एक आंतरिक धर्म के अनुयायी
।। एमजे अकबर।। (वरिष्ठ पत्रकार) अगर भारत में 100 लोगों में केवल एक समलैंगिक है, तो उस एक व्यक्ति के भी अधिकार हैं. समलैंगिकता किसी विषमलिंगी के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करती, तो इसे गैर-कानूनी क्यों होना चाहिए? न ही, यह प्रासंगिक है कि भारतीय दंड संहिता के तहत वास्तविक अभियोजन बेहद कम हैं. आखिर, […]
।। एमजे अकबर।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
अगर भारत में 100 लोगों में केवल एक समलैंगिक है, तो उस एक व्यक्ति के भी अधिकार हैं. समलैंगिकता किसी विषमलिंगी के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करती, तो इसे गैर-कानूनी क्यों होना चाहिए? न ही, यह प्रासंगिक है कि भारतीय दंड संहिता के तहत वास्तविक अभियोजन बेहद कम हैं. आखिर, किसी एक को भी आरोप क्यों ङोलने चाहिए? इन अधिकारों में कुछ भी ‘पश्चिमी’ या ‘पूर्वी’ नहीं है.
अगर आपने हेनरी ग्लैपथॉर्न का नाम नहीं सुना है, तो कोई खास बात नहीं है. आखिर, वह करीब साढ़े तीन सदी पूर्व का एक नाटककार ही तो था. और, फिर वह कोई शेक्सपीयर भी नहीं था. हालांकि, उसके नाटक ‘रिवेंज फॉर ऑनर’ की एक पंक्ति सचमुच ही अविनाशी हो गयी है- ‘कानून सचमुच गधा है.’ यह विचार (कि कई मौकों पर कानून मूर्खतापूर्ण होता है) पिछले वर्षों में इतनी बार दोहराया गया है कि कोई भी सोच सकता था कि मौजूदा न्यायाधीश, खास कर वे जो शीर्षस्थ हैं, किसी गलत कानून के मामले में बेहतर सोच सकते हैं और सड़े निजाम को सुधार कर, जनता के बड़े हिस्से की अच्छाई देख सकते हैं. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 पर अपने फैसले के दौरान सूक्ष्म निदर्शन (ऑबिटर डिक्टा) में प्रगति के बदले प्रतिगामी होना चुना है, जिसमें समलैंगिकता को अपराध ठहराया गया है. यह कानून ब्रिटिश राज में 1861 में बना था और अंगरेजों के जाने के दशकों बाद तक बना हुआ था.
पाखंड कोई अंगरेजों की विरासत नहीं, बस प्रबल अभिवृत्तियों (एटीट्यूड) का लक्षण है. वे कैसे चढ़ते और उतरते हैं, वह दूसरी कहानी है, पर नैतिकता के ये चक्र चलते रहते हैं. 19 वीं शताब्दी के विक्टोरिया युगीन समय में ब्रिटिश मानस खासतौर पर सामाजिक व्यसनों के प्रति असह्य हो गया. हम चकित से सोचते हैं कि क्या यह किसी समांतर विकास का परिणाम था? आखिर, अंगरेजी संभ्रांत वर्ग का विकास निजी बोर्डिंग स्कूलों (केवल बालकों) के माध्यम से हुआ, जहां समलैंगिकता प्रचुर थी और सहमति आवश्यक नहीं थी. हालांकि, विक्टोरियाई नैतिकता इतनी शक्तिशाली थी कि इसने समलैंगिकता पर ब्रिटिश कानून को पिछले दशक तक नियंत्रित किया है. उन्नीसवीं शताब्दी वह काल भी थी, जब ब्रिटिश साम्राज्य महान बनने की दिशा में अग्रसर हुआ. नये मालिकों ने ऐसे सामाजिक कानूनों को अपने उपनिवेशों तक भी फैलाया और जाहिर तौर पर उनके मुकुट का माणिक्य भारत तो खास तौर पर गोरे प्रभुओं की कृपादृष्टि पाता ही. इस्ट इंडिया कंपनी भारत के बारे में इतना जानती थी कि वह भारतीय समाज में हस्तक्षेप सीमित तौर पर करती थी. इसके कुछ गवर्नर-जनरल ने हिंदुओं और मुसलमानों के सामाजिक कानूनों को बदलने की कोशिश की, कंपनी को इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ा, यहां तक कि 1857 का विद्रोह भी ङोलना पड़ा. हालांकि, कंपनी का लंगर 1857 में एक बार उखड़ने के बाद ही भारत ब्रिटिश ताज के सीधे शासन के अंतर्गत आ गया. लंदन के नैतिकतावादियों ने उनके अच्छे और बुरे का प्रारूप उन सभ्यताओं पर भी थोपना शुरू कर दिया, जो कहीं अधिक परिष्कृत थीं.
मुगलों ने भी समलैंगिकता के बारे में अनुकूल धारणा ही रखी. आखिर, वह ऐसा कैसे नहीं करते? मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर ने अपने रोजनामचों में एक युवा आदमी के लिए अपने प्यार का उत्कृष्ट वर्णन किया है. मुगल अभिवृत्ति भी आम भारतीय की तरह व्यावहारिक थी. मेरे हिसाब से इस मसले की बेहतरीन समझ मनोविेषण के पिता सिग्मंड फ्रायड ने 1935 में लिखे एक पत्र में दिखायी है- ‘समलैंगिकता कोई फायदा या बढ़त नहीं है, पर यह पाप या बीमारी भी नहीं है और इसमें शर्मिदा होने लायक भी कुछ नहीं है.’ फ्रायड ने कहा कि समलैंगिकता को अपराध की तरह दर्ज करना क्रूरता और अन्याय है.
दुखद रूप से सुप्रीम कोर्ट ने अन्याय को अधिकार देकर अपनी विश्वसनीयता कमजोर की है. दिल्ली हाइकोर्ट ने एक पुरानी गलती को सुधारने का ऐतिहासिक मौका बनाया था. अगले 150 वर्षों के लिए एक आदर्श, एक कसौटी रचने की जगह सुप्रीम कोर्ट ने पिछले 150 वर्षों के संदिग्ध तर्क को फिर से प्रतिष्ठित कर दिया. एक बहाना यह दिया गया कि बदलाव तो विधायिका की जिम्मेवारी है, पर यह केवल एक बहाना है. दिल्ली हाइकोर्ट (जो सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की अगली पीढ़ी में जाहिर तौर पर योगदान देगा) ने यह नहीं सोचा कि यह फैसला उसके दायरे के बाहर था.
भारत में आजादी एक आधारभूत व अ-हस्तांतरणीय अधिकार है. आजादी के कोई मायने नहीं, यदि यह उन्हीं को हासिल हो, जो आपसे सहमत हैं. कानून तभी मानवाधिकारों का संरक्षक बन सकता है, जब वह दूसरों के लिए जगह बनाये. सुप्रीम कोर्ट के फैसले में दिये गये कुछ तर्क संदेहास्पद हैं. यह मायने नहीं रखता, अगर भारत में 100 लोगों में केवल एक समलैंगिक है. उस एक व्यक्ति के भी अधिकार हैं, जब तक वे दमनकारी या आक्रमणकारी साबित न हों. समलैंगिकता किसी विषमलिंगी के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करती, तो इसे गैर-कानूनी क्यों होना चाहिए? न ही, यह प्रासंगिक है कि आइपीसी के तहत वास्तविक अभियोजन बेहद कम हैं. आखिर, किसी एक को भी आरोप क्यों ङोलने चाहिए? इन अधिकारों में कुछ भी ‘पश्चिमी’ या ‘पूर्वी’ नहीं है. सबरीमाला के भगवान अयप्पा, जो शिव और विष्णु के संयोग से जन्मे थे, अटलांटिक सागर से तो नहीं ही आये थे.
क्या सुधार के लिए बहुत देर हो चुकी है? न्यायालयों में भी मानव ही होते हैं, देवता नहीं. गलती करना मानवीय है. शायद, आजादी के महान सिद्धांतकारों में एक, रॉबेसपियरे का कथन हमें राह दिखा सके, ‘कोई भी कानून जो मानव के अ-विक्रेय अधिकारों का हनन करता है, वह अन्यायपूर्ण और अत्याचारी है. वह किसी भी हाल में कानून तो नहीं ही है.’ (अनुवाद : व्यालोक)