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राष्ट्रपति का आह्वान

गहन-गंभीर भावों का पहला और आखिरी ठौर और कहां हो सकता है, कविता के सिवाय? और ये भाव अगर राष्ट्र के सर्वोच्च आसन पर बैठे, जन-गण के अभिभावक हृदय में उठें, तो उन भावों का भार और किस कवि की पंक्ति उठा सकती है, सिवाय उस कवीन्द्र रबीन्द्र के जिन्होंने इस देश को उसका गान […]

गहन-गंभीर भावों का पहला और आखिरी ठौर और कहां हो सकता है, कविता के सिवाय? और ये भाव अगर राष्ट्र के सर्वोच्च आसन पर बैठे, जन-गण के अभिभावक हृदय में उठें, तो उन भावों का भार और किस कवि की पंक्ति उठा सकती है, सिवाय उस कवीन्द्र रबीन्द्र के जिन्होंने इस देश को उसका गान ‘जन-गण-मन’ दिया है! इस बार गणतंत्र दिवस पर यही हुआ.
अखंड भारत के आगे खुलते विराट भविष्य को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कवीन्द्र रबीन्द्र की पंक्तियों के भीतर से पुकारा- ‘चोलाय चोलाय बाजबे जायेर भेरी… आगे बढ़ो, नगाड़ों का स्वर तुम्हारे विजयी प्रयाण की घोषणा करता है, शान के साथ कदमों से अपना पथ बनाओ; देर मत करो, देर मत करो, एक नया युग आरंभ हो रहा है.’ युग की संधिवेला में युगपुरुष संकल्प भरे शब्दों के साथ अपने समय को आवाज देते हैं.
भारत के नव-निर्माण के ही अर्थ में कहा था कभी विवेकानंद ने- ‘उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक लक्ष्य को हासिल ना कर लो.’ जिन्हें 19वीं सदी से आज तक की भारत की नव-निर्माण की कथा याद है, वे परख सकते हैं कि रबीन्द्र की ‘चोलाय चोलाय बाजबे जायेर भेरी’ में विवेकानंद के ‘उतिष्ठत्, जाग्रत…’ की गूंज है. राष्ट्रपति के हृदय के भावों ने अपनी अभिव्यक्ति के लिए टैगोर की इन पंक्तियों को यों ही नहीं चुना. निश्चय ही इस चुनाव में एक गहरा आशय था. उस आशय को परख कर ही राष्ट्रपति के राष्ट्र के नाम संदेश के संभावनाशील अर्थ तक पहुंचा जा सकता है.
भारत को बोलचाल में ‘यंगिस्तान’ भी कहते हैं. नीतिगत दस्तावेजों में यह यंगिस्तान ‘डेमोग्राफिक डिविडेंड’ के रूप में आता है. कहा जाता है कि भारत की आधी से ज्यादा आबादी युवा है. ऐसे समय में, जब ज्यादातर विकसित अर्थव्यवस्थाओं में श्रमबल अपना सारा जोर दिखा कर बुढ़ापे की तरफ अग्रसर है, भारत में नौजवानों का बड़ी तादाद में होना भारतीय अर्थव्यवस्था के भीतर समृद्धि के नये सूरज के आसमान में चढ़ने सरीखा है.
हाल के दिनों में विश्वभर के नेतागण कहने लगे हैं कि मंदी की मार से दुनिया को भारत का बाजार ही उबार सकता है और भारत के भीतर नेतागण यह कहते सुने जाते हैं कि अपनी युवा और हुनरमंद आबादी के हाथों भारत की उठान मारती अर्थव्यवस्था इस देश को महाशक्तियों में एक बनाने की तरफ अग्रसर है.
‘यंगिस्तान’ या फिर ‘उठान लेती अर्थव्यवस्था’ जैसे मुहावरों से कमोबेश यही भाव झांकता है कि एक संभावनाशील भविष्य भारत के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है. जब सफर के लिए एक नयी राह खुल रही है, तो इस पर तेज रफ्तार से कदम बढ़ाने से पहले क्षण भर ठिठक कर सोचना चाहिए कि हमारी ताकत और समृद्धि का औचित्य क्या है, उसके भीतर विवेक और नैतिकता की आंच कितनी है.
राष्ट्रपति के संदेश में विज्ञान और प्रौद्योगिकी से भरे-पूरे नवयुग की पुकार पर प्रयाण का घोष तो है ही, साथ ही यह प्रश्न भी बंधा है कि हमारी गति की दिशा और प्रेरणा क्या हो. यह सवाल रबीन्द्रनाथ टैगोर के सामने भी था, यह प्रश्न विवेकानंद का भी है और 21वीं सदी के इन शुरुआती दशकों में राष्ट्रपति ने फिर से देश के आगे नैतिकता का वही प्रश्न खड़ा किया है.
राष्ट्रपति ने देश की सामूहिक चेतना को एक अभिभावकीय स्वर में टोका है कि ‘विवेकपूर्ण चेतना और हमारे नैतिक जगत का प्रमुख उद्देश्य शांति है. यह सभ्यता की बुनियाद और आर्थिक प्रगति की जरूरत है. परंतु हम कभी भी यह छोटा सा सवाल नहीं पूछ पाये हैं : शांति प्राप्त करना इतना दूर क्यों है? टकराव को समाप्त कर शांति स्थापित करना इतना कठिन क्यों रहा है?’
राष्ट्रपति ने जहां हमें यह प्रश्न स्वयं से पूछने के लिए प्रेरित किया है, वहीं अपनी तरफ से समाधान का भी संकेत किया कि जहां एक तरफ ‘विधि-निर्माताओं के लिए सामंजस्य, सहयोग और सर्वसम्मति बनाने की भावना के साथ निर्णय लेना जरूरी है’, वहीं ‘लोकतंत्र की संस्थाएं, सभी नागरिकों के लिए न्याय, समानता तथा लैंगिक और आर्थिक समता सुनिश्चित करनेवाली हमारी राष्ट्रीयता को चोट पहुंचानेवाली हिंसा की घटनाओं पर रोक लगाना भी जरूरी है’.
राष्ट्रपति ने सचेत किया है कि ‘हमें हिंसा, असहिष्णुता और अविवेकपूर्ण ताकतों से स्वयं की रक्षा करनी होगी.’ उन्होंने हिंसा और अविवेक के प्रकट रूपों- जैसे असहिष्णुता और आतंकवाद- की पहचान की, तो उसके संरचनागत रूप- यानी पर्यावरणीय प्रदूषण और वैश्विक तापमान- को भी लक्ष्य किया. साथ ही, हिंसा और अविवेक के प्रकट-अप्रकट रूपों के प्रतिकार के लिए एक नये रचनाशील मनुष्य को गढ़ने पर बल दिया और इसी कारण उनके संदेश का जोर शिक्षा पर था, क्योंकि शिक्षा ही ‘अपने ज्ञानवर्धक प्रभाव से मानव प्रगति और समृद्धि पैदा करती है.
यह भावनात्मक शक्तियां विकसित करने में सहायता करती है, जिससे सोयी हुईं उम्मीदें और भुला दिये गये मूल्य दोबारा जाग्रत हो जाते हैं.’ आशा की जानी चाहिए कि राष्ट्रपति का यह संदेश हमारे भीतर सोये मूल्यों को जगा कर हमें विवेक और प्रेम के रास्ते पर भारत का नवनिर्माण करने के लिए प्रेरित करेगा.

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