से कम जमीन है, जो अधिक से अधिक दो लाख रुपये का ऋण ही ले सकते हैं. फिर 25 करोड़ रुपये से ज्यादा ऋण लेनेवाले ‘किसान’ कहां से आ गये? यह जांच का विषय है. लेकिन, हम जानते हैं कि बड़ी कंपनियां कृषि के नाम पर मिली इस छूट को लूटती रहती हैं.
यह भी सच है कि बैंक से किसान को जब ऋण मिलता है, तो उसका 3 प्रतिशत दस्तावेजों को तैयार करने पर चला जाता है. इसके ऊपर 10-12 प्रतिशत की रिश्वत. इस तरह किसानों को एक लाख के ऋण पर करीब 85,000 रुपये ही मिलते हैं.
इस पर 9 प्रतिशत ब्याज के बदले भले ही 4 प्रतिशत ब्याज ली जाये, उससे किसानों पर खास फर्क नहीं पड़ता. इसी विसंगति को दूर करने के लिए रिजर्व बैंक ने कहा था कि कृषि ऋण पर दी जा रही 13,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी से सरकार अगर सभी छोटे व सीमांत किसानों की फसल बीमा का प्रीमियम भर देती, तो एक तीर से दो निशाने लग जाते. लेकिन सरकार को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना पर अलग से साल में 8,800 करोड़ रुपये खर्च करना मंजूर है, क्योंकि कृषि ऋण और उसकी सब्सिडी पर मौज कर रहे लोगों की खुशी में वह खलल नहीं डालना चाहती. सार्वभौमिक सत्य है कि राजनीति इसी तरह ही अर्थनीति का कचूमर निकाला करती है.