असली मुद्दों को पहचानने की दरकार

विश्वनाथ सचदेव वरिष्ठ पत्रकार दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की एक सभा में किसी ने उन पर स्याही फेंकने की कोशिश की, और उनकी पार्टी ‘आप’ के नेता कह रहे हैं, कि स्याही की जगह एसिड भी फेंका जा सकता था. इस घटना को जब मुख्यमंत्री की हत्या के किसी षड्यंत्र से जोड़ा जाता है, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 22, 2016 6:26 AM
विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की एक सभा में किसी ने उन पर स्याही फेंकने की कोशिश की, और उनकी पार्टी ‘आप’ के नेता कह रहे हैं, कि स्याही की जगह एसिड भी फेंका जा सकता था. इस घटना को जब मुख्यमंत्री की हत्या के किसी षड्यंत्र से जोड़ा जाता है, तो बात आसानी से समझ नहीं आती.
हमारे मीडिया के लिए यह समाचार ‘हॉट केक’ की तरह बिकनेवाली सामग्री है. इसलिए यह ब्रेकिंग न्यूज का हिस्सा बनता है! इसी सप्ताह की एक और खबर है. रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने सार्वजनिक बैंकों की आर्थिक स्थिति को नुकसान पहुंचानेवाले उन बड़े लोगों के खिलाफ बैंकों द्वारा कार्रवाई न कर पाने की बात कही है, जो अरबों रुपये का ऋण लेकर आराम से बैठ गये हैं. रिजर्व बैंक के गवर्नर का यह ‘रहस्योद्घाटन’ हमारे मीडिया के लिए ब्रेकिंग न्यूज नहीं है!
सवाल है कि एक ब्रेंकिग न्यूज बनती है और दूसरी नहीं, तो आखिर क्यों? इसका एक उत्तर तो यह है कि जो ‘बिकता’ है, वही हमारे मीडिया के लिए महत्वपूर्ण बनता जा रहा है. लेकिन, एक उत्तर और भी हो सकता है- मीडिया को समझ नहीं है मुद्दों की.
वैसे, दोनों ही स्थितियां हमारे मीडिया की कमजोरी को उजागर करती हैं, पर दूसरी बात को मीडियावाले आसानी से नहीं स्वीकारेंगे. सवाल मीडिया तक ही सीमित नहीं है, इस समझ का रिश्ता हम पाठकों-दर्शकों से भी है. मसलन, गरीबी और अमीरी दोनों समाचारों की दुनिया का हिस्सा हैं, पर यह खबर ब्रेकिंग न्यूज नहीं बनती कि भारत में पिछले पंद्रह वर्षों में अरबपतियों की संख्या बारह गुनी बढ़ गयी है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश ने यह आंकड़े जारी किये हैं और यह भी बताया है कि आज भारत के एक प्रतिशत अमीरों के पास देश की सत्तर प्रतिशत संपत्ति है.
यह भयावह आंकड़ा उस विषमता का है, जिसने हमारे सारे समाज को एक खतरनाक असंतुलन की स्थिति में ला दिया है. यह विषय आर्थिक समाचारपत्रों अथवा आर्थिक समाचार चैनलों का नहीं है, इसका सीधा रिश्ता आम भारतीयों की जिंदगी से है. इसलिए यह मुद्दा बेहद महत्वपूर्ण है. लेकिन, विडंबना यह है कि आज हम ऐसी आभासी दुनिया में जीने लगे हैं, जिसमें फैशन परेड का कार्यक्रम हर बीस मिनट पर एक किसान द्वारा आत्महत्या करने के समाचार से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होता है!
मुद्दे उठाने का मतलब है- एक जन-चेनता का निर्माण करना. स्थितियों को बदलने के लिए मानसिकता बदलने की जमीन तैयार करना. पर, दुर्भाग्य से, मीडिया यह काम नहीं कर रहा. राजनीतिक दलों का भी कर्त्तव्य बनता है इस दिशा में काम करने का, पर उनकी सत्ता की राजनीति के कार्यक्रम में यह बात कहीं ‘फिट’ नहीं होती. राजनीतिक दल सत्ता की राजनीति से ऊपर नहीं उठ पा रहे और मीडिया खबरें बेचने को ही अपना उद्देश्य मान बैठा है.
इसी का परिणाम है कि सही मुद्दे दरकिनार हो रहे हैं. एक जमाना था, जब संसद में ‘तीन आने बनाम तेरह आने’ की बहस हुआ करती थी. अब तो संसद में नारेबाजी होती है. संसद हो या सड़क, आर्थिक विषमता हमारी राजनीति का मुद्दा नहीं बनती. गरीब का लगातार और गरीब होते जाना और अमीर का और अमीर बनते जाना, कभी-कभी नेताओं के भाषणों में सुनाई तो देता है, पर उनका उद्देश्य इस स्थिति को बदलने की दिशा में कुछ करना नहीं होता, उद्देश्य होता है अपने विपक्षी को नीचा दिखाना. बस, और कुछ नहीं. इसीलिए कोई राजनीतिक दल किसी रघुराम राजन की चेतावनी को समझने की आवश्यकता महसूस नहीं करता.
हमारे सरकारी बैंकों में ढाई लाख करोड़ रुपये बट्टे खाते में डाल दिये गये हैं. यह इतनी बड़ी राशि गरीब किसानों को दिये गये ऋणों की नहीं है, यह धन्ना सेठों द्वारा बैंकों से लिया गया ऋण है, जो वे चुकाना ही नहीं चाहते. यह घाटा बड़े घोटालों में हुए नुकसान से कहीं बड़ा है.
रेटिंग एजेंसी ‘इक्रा’ के अनुसार, इस साल और 75 हजार करोड़ रुपये बट्टे खाते में डाल दिये जायेंगे. क्यों नहीं बनता यह मुद्दा हमारे मीडिया की बहस का? क्यों नहीं उठता हमारी संसद में यह सवाल? क्यों हम आंदोलित नहीं होते ऐसे मुद्दों पर? हर 35 मिनट में एक किसान देश में आत्महत्या कर रहा है, क्यों मीडिया में इस पर बहस नहीं होती?
क्यों मंदिर-मसजिद की बातें ही हमें आंदोलित करती हैं? क्यों हम शिक्षा के गिरते स्तर से चिंतित नहीं होते? ये सवाल हमारी चिंता का विषय होने चाहिए. मीडिया, राजनीति और जनता को असली मुद्दों को पहचानना होगा, और उनसे जुड़ी समस्याओं का समाधान तलाशना होगा. इसके लिए उन सब तत्वों को कठघरे में खड़ा करना जरूरी है जो अपने स्थार्थों के लिए जनमानस को बरगलाने-भरमाने की कोशिश में लगे रहते हैं.

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