सेंसर बोर्ड का रवैया ढुलमुल

एक समय था जब सेंसर बोर्ड की कैंची की पैनी धार के कारण देश भर में प्रदर्शित होनेवाली तमाम फिल्में पूरे परिवार के साथ देखी जाती थीं. यह वह दौर था, जब भारतीय फिल्में अपनी शालीन भाषा, नैतिकता के ऊंचे मानदंडों, मूल्यों पर आधारित अपनी सभ्यता और संस्कृति के जरिये देश की आम जनता को […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 22, 2016 6:22 AM
एक समय था जब सेंसर बोर्ड की कैंची की पैनी धार के कारण देश भर में प्रदर्शित होनेवाली तमाम फिल्में पूरे परिवार के साथ देखी जाती थीं. यह वह दौर था, जब भारतीय फिल्में अपनी शालीन भाषा, नैतिकता के ऊंचे मानदंडों, मूल्यों पर आधारित अपनी सभ्यता और संस्कृति के जरिये देश की आम जनता को सामाजिक संदेश देने का काम काम किया करती थीं.
यह वह समय था, जब पुरानी क्लासिक फिल्में भारतीय समाज का आइना हुआ करती थीं. लेकिन, पिछले कुछ सालों से सेंसर बोर्ड के ढुलमुल रवैये के कारण, पाश्चात्य संस्कृति से ग्रसित व विकृत मानसिकता से लबरेज भारतीय फिल्में न केवल हमारे सामाजिक ताने-बाने की छवि बिगाड़ रही हैं, अपितु भारतीय संस्कृति की मर्यादा व उसकी नैतिकता को भी छलनी कर रही हैं.
इस प्रकार की फिल्में हमारी सामाजिक मर्यादाओं व रिश्तों की पवित्रता को भी भंग करने का काम कर रही हैं. नाम व पैसा कमाने की प्रतिस्पर्धा के चलते फिल्ममेकर इस प्रकार अंधे हो गये हैं कि सामाजिक मर्यादाओं को ताक पर रख कर फिल्मों में अश्लील भाषा व नग्नता परोसे जा रहे हैं. इस प्रकार की फिल्मों में अश्लील भाषा और फूहड़ता परोसनेवाले फिल्मकारों का समाज से कोई सरोकार नहीं होता. सामाजिक घटनाओं पर आधािरत फिल्में नयी पीढ़ी को सीख देती हैं. लेकिन, आजकल बन रही फिल्मों में द्विअर्थी संवाद, आइटम नंबर और फुहड़ता परोसे जाने को देख कर यही लगता है कि िफल्म इंडस्ट्रीज में कितना हद तक बाजारवाद हावी है.
आजकल की फिल्मों में बेवजह की गाली-गलौच, स्तरहीन कॉमेडी, द्विअर्थी संवाद, द्विअर्थी गाने तो होते ही हैं, साथ ही फिल्मांकन में भी गिरता स्तर पारिवारिक दर्शकों को अपनी ओर खींचने में कामयाब नहीं हो पाता. सेंसर बोर्ड को चाहिए कि इस प्रकार की फिल्मों पर तत्काल लगाम लगाये और भारतीय संस्कृति की मर्यादा और रिश्तों की पवित्रता को बनाये रखने में सहयोग प्रदान करे.
– लोकेंद्र नामजोशी, देवास

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