लाहौर यात्रा से निकले कुछ प्रश्न
पवन के वर्मा सांसद एवं पूर्व प्रशासक परिपक्व लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए एक ऐसा विपक्ष जरूरी है, जो अपनी आंखें मूंद विरोध न किया करे. नेतृत्व की परीक्षा तो तब होती है, जब वह अपेक्षित और संभावित व्यवहारों से ऊपर उठ कर घटनाओं तथा विचारों के गुणावगुण मूल्यांकन के आधार पर निश्चित की गयी अपनी […]
पवन के वर्मा
सांसद एवं पूर्व प्रशासक
परिपक्व लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए एक ऐसा विपक्ष जरूरी है, जो अपनी आंखें मूंद विरोध न किया करे. नेतृत्व की परीक्षा तो तब होती है, जब वह अपेक्षित और संभावित व्यवहारों से ऊपर उठ कर घटनाओं तथा विचारों के गुणावगुण मूल्यांकन के आधार पर निश्चित की गयी अपनी धारणाएं प्रकट करने का साहस दिखाता है. नवाज शरीफ के जन्मदिन पर उन्हें अपनी शुभकामनाएं प्रकट करने प्रधानमंत्री मोदी की अचानक लाहौर यात्रा को नीतीश कुमार का समर्थन नेतृत्व के इसी गुण की एक उम्दा मिसाल है, जिससे भाजपा तथा खुद नीतीश के गंठबंधन सहयोगियों समेत बहुतों को हैरानी हुई है.
यदि सीधे-सादे ढंग से कहा जाये, तो भारत के पास पाकिस्तान से वार्ता करना छोड़ कोई दूसरा विकल्प नहीं है.एक पड़ोसी देश होने के नाते पाकिस्तान को नजरंदाज नहीं किया जा सकता. इससे हम दोनों देशों के बीच की समस्याएं न केवल बनी रहेंगी, बल्कि उनके खतरनाक अंजाम की आशंका भी होगी. सामान्य तौर पर, राजनय में ‘कट्टी’ को एक बेहतर विकल्प नहीं माना जाता. इसके अलावा, यह भारत जैसे एक ऐसे देश के लिए, जो विश्व-बिरादरी में अपने लिए एक औचित्यपूर्ण सम्मानित मुकाम हासिल करने का प्रत्याशी रहा है, अपने ही पिछवाड़े एक अंतहीन संघर्ष से जूझते रहने में कहीं कुछ अनुचित तो है ही.
इसे देखते हुए, लाहौर में मोदी का अनपेक्षित पड़ाव तथा नवाज शरीफ द्वारा उनका गरमाहटभरा इस्तकबाल सुनियोजित संवादों की संभावनाएं तो सशक्त करता ही है. पर जहां तारीफ की दरकार है, वहीं आलोचना पर भी गौर किया जाना चाहिए. भाजपा सरकार द्वारा पाकिस्तान के प्रति अपनायी गयी नीति अब तक अत्यंत तीखे मोड़ों से भरी रही है. जो कुछ साफ देखा जा सकता है, वह यह कि पाक के साथ अपने संबंधों की दिशा के लिए एक सुविचारित रणनीतिक चौखटे का अभाव है. दोस्ती के खुले वादे के साथ पाकिस्तान लगातार हमले की अपनी रणनीति पर कायम रहा है, जबकि उसे हमारा प्रत्युत्तर प्रतिक्रियात्मक, आवेशभरा, विरोधाभासी तथा उतार-चढ़ावपूर्ण है.
जहां तक लाहौर में अंजाम दी गयी इस नवीनतम पहल का प्रश्न है, तो वह पहेलियों से भरी है. क्या मोदी सरकार को यह आशंका नहीं थी कि इसके बाद पाक सेना, आइएसआइ और उनके संरक्षण में पल रहे आतंकी संगठनों द्वारा प्रायोजित किसी न किसी तरह का हिंसक हमला अवश्य होगा?
अतीत में जब भी पाकिस्तान की किसी असैनिक सरकार के साथ वार्ता की दिशा में कोई असाधारण उपलब्धि हासिल की गयी है, तो ऐसा ही होता रहा है. पर, पठानकोट ने दुखद रूप से यह प्रमाणित कर दिया कि हम इस संभावना के लिए बिलकुल ही तैयार न थे. हालांकि, हमले की सटीक सूचना आ चुकी थी, फिर भी हमने भारी नुकसान सहित सात जिंदगियां खो दीं. क्या इस कोताही की जिम्मेवारी तय नहीं की जानी चाहिए?
क्या मोदी के इस अचानक दौरे के पहले पाक सेना और आइएसआइ सहित पाक सियासत के अंदरूनी गंठजोड़ के साथ वैकल्पिक राजनयिक चैनलों को आजमाया गया था? तो फिर, इस नाटकीय यात्रा के बाद आज हम कहां खड़े हैं? इस खबर का खंडन कि पठानकोट के गुनाहगार जैश-ए-मुहम्मद के सरगना मसूद अजहर को निवारक नजरबंदी में रखा गया है, खुद अजहर ने ही कर दिया है. अलबत्ता, नवाज शरीफ ने इस हमले के जिम्मेवारों के खिलाफ ‘कार्रवाई’ की हमें भानेवाली बातें जरूर कहीं, मगर कुछ वैसा होता दिख नहीं रहा. वहीं दूसरी ओर, विदेश सचिवस्तरीय वार्ता अनिश्चितता से घिर गयी है. साफ है कि एक नयी पहल के पहले जरूरी विस्तृत तैयारी के अभाव ने हमें फिर वहीं पहुंचा दिया है, जहां से हम चले थे.
एक और भी पहलू है, जिसकी पड़ताल की जानी चाहिए. पाकिस्तान में आतंकी ढांचे को नकेल देने और उसके खात्मे में हमारे अच्छे दोस्त अमेरिका की क्या भूमिका रही है? अगर कोई एक ऐसा देश है, जिसकी पाक सेना तथा आइएसआइ पर चलती है, तो वह अमेरिका ही है और उसके पास पाक समर्थित दहशतगर्दी के पुख्ता प्रमाण मौजूद हैं. 26/11 के मुंबई हमले हेतु डेविड हेडली और तहावुर हुसैन राना की दोषसिद्धि के दौरान अमेरिका ने इस संहार के लिए पाकिस्तान के राजकीय तथा गैरराजकीय दोनों ही किस्मों के किरदारों को दोषी माना था.
अमेरिका ने तो हाफिज सईद की गिरफ्तारी के लिए 10 लाख डॉलर का इनाम भी घोषित कर रखा है. किंतु, जब वह इस तथ्य से बखूबी वाकिफ है कि पाकिस्तान में सईद बड़ी आजादी से फिर रहा है, तो क्या इनाम की यह मुनादी महज प्रतीकात्मक नहीं है? पाकिस्तान में आतंकी पनाहगाह सबकी नजरों के सामने फल-फूल रहे हैं, अफगानिस्तान में तालिबान पाकिस्तान सरकार की खुली हिमायत का दावा किया करता है, मगर अमेरिका है कि पाक फौज को जारी आपूर्तियों सहित पाकिस्तान को अपनी सहायता में हमेशा की दरियादिली दिखाने से बाज नहीं आता.
अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा द्वारा पिछली जनवरी की भारत यात्रा के दौरान अपने आधे घंटे के रेडियो भाषण के बीच भले ही नरेंद्र मोदी ने उन्हें ‘बराक’ के पहले नाम से कुल जमा 19 बार पुकारा हो, किंतु क्या यह दिलकश नजदीकी अमेरिकी सरकार द्वारा पाकिस्तान पर उसके आतंकी नेटवर्क के खात्मे के लिए ठोस कदम उठाने के दबाव में तब्दील नहीं होनी चाहिए?
अथवा, क्या वैश्विक दहशतगर्दी के विरुद्ध अमेरिका का घोषित संघर्ष एक पूर्णतः चुनिंदा और सुविधाजनक प्रक्रिया है, जो केवल तभी आरंभ की जाती है, जब उस दहशत से उसके तात्कालिक हित सीधे तौर पर प्रभावित होते हैं? अमेरिका शायद अन्य किसी भी देश से अधिक अच्छी तरह यह समझता है कि विश्व में कहीं भी दहशतगर्दी हो, वह पृथ्वी के किसी भी कोने में स्थित देशों के लिए खतरा है.
तो फिर क्यों नहीं पाकिस्तान के अंदरूनी गंठजोड़ के पूरे समर्थन से हमारे विरुद्ध सक्रिय आतंकी नेटवर्क को बेअसर करने के हमारे रणनीतिक लक्ष्य के लिए ज्यादा प्रभावी अमेरिकी हस्तक्षेप होता नहीं दिखता? अमेरिका में निकटस्थ राष्ट्रपति चुनावों के मद्देनजर पाकिस्तान के लिए किसी नवीन नीति निर्माण की संभावना कमतर हो रही है. मगर, भारत को चाहिए कि वह इस तथ्य को ओबामा या उनके उत्तराधिकारी के समक्ष सतत तथा संपूर्ण शक्ति से उठाता रहे.
पाकिस्तान के साथ हमारे मुद्दों को सुलझाने के लिए संवाद हमारा रणनीतिक लक्ष्य होना ही चाहिए. पड़ोसियों के लिए कहीं दूर जा बसने की गुंजाइश नहीं होती और इसलिए उन्हें अपने दीर्घावधि हित में एक दूसरे के साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्व कायम करना ही चाहिए. उस सीमा तक मोदी की लाहौर यात्रा का स्वागत किया जाना चाहिए.
किंतु, ऐसी नाटकीय भंगिमाओं से टिकाऊ नतीजे हासिल करने हेतु यह होशियारी तो बरती ही जानी चाहिए कि वे एक ऐसे रणनीतिक चौखटे में जड़ी हों, जिसे ‘तमाशे का प्रबंधन’ करनेवाले राजनय से किनारा कर रचा गया हो.
(अनुवाद : विजय नंदन)