आत्मावलोकन का दिन

भारत की कहानी बार-बार कही और सुनी जाती है. जो कहता और सुनता है, वह इसे अपने विचारों के अनुरूप थोड़ा बदल देता है. लेकिन, बहुत मुश्किल है हिंदनामा नाम की कोई मुकम्मल पोथी तैयार करना. इसलिए नहीं कि हिंदनामा लिखने के जतन हुए नहीं या लिखनेवालों में कूवत नहीं थी, बल्कि इसलिए कि एक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 26, 2016 6:17 AM
भारत की कहानी बार-बार कही और सुनी जाती है. जो कहता और सुनता है, वह इसे अपने विचारों के अनुरूप थोड़ा बदल देता है. लेकिन, बहुत मुश्किल है हिंदनामा नाम की कोई मुकम्मल पोथी तैयार करना.
इसलिए नहीं कि हिंदनामा लिखने के जतन हुए नहीं या लिखनेवालों में कूवत नहीं थी, बल्कि इसलिए कि एक बंधी हुई किताब में ढलने का स्वभाव राष्ट्रों का होता है, महादेशों का नहीं. भारत तो राष्ट्र रूप में एक महादेश सरीखा है. विपुलता, वैविध्य, बहुरंगा की विरासत लिये. कवि ने चमत्कारिक उक्ति गढ़ने के लिए नहीं, बल्कि सच के एक बयान के रूप में दर्ज किया था बहुत पहले कि- ‘हमारा देश भारत है, नदी गोदावरी गंगा, लिखा भूगोल पर युग ने, हमारा चित्र बहुरंगा!’ हमारा यह बहुरंगापन ही हमें एक बंधी हुई किताब में बंधने से रोकता है.
इसलिए, इस देश ने जब अपने को एक संविधान दिया, अपने वैविध्य को संविधान की हदों में बांधा, तो उसमें संशोधन की प्रक्रियाओं को भी सन्निहित किया. सपनों और संकल्पों की उस पवित्र पोथी में भारत के संप्रभु राष्ट्र होने की घोषणा के साथ-साथ यह वादा भी दर्ज है कि भारतभूमि का हृदय हमेशा उदारताओं से भरा रहेगा, इतिहास की दी हुई किसी भी संकुचित पहचान के दायरे से निकल कर भारत का नागरिक एक इनसान के रूप में पहचाना जायेगा और इंसानियत के तकाजे से ही आगे की जिंदगी के लिए रिश्ता कायम करेगा. 26 जनवरी का दिन भारतीय संविधान के भीतर दर्ज इंसानियत के उस तकाजे को टोहने-टटोलने और उस पर अपने आप को परखने का दिन है.
संविधान की प्रस्तावना न सिर्फ उसके आदर्शों और आकांक्षाओं का संक्षिप्त रूप है, बल्कि राष्ट्र निर्माताओं के सपनाें का सार भी है. यह घोषणा करती है कि ‘हम भारत के लोग’ भारतीय राजव्यवस्था का मूल आधार हैं.
इसमें भारतीय गणराज्य को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष एवं लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने का वादा है. यह शब्दावली न केवल भारत के चरित्र को परिभाषित करती है, बल्कि उसके अंतिम जन की इच्छा का प्रतिनिधित्व भी करती है.
गणतंत्र दिवस एक अवसर है, जब हम आरोप-प्रत्यारोपों से ऊपर उठ कर आत्मावलोकन करें कि पिछले 66 वर्षों के सफर में हमारा देश संविधान में किये वादे पर कितना खरा उतरा है और एक नागरिक के रूप में हमने इसमें कितना योगदान दिया है.
यह दिवस जरा ठहर कर सोचने का मौका दे रहा है कि क्या इन वर्षों में हमारा देश अपने नागरिकों को समान रूप से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय दिलाने में सफल रहा है, या राष्ट्र-राज्य की व्यवस्थाओं तक अलग-अलग वर्गों-समुदायों की पहुंच अलग-अलग है? क्या हम देश के हर नागरिक की विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता का सम्मान करते हैं, या अपने विचारों, मान्यताओं, खान-पान, रहन-सहन को दूसरों पर भी थोपने पर आमादा हैं? क्या हमारे यहां सभी नागरिकों के लिए प्रतिष्ठा और अवसर की समता है, या समर्थ नागरिकों को अधिक सुविधाएं मिल रही हैं?
क्या नागरिकों में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता तथा अखंडता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने की दिशा में हमने कुछ मील के पत्थर तय किये हैं, या सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं आज भी गणतंत्र के अस्तित्व को चुनौती दे रही हैं और कुछ समुदायों को उपेक्षित रखने तथा समाज को विभाजित करनेवाली लकीरों को बनाये रखने में ही कुछ लोगों और संगठनों को अपना हित दिख रहा है? इसमें एक सवाल राष्ट्र के संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न गणराज्य होने से भी जुड़ा होगा. यह भी गौर करते रहना चाहिए कि भारत अपने आंतरिक और वाह्य फैसले लेने में पूर्ण स्वतंत्र है या कोई अन्य सत्ता इसे अपना आदेश मानने के लिए विवश कर सकती है?
ये ऐसे सवाल हैं, जिन पर खरा उतर कर ही भारत अपने नागरिकों से किये वादों को पूरा कर सकता है, उनके सपनों को साकार कर सकता है. गौर करें तो गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, पलायन, सांप्रदायिकता आदि जैसी कई गंभीर चुनौतियां संविधान में किये वादों पर अमल की राह रोकती रही हैं.
जिस दिन हमारा देश इन चुनौतियों पर विजय पा लेगा, अपने विराट मानव संसाधन के दम पर सचमुच ‘सारे जहां से अच्छा’ माना जायेगा. इसलिए सोचना जरूरी है कि देश को इन चुनौतियों से पार ले जाने में क्या हम अपनी तरफ से कोई योगदान दे रहे हैं या देने के लिए तैयार हैं? सोचना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि भारत नाम की कश्ती को तूफान से निकाल कर लानेवालों ने हमसे इसे बचा कर रखने का भी आह्वान किया था.

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