कोहरे से घिरे सूरज का एकालाप
बुद्धिनाथ मिश्र वरिष्ठ साहित्यकार जिस रात हमारे देश के पश्चिमोत्तर क्षेत्र के लोग घने कोहरे में अलाव जला कर लोहड़ी पर्व मना रहे थे, उस रात अमेरिका और कनाडा के लोग एक साथ दो-दो सूर्य देखने का सुख पा रहे थे. दरअसल, जिस सौर मंडल में हम रहते हैं, उसमें सूर्य तो एक ही है, […]
बुद्धिनाथ मिश्र
वरिष्ठ साहित्यकार
जिस रात हमारे देश के पश्चिमोत्तर क्षेत्र के लोग घने कोहरे में अलाव जला कर लोहड़ी पर्व मना रहे थे, उस रात अमेरिका और कनाडा के लोग एक साथ दो-दो सूर्य देखने का सुख पा रहे थे.
दरअसल, जिस सौर मंडल में हम रहते हैं, उसमें सूर्य तो एक ही है, मगर उस समय एक ही कक्षा में सूर्य का अस्त होने और चंद्रमा का उदित होने का क्रम कुछ ऐसा बना कि चंद्रमा की चमक भी सूर्य के बराबर हो गयी और एक साथ दो-दो सूर्य होने का भ्रम होने लगा. वहां से मेरे मित्र प्रशांत करण जी ने उसके कुछ अद्भुत चित्र भेजे हैं. मुझे नहीं मालूम कि नकारात्मकता के दलदल में आकंठ डूबे हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उस पर कितना ध्यान दिया.
हमारे पञ्चांग के अनुसार, सूर्यदेव 14 जनवरी की रात में धनु राशि से मकर राशि में प्रविष्ट हुए. इसलिए शास्त्रीय निर्देशों के अनुसार, इस वर्ष मकर संक्रांति का स्नान 15 जनवरी के प्रातःकाल हुआ.गंगा सागर का मेला इसी दिन मुख्य रूप से हुआ. इस वर्ष पश्चिम बंगाल के राज्यपाल आदरणीय केसरीनाथ त्रिपाठी जी ने मकर संक्रांति के दिन गंगा सागर चलने का न्योता दिया था, मगर उन्हें कुछ आवश्यक कार्यवश काशी जाना पड़ा, जिससे वह कार्यक्रम स्थगित हो गया; लेकिन मैं कतिपय विगत वर्षों की भांति कलकत्ता (कोलकाता) आकर बाबूघाट में स्नानार्थियों की सेवा के लिए लगे जयभारत-मिथिलांचल सेवा समिति के शिविर में आकर बैठ गया.
लगभग दो दशक पहले मैथिल समाज के गांधी श्री विवेकानंद ने मुझे इस ओर प्रवृत्त किया और बाबूघाट में स्नानार्थियों की सेवा में जो अनुभव प्राप्त होता है, उसे भी ब्रह्मानंद सहोदर से कम नहीं आंका जा सकता. कलकत्ता से दूर चले जाने पर भी मेरी कोशिश रहती है कि इस अवसर पर बाबूघाट शिविर में तीन-चार दिन अवश्य बिताऊं. मेरे आने से कार्यकर्ताओं के चेहरे पर जो चमक आती है, वह मेरे लिए किसी बड़े-से-बड़े कवि सम्मेलन से ज्यादा लुभावन जान पड़ता है. एक समय था, जब मुझे इस समिति का अध्यक्ष बना कर विवेकानंद और इंद्रनारायण की जोड़ी ने ऐसे अद्भुत कार्य किये, जो दूसरे समाज के लिए भी प्रेरक बन गये.
हम लोगों के पास आर्थिक संसाधन लगभग शून्य होता था, और यात्रियों की संख्या अनिश्चित व अप्रत्याशित, मगर न जाने किस प्रेरणा से उद्यमी लोग रात-बिरात आकर अपनी कार से आटा-चावल-दाल-सब्जी-चाय पत्ती आदि पहुंचा जाते थे. कभी भंडार कम नहीं हुआ. इस शिविर से मुझे यह अनुभव हुआ कि शुद्ध मन से किये गये संकल्प में कितनी शक्ति होती है. ईश्वर सब कुछ देने के लिए तैयार बैठा है, आप संकल्प तो करिए.
विश्व का सबसे वैज्ञानिक पञ्चांग सौर पञ्चांग माना जाता है, जिसमें सूर्य की गति से काल गणना होती है. सूर्य के एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश को संक्रांति कहते हैं. भारत का ग्रामीण समाज यद्यपि आजादी के बाद काफी प्रदूषित हो चुका है, जो जितना शिक्षित है, वह सांस्कृतिक दृष्टि से उतना ही पिछड़ा हुआ है.
जिस पीढ़ी तक परंपराएं निर्बाध रूप से आयी हैं, वह पीढ़ी आज भी चंद्रमास की प्रतिपदा-द्वितीया आदि तिथियों से सारा काम करती है और धार्मिक कार्यों के लिए मास की गणना संक्रांति से करती है. मकर संक्रांति को देवताओं का प्रभात काल माना जाता है, क्योंकि इस दिन से सूर्य का अयन (मार्ग) बदल जाता है; वह दक्षिणायन से उत्तरायण हो जाते हैं. उत्तरायण को देवता का दिन और दक्षिणायन को देवता की रात्रि माना जाता है.
महाभारत में भीष्म पितामह शरशय्या पर सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा करते रहे थे. उन्हें इच्छामृत्यु का वर प्राप्त था. हमारे कई अग्रज साहित्यकार उत्तरायण की प्रतीक्षा नहीं कर सके और हमें छोड़ कर चले गये.
हिंदी कथाकार रवींद्र कालिया और मैथिली कथाकार राजमोहन झा का पिछले दिनों हुआ निधन साहित्य जगत की विशेष क्षति है. रवींद्र कालिया जी दिल्ली में रहते थे, ज्ञानपीठ के निदेशक के रूप में नयी पीढ़ी को अग्रसर करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी. इसलिए उनकी शवयात्रा में दिल्ली महानगर के अनेक साहित्यिक जन उपस्थित थे. मगर आम आदमी एक भी नहीं. राजमोहन जी ‘जनसीदन’ जी के पौत्र और प्रोफेसर हरिमोहन झा के पुत्र थे. स्वयं साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त थे.
उनकी अंत्येष्टि में मात्र आठ परिजनों की उपस्थिति यह दर्शाती है कि मैथिली का समाज अपने साहित्य से कितना दूर चला गया है. वह साहित्य के नाम पर केवल विद्यापति पर्व मनाता है, जिसमें पूरा जोर सस्ते मनोरंजन पर रहता है.
पिछले दिनों गुवाहाटी में ऐसे ही एक समारोह में जब कुछ मनचले दर्शकों ने ‘झमकउआ गीत’ के लिए चिल्लाना शुरू किया, तो गायक विकास-माधव की जोड़ी ने डांट कर उन्हें बैठा दिया, क्योंकि वह मिथिला सांस्कृतिक समन्वय समिति का मंच था, जो अपनी स्तरीयता के लिए प्रसिद्ध है.
लेकिन सभी विद्यापति पर्वों में ऐसा नहीं हो पाता. मैथिली भाषा को अब राज्याश्रय प्राप्त है, मगर इसके बावजूद, यदि उसका आम आदमी अपनी भाषा और साहित्य से दूर है, तो यह चिंता की बात है. चिंता की बात तो यह भी है कि कभी रसीले आम के लिए प्रसिद्ध मालदह और पूर्णिया में कट्टरपंथी लोग हजारों की संख्या में जुट कर तांडव करते हैं और किसी साहित्यकार की अंतश्चेतना उसे चुप्पी तोड़ने को विवश नहीं करती है. ऐसे में कोहरे से घिरा अकेला सूरज अपना धर्म छोड़ कर कब तक एकालाप कर सकेगा.