विस्मृत होतीं महाकवि की वीर-गाथाएं
।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।। (वरिष्ठ साहित्यकार) उत्तर प्रदेश का शहर मऊ नाथ भंजन जब आजमगढ़ जनपद का हिस्सा था, तब अनेकों बार यहां मैं आया था. वस्त्र निर्माण की दृष्टि से यह नगर बहुत मशहूर है. वीर रस के महाकवि पंडित श्याम नारायण पांडेय इसी नगर के पास डुमरांव गांव के थे. उनके जीते जी […]
।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
उत्तर प्रदेश का शहर मऊ नाथ भंजन जब आजमगढ़ जनपद का हिस्सा था, तब अनेकों बार यहां मैं आया था. वस्त्र निर्माण की दृष्टि से यह नगर बहुत मशहूर है. वीर रस के महाकवि पंडित श्याम नारायण पांडेय इसी नगर के पास डुमरांव गांव के थे. उनके जीते जी कभी उनके गांव-घर को देखने का मौका नहीं मिला. कवि सम्मेलनों में जानेवाले कवियों की जमात के बारे में प्रसिद्धि थी कि वह डाकुओं की भांति शाम के धुंधलके में वारदात की जगह पहुंचती है और सुबह होने से पहले नगर छोड़ देती है. लोगों को अमुक-अमुक कवियों के उस नगर में आने की सूचना अखबार की खबरों से ही मिलती थी. मैं भी उसी जमात का हिस्सा हुआ करता था. उसमें कभी डुमरांव जाने का कार्यक्रम नहीं बना, जबकि बनारस में महाकवि श्याम नारायण पांडेय, सूंड फैजाबादी, रूप नारायण त्रिपाठी, विकल साकेती आदि प्राय: मेरे घर आते थे. 1991 में हुए पांडेय जी के निधन के बाद से ही मेरे मन में डुमरांव जाने की दृढ़ इच्छा थी, जो गत 4 दिसंबर को फलीभूत हुई.
जब मैं ट्रेन से मऊ स्टेशन उतरा, तो मेरे साथ गीतकार राघवेंद्र प्रताप सिंह थे, जो मऊ के सीमावर्ती गांव ताजोपुर के निवासी हैं और विभिन्न साहित्यिक समारोहों के माध्यम से क्षेत्र में पांडेय जी के नाम को जीवित रखने के लिए प्रयासरत हैं. स्टेशन से बाहर निकलते ही साहित्यिक पत्रिका ‘अभिनव कदम’ के संपादक जय प्रकाश ‘धूमकेतु’ मिल गये. उन्होंने पत्रिका के कुछ महत्वपूर्ण अंक दिये और आजमगढ़ चौराहे पर चाय पीने का आग्रह किया. चाय बेहद उम्दा थी. राघवेंद्र की बाइक पर पूरे माल-असबाब के साथ लद कर मैं उसके घर पहुंचा. मुझसे पहले मेरे गीत वहां पहुंचे हुए थे, इसलिए पहली बार जाने पर भी मैं उस घर का अभिभावक बन बैठा. स्नान-भोजन के बाद हम दोनों गोरखपुर-बनारस मार्ग पर चल पड़े, जिस पर कुछ मील चलने के बाद डुमरांव मोड़ आता है. रास्ते में जितेंद्र मिश्र ‘काका’ की दुकान पड़ी. काका पांडेय-परिवार से ज्यादा घुले-मिले हैं, इसलिए उनको भी साथ ले लिये.
डुमरांव मोड़ पर पांडेय जी की भव्य आदमकद प्रतिमा राज्य सरकार की पहल पर लगायी गयी है, लेकिन वहां श्याम नारायण पांडेय कौन थे, कोई परिचय नहीं है. कायदतन उनका संक्षिप्त जीवन-परिचय और उनकी कालजयी कृतियों की सूची उस पर उत्कीर्ण होनी चाहिए थी, जिससे लोग जान सकें कि ‘हल्दीघाटी’, ‘जौहर’, ‘जयजय हनुमान’ जैसे वीर रस के अप्रतिम महाकाव्यों के रचयिता महाकवि पंडित श्याम नारायण पांडेय का गांव वहीं पास में है. महाकवि से ज्यादा अपना नाम लिखाने की अधिकारियों की ललक देख कर मन में बड़ी निराशा हुई.
काका ने बताया कि गांव में पांडेय जी के दो घर हैं. नये घर में उनकी तीसरी पत्नी रमावती देवी अपने पुत्र-पौत्रों के साथ रहती हैं. पांडेय जी के साथ वर्षो मैं रहा, मगर कभी उन्होंने घर-परिवार की चर्चा नहीं की. पांडेय जी के तीन विवाह हुए. पहली पत्नी से एक लड़की सर्वदा हुई. दूसरी पत्नी से एक पुत्र भूदेव हुआ. तीसरी पत्नी रमावती जी से एक पुत्र छविदेव और चार पुत्रियां हुईं. उनका घर कहीं से भी किसी साहित्यकार का घर नहीं लग रहा था. एक सामान्य किसान के घर की तरह था. थोड़ी देर में श्रद्धेया रमावती जी बाहर आयीं. घर में पांडेय जी का कोई चित्र टंगा नहीं था. उनका न कोई महाकाव्य वहां था, न कोई सम्मान-स्वरूप मिला, न प्रतीक-चिह्न्. उनकी भौतिक संपत्ति की खरीद-बिक्री की बात तो उठी, मगर उनके साहित्यिक अवशेषों का कोई नामलेवा नहीं था.
पांडेय जी भारतीय अस्मिता के युग-गायक थे, इसलिए उन्हें अनेकों बार सम्मानित किया गया था. एक बार राजस्थान सरकार ने उन्हें एक विराट समारोह में चांदी की तलवार भेंट की थी. वह भी अभाव की भेंट चढ़ गयी. इस समय उस घर में रमावती जी के मन में बसी कुछ स्मृतियों के सिवा कुछ नहीं है, जो आनेवाले साहित्य प्रेमियों को पुकार कर कह सके कि मुङो देखो, मेरे साथ इस घर में, इस परिवार में वह महाकवि जिंदा हैं. उनके परिवार में कोई भी नहीं है, जिसे महाकवि के उत्तराधिकार को जानने की जिज्ञासा हो या उसे संरक्षित करने की चिंता हो. उस परिवार का सारा वैभव कविता की देन है, यह बात वह परिवार पूरी तरह भूल चुका है. दूरदर्शन के मऊ केंद्र ने कुछ वर्ष पहले पांडेय जी पर एक वृत्तचित्र बनाया था, जिसकी पटकथा राघवेंद्र ने ही लिखी थी. उस समय भी कुछ पांडुलिपियां मौजूद थीं, जो अब उपलब्ध नहीं हैं. सुना है कि आकाशवाणी के गोरखपुर केंद्र में पांडेय जी की काव्यपाठ के कुछ रेकॉर्ड बचे हुए हैं. उन्हें सुरक्षित रखना जरूरी है, क्योंकि हल्दीघाटी हो या जौहर, उसको पढ़ने से ज्यादा सुनने से वीर रस की अनुभूति होती है.
मैं सौभाग्यशाली हूं, जिन्हें न केवल पांडेय जी की गुरुत्वपूर्ण अध्यक्षता में वर्षो काव्यपाठ करने का गौरव मिला, बल्कि उनका भरपूर स्नेह भी प्राप्त हुआ. उन्होंने एक यात्र के दौरान बताया था कि जब उन्होंने ‘हल्दीघाटी’ लिखी थी, तब वे बनारस में रहते थे. उन दिनों आचार्य रामचंद्र शुक्ल ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ लिख रहे थे. नवीनतम कृतियों को उसमें समेटने के लिए शुक्ल जी ने संदेश भेज कर पांडेय जी से हल्दीघाटी महाकाव्य मंगाया और उस पर अपने इतिहास में लिखा भी. कवि सम्मेलनों में प्राय: वे ही अध्यक्षता करते थे. उनका क्रम रात के अंतिम चरण में आता था, मगर जब उनकी कड़कती आवाज में पंक्तियों को श्रोता सुनते थे, तो अधसोई अवस्था से जाग उठते थे..
हाय रुंड गिरे, गज मुंड गिरे, कट-कट अवनी पर शुंड गिरे।
लड़ते-लड़ते अरि झुंड गिरे, भू पर हय विकल वितुंड गिरे।।
उनका दूसरा महाकाव्य ‘जौहर’ काव्यमंचों पर विशेष लोकप्रिय था, जिसका छंद पालकी ढोनेवाले कहारों द्वारा व्यवहृत धुन पर आधारित था.-
सामने पहाड़ हो, सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर बढ़े चलो, तुम अमर बढ़े चलो.
इसके अलावा वे ‘जय हनुमान’ सुनाते थे, तो सूखी नसों में रक्त प्रवाहित कर देते थे. अपने काव्यपाठ के पहले वे जो विशद वक्तव्य देते थे, वह भी इतना प्रभावशाली होता था कि कवि सम्मेलन उसे सुन कर ही पुनर्जीवित हो उठता था. मुङो दुख है कि पिछली तीन पीढ़ियों के किशोरों को अपनी वीर रस की कविता से भारतीयता का पाठ पढ़नेवाले महाकवि पांडेय जी आज पाठ्य-पुस्तकों से निकाले जा रहे हैं. उनके महाकाव्य भी पुस्तकों की दुकानों पर सुलभ नहीं हैं. डुमरांव से लौटते हुए मेरे पांव में दो-दो मन के पत्थर बंधे हुए थे. क्या सोच के आया था, क्या देख के लौट रहा था. क्षमा करें गुरुवर, अब यह देश आपके महत्व को समझने का सामथ्र्य खो चुका है.