‘मेक इन इंडिया’ के आर-पार

अनिल रघुराज संपादक, अर्थकाम.कॉम अतुल्य भारत और ‘मेक इन इंडिया’ का समान तत्व यह है कि दोनों की अवधारणा और अमल के पीछे केरल कैडर के 1980 के बैच के आइएएस अफसर अमिताभ कांत रहे हैं, जो अभी वाणिज्य मंत्रालय में औद्योगिक नीति व संवर्धन विभाग के सचिव हैं. प्रधानमंत्री मोदी को कांत बड़े अच्छे […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 30, 2016 6:33 AM
अनिल रघुराज
संपादक, अर्थकाम.कॉम
अतुल्य भारत और ‘मेक इन इंडिया’ का समान तत्व यह है कि दोनों की अवधारणा और अमल के पीछे केरल कैडर के 1980 के बैच के आइएएस अफसर अमिताभ कांत रहे हैं, जो अभी वाणिज्य मंत्रालय में औद्योगिक नीति व संवर्धन विभाग के सचिव हैं. प्रधानमंत्री मोदी को कांत बड़े अच्छे लगते हैं. यही वजह है कि अगले महीने रिटायर होने से पहले ही उन्हें एडवांस में नीति आयोग का सीइओ बना दिया गया है. विज्ञापनों की दुनिया में भी कांत की बड़ी कांति है. उनके ब्रांडिंग कौशल की दाद एड गुरु पीयूष पांडेय तक देते हैं.
इस बीच ‘मेक इन इंडिया’ की बढ़ती चमक-दमक को समर्पित पूरा एक सप्ताह मुंबई में 13 से 18 फरवरी तक मनाया जाना है. इसमें भारत के मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की संभावनाओं को दिखाया जायेगा और बताया जायेगा कि यह क्षेत्र अगले एक दशक में कहां तक जा सकता है. कांत इसकी कामयाबी के लिए जगह-जगह सभा-सम्मेलन कर रहे हैं.
इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र का योगदान 18.5 प्रतिशत है. मेक इन इंडिया का लक्ष्य भारतीय अर्थव्यवस्था या जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र के योगदान को अगले कुछ सालों में 30 प्रतिशत पर पहुंचाना है. प्रधानमंत्री मोदी ने जब मेक इन इंडिया की घोषणा की थी, तब उन्होंने दुनिया भर के निवेशकों का आवाहन किया था- आइए, भारत में निवेश कीजिए, विदेश में निर्यात कीजिए और भारत में रोजगार के अवसर पैदा कीजिए. इसके बाद प्रधानमंत्री जापान, चीन व यूरोप के कई देशों से लेकर अमेरिका तक जहां-जहां गये, वहां-वहां उन्होंने उद्योगपतियों को भारत में निवेश का न्यौता दिया.
कांत का कहना है कि प्रधानमंत्री की पहल का ही असर है कि जिस दौरान सारी दुनिया में बाहरी निवेश 16 प्रतिशत घटा, तब दिसंबर 2015 तक के 15 महीनों में भारत में आया प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 31 प्रतिशत बढ़ कर 62.6 अरब डॉलर पर पहुंच गया. यह रकम इस दौरान देश में आये 14.3 अरब डॉलर के शुद्ध विदेशी पोर्टफोलियो निवेश से भी ज्यादा है.
मतलब, अधिकांश विदेशी निवेशक तुरत-फुरत कमाई नहीं, बल्कि लंबे समय के लिए भारत में उद्योग-धंधे लगाने की नीयत से आ रहे हैं. लेकिन निष्पक्ष आकलन के लिए हमें इन आंकड़ों और प्रचार की चमक से पीछे झांकने की जरूरत है. सवाल है कि क्या दुनिया में भारतीय माल के लिए सचमुच जगह बची है? इस पर रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने कहा था कि हमें ‘मेक इन इंडिया’ नहीं, बल्कि ‘मेक फॉर इंडिया’ की पहल करनी चाहिए, क्योंकि अमेरिका से लेकर यूरोप तक में आर्थिक सुस्ती है और निर्यात की गुंजाइश काफी घट गयी है.
हकीकत में यही हुआ है. भारत का निर्यात लगातार तेरह महीनों से घटता जा रहा है. वह भी तब, जब इस दौरान रुपया डॉलर के मुकाबले 29 महीनों के न्यूनतम स्तर पर आ चुका है.
इससे भारतीय माल के दाम विदेशी बाजार में डॉलर में घट गये हैं. फिर भी हमारा निर्यात नहीं बढ़ रहा, तो इससे ‘मेक इन इंडिया’ की मूल अवधारणा पर सवाल उठ जाते हैं. जानकार कहते हैं कि दुनिया में पहले से ही उद्योंगों ने ज्यादा क्षमता लगा रखी है और मांग कम होने से जिसका पूरा इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है. ऐसे में कोई भी उद्योगपति अतिरिक्त क्षमता का सृजन क्यों करेगा?
आज हम चीन की मैन्युफैक्चरिंग सफलता की नकल नहीं कर सकते. एक तो दुनिया की मैन्युफैक्चरिंग का लगभग एक चौथाई हिस्सा चीन के पास है. दूसरे, जिस तरह चीन अब अपने विशाल घरेलू बाजार की तरफ देख रहा है, उसी तरह भारत को भी देश के भीतर की विशाल संभावनाओं व बाजार को देखना चाहिए. चीन से हमें यह सीखना चाहिए कि वह भारत से कम कृषि भूमि और औसत जोत का आकार होने के बावजूद भारत से दोगुने से ज्यादा खाद्यान्न उत्पादन कैसे करता है?
जो भी विदेशी निवेश ‘मेक इन इंडिया’ के अंतर्गत भारत का रुख कर रहे हैं, उनकी नजर में यहां का विशाल बाजार चढ़ा हुआ है. हाल-फिलहाल तो ‘मेक इन इंडिया’ का दायरा रक्षा क्षेत्र तक सिमट गया लगता है. इसमें भी घरेलू कंपनियां विदेशी कंपनियों को तरजीह देने से थोड़ी नाराज चल रही हैं. कोका कोला भारत में अपने वियो ब्रांड का दूध आधारित पेय बेचने जा रही है. सवाल है कि क्या ‘मेक इन इंडिया’ में कोला कोला को विदेशी पूंजी लाने के कारण वरीयता दी जायेगी और अमूल को स्वदेशी होने के नाते अपने हाल पर छोड़ दिया जायेगा?
सोचना जरूरी है, क्योंकि आज स्वदेशी अवधारणाके मूल चिंतक गांधीजी की पुण्यतिथि है. क्या ‘मेक इन इंडिया’ को ऊपर के बजाय नीचे से बनाया जाना चाहिए और शुरुआत रक्षा से नहीं, बल्कि कृषि आधारित लघु व कुटीर उद्योगों से की जानी चाहिए? बापू! तुम्हारी क्या राय है?

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