मजबूरी का नाम महात्मा गांधी!

डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार हिंदुस्तानियों पर गांधीजी का इतना ज्यादा प्रभाव रहा कि वे उनकी मजबूरी बन गये. यहां तक कि मजबूरी का नाम ही महात्मा गांधी हो गया. जीवित थे तो कुछ लोगों को उन्हें मारने पर मजबूर होना पड़ा, मर गये, तो जिलाये रखने पर मजबूर हैं. क्योंकि, जब हम विदेश जाते […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 30, 2016 6:31 AM

डॉ सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

हिंदुस्तानियों पर गांधीजी का इतना ज्यादा प्रभाव रहा कि वे उनकी मजबूरी बन गये. यहां तक कि मजबूरी का नाम ही महात्मा गांधी हो गया. जीवित थे तो कुछ लोगों को उन्हें मारने पर मजबूर होना पड़ा, मर गये, तो जिलाये रखने पर मजबूर हैं. क्योंकि, जब हम विदेश जाते हैं, तो वहां लोग या तो गांधी को जानते हैं या राज कपूर को. लिहाजा घर में सावरकर या गोडसे का नाम लेनेवालों के लिए भी बाहर गांधी का ही नाम लेना मजबूरी है. गांधी के बिना विश्वसनीयता जो नहीं बनती.

यह अलग बात है कि मंदिर में किसी दलित के चले जाने पर गंगाजल द्वारा उसके शुद्धिकरण की तरह, वे बाहर जब-जब गांधी का नाम लेते हैं या उनकी प्रतिमा पर फूल-माला वगैरह चढ़ाते हैं, पापशोधन के लिए तब-तब यहां देश में गोडसे का मंदिर बनवाने जैसी बातें शुरू करवा देते हैं. संतुलन हो जाता है. गुरु की तरह नहीं कि पाकिस्तान में जिन्ना की जय बोल आये और यहां बैलेंसिंग की कार्रवाई नहीं करवायी, तो उसका खमियाजा आज तक भुगत रहे हैं. खमियाजा वैसे अंगड़ाई को कहते हैं, जो अंगों को तान कर ली जाती है.

आगे चल कर शिकंजे में कस कर अंगों को तानने की सजा और बाद में कोई भी सजा खमियाजा कही जाने लगी. खमियाजे से बचने के लिए बैलेंसिंग जरूरी है, फिर चाहे व्यवसाय हो या राजनीति. वैसे भी, अब ये दोनों एक-दूसरे में गड्डमड्ड हो गये हैं, खास कर राजनीति अपने आप में एक बहुत बड़ा व्यवसाय हो गया है. व्यवसायी राजनेताओं पर इन्वेस्ट करते हैं और सफल होने पर प्रॉफिट की फसल काटते हैं. नतीजतन महंगाई कम करने के वादे पर चुनाव जीत कर आया नेता भी महंगाई बढ़ने देता है.

कांग्रेसियों के लिए तो गांधीजी स्थायी मजबूरी ठहरे. आखिर उन्हीं के कंधों पर लद कर वे सत्ता के गलियारों में जाते रहे हैं. सत्ता से बाहर रहने पर स्वभावत: वे उन्हें ज्यादा याद आते हैं. सत्ता में रहते हुए तो वे उन्हें मुश्किल से दो दिन- दो अक्तूबर और तीस जनवरी को ही याद आ पाते हैं.

इससे ज्यादा तो खादी पर छूट की बदौलत खादी-प्रेमी उन्हें याद करते हैं- दो अक्तूबर से लेकर तीस जनवरी तक की पूरी अवधि के दौरान. जनसाधारण तो खैर, उन्हें हर पल याद करने को मजबूर है. सरकारी दफ्तरों में काम निकलवाने के लिए गांधी छाप नोट जो चढ़ाने पड़ते हैं उन्हें दफ्तर के देवताओं पर. अब तो गांधीगीरी का मतलब ही घूसखोरी हो गया है सरकारी कर्मचारियों के संदर्भ में.

दिल्ली में जब केजरीवाल की पहली सरकार बनी थी और उन्होंने रिश्वतखोरी के खिलाफ जनता का आह्वान यह कह कर किया था कि कोई कर्मचारी घूस मांगे तो मना मत करना. वहीं घूसखोर कर्मचारी नियमों का उल्लंघन कर बैठनेवाले नागरिक से इशारों-इशारों में पूछते थे- गांधी या केजरी?

गांधी मतलब घूस और केजरी मतलब चालान. केजरी को वोट दे चुके आम नागरिक की आस्था तब भी गांधीजी पर से नहीं डिगी. वक्त के साथ केजरी ने खुद गांधी और गांधीवादियों को इज्जत देनी शुरू कर दी.

नेता गांधीजी के ऐसे बंदर हैं, जिन्होंने बुरा न देखना, बुरा न सुनना और बुरा न करना तो छोड़ ही दिया है, बुरा करने और लगे हैं. अलबत्ता गांधी जी को न छोड़ पाना उनकी मजबूरी है, और मजबूरी का नाम तो सबको पता ही है कि महात्मा गांधी है.

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