असहिष्णुता का तिल-तंडुल न्याय
बुद्धिनाथ मिश्रा वरिष्ठ साहित्यकार तमाम आशंकाओं से घिरा हुआ हमारे देश का 67वां गणतंत्र दिवस शत्रुओं को अंगूठा दिखाते हुए शांतिपूर्वक गुजर गया. दिल्ली के राजपथ पर तो कोहरा छाया था ही, राज्यों की राजधानियां भी सुरक्षा को लेकर कम चिंतित नहीं थीं. आतंकवादियों की चुनौतियों के बावजूद अगर कहीं कोई अप्रिय घटना नहीं हुई, […]
बुद्धिनाथ मिश्रा
वरिष्ठ साहित्यकार
तमाम आशंकाओं से घिरा हुआ हमारे देश का 67वां गणतंत्र दिवस शत्रुओं को अंगूठा दिखाते हुए शांतिपूर्वक गुजर गया. दिल्ली के राजपथ पर तो कोहरा छाया था ही, राज्यों की राजधानियां भी सुरक्षा को लेकर कम चिंतित नहीं थीं. आतंकवादियों की चुनौतियों के बावजूद अगर कहीं कोई अप्रिय घटना नहीं हुई, तो इसका श्रेय सरकार की सभी एजेंसियों के सम्मिलित प्रयास को देना है ही, आम जनता की राष्ट्रभक्ति को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.
यह तब और जरूरी हो जाता है, जब हमें अपने जूते में कंकड़ गड़ने का एहसास होने लगा है. सड़क पर कंकड़ हो, तो जूते के सहारे उस पर चला जा सकता है, मगर जब कंकड़ जूते में घुस जाये, तो अच्छी सड़क पर चलना भी मुश्किल होता है. संविधान निर्मातागण प्रायः सभी स्वतंत्रता सेनानी थे. आजादी हासिल करने के लिए कितनी कुर्बानी देनी होती है, इसे वे दे भी चुके थे और देख भी चुके थे. महात्मा गांधी भी उनमें से एक थे, जिनकी आज ही के दिन शहादत हुई थी.
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बहुत-से विचारों से असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन उनके राष्ट्रीय योगदान को आप नकार नहीं सकते हैं. उन्होंने किस आत्मिक बल से पूरे देश को संवारा था, इस पर भी नजर जानी ही चाहिए. राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी से लेकर राष्ट्रकवि दिनकर और गीतकार बच्चन ने उस ‘सूत की माला’ का गुणगान किया था. वे सभी कवि स्वतंत्रता संग्राम के द्रष्टा भी थे और स्वप्नद्रष्टा भी. आज के लिटरेचर फेस्ट वाले साहित्यकार नहीं थे कि सृजन के नाम पर सत्ता को गरियाना ही जानते थे.
आज के माहौल में प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी जो काम कर रहे हैं, उसकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की जानी चाहिए, बिना यह सोचे कि उनकी सरकार से मुझे क्या मिल रहा है. देना-पावना व्यापार में होता है, साहित्य में नहीं. आजादी के बाद जिन महानुभावों ने साहित्य को जन से हटा कर उसे महफिल में बिठा दिया, वे लोग ही आज साहित्य के विशेषाधिकारों का दुरुपयोग कर रहे हैं.
संस्कृत में सम्मिलित समाज के दो न्याय हैं- नीर-क्षीर न्याय और तिल-तंडुल न्याय. पारस से जब वहां के निवासी अरब धर्मयोद्धाओं के अत्याचारों से संत्रस्त होकर भारत के पश्चिमी समुद्र तट पर आये और वहां के राजा से शरण मांगी, तो उस भारतीय राजा ने उनका स्वागत करते हुए कहा था कि आपका स्वागत है.
आप हमारे समाज में उसी तरह घुल-मिल जाइए, जैसे दूध में पानी या शर्करा. पारसियों ने अक्षरशः वही किया और वे पृथक धर्म के अनुयायी होते हुए भी हिंदू समाज के अभिन्न अंग बने हुए हैं. सदियों के इतिहास में कोई ऐसी घटना नहीं हुई है, जिसमें हिंदू-पारसी में हाथापाई की कौन कहे, तू तू-मैं मैं भी कभी हुई है. दूसरे न्याय में तिल और तंडुल (चावल) एक जगह रहते हुए भी अलग-अलग पहचान रखते हैं.
तिल के पास तेल है (तिलस्य तैलम्), इसलिए जमाना उसके कदमों पर है. तंडुल कभी अकेले रहने का आदि नहीं है, उसके साथ दलहन भी होना चाहिए और व्यंजन भी. नवधान्य की संकल्पना तंडुल की है. वह मानता है कि जब सातों रंग आपस में मिलेंगे, तभी उसका सफेद रंग बनेगा. लेकिन ठीक इसके विपरीत, तिल सबको अपने रंग में रंगने के लिए शुरू से ही कटिबद्ध है. उसका दृढ़ विश्वास है कि ईश्वर उसी रंग का है, जिस रंग का वह देखता है.
उसकी जिद यह है कि जो उसके रंग में नहीं रंगता, वह अन्न नहीं है और उसे दुनिया में रहने का कोई अधिकार नहीं है.भाग्य की विडंबना से, कई सदियों तक तिल का राज रहा, जिसमें तंडुल को अपनी सफेदी दूर करने के लिए विवश किया गया. तिल ने साम-दाम-दंड-भेद सब अपनाये. बहुत से तंडुल तिल बनने की कोशिश में लाल चावल हो गये और इस प्रकार अक्षत बनाने का अधिकार खो बैठे. लाल चावल टूटा न भी हो, तो भी दूर्वाक्षत या देवार्चन के काम नहीं आता. लेकिन आज की सबसे बड़ी और ज्वलंत समस्या यही है कि तंडुल के दिन फिर गये हैं और अब वह तिल से सवाल-जवाब करने लगा है, तर्क-वितर्क करने लगा है.
वह यह कहने लगा है कि मेरे देवी-देवता का मजाक उड़ाओगे, तो हम भी तुम्हें मुंहतोड़ जवाब देंगे. असहिष्णुता की जड़ यही है, जिसे सुविधाभोगी साहित्यकार पकड़ नहीं पा रहे हैं. एक फिल्मी लेखक ने स्वयं कोलकाता के लिटरेचर फेस्ट में खुलेआम स्वीकार किया कि पहले हम मंदिरों में जाकर भी देवी-देवताओं पर हास्य-व्यंग्य कर लेते थे और लोग बुरा नहीं मानते थे, मगर अब वहां भी कट्टरता आ गयी है. यानी मसजिदें तो कट्टर रहें, मगर मंदिर ‘सहना सिंह’ बने रहें. मंदिरों ने प्रतिवाद करना शुरू कर दिया है, यह असहिष्णुता की हद है!
कुछ साल पहले जब नया-नया देहरादून आया था, तब यहां के अजातशत्रु विद्वान गिरिजा शंकर त्रिवेदी मुझे नगर के एक रईस के यहां ईद का मुबारकवाद देने ले गये. वहां हमारे तमाम परिचित सिंह-राय आदि सींक कबाब पर टूटे पड़े थे. हम दोनों सेवइयां चख कर चले आये. अगले साल वे फिर मुझे चलने के लिए बोले, तो मैंने मना कर दिया. मैंने कहा कि दुनिया में त्योहार कोई ईद ही नहीं है, होली-दीवाली भी है. वे तो कभी बधाई देने नहीं आये, फिर एकतरफा रस्मे-वफा मैं ही क्यों निबाहूं. वे तो अपना धर्म निभाने चले गये, लेकिन मैं ‘असहिष्णु’ बन गया.
लोगों को याद हो या न हो, मगर मुझे अच्छी तरह याद है कि गजल गायक जगजीत सिंह ने पाकिस्तानी गायकों के भारत में प्रोग्राम देने पर स्पष्ट शब्दों में यह कह कर एेतराज जताया था कि जब भारतीय कलाकारों को पाकिस्तान न बुलाया जाये या बुलाने पर वहां अपमानित किया जाये, तब पाकिस्तान के कलाकारों को क्यों यहां आमंत्रित किया जाये?
उन्हीं जगजीत सिंह की पुण्य स्मृति में यदि पाकिस्तान से गुलाम अली को बुलाया गया, तो उसका विरोध असहिष्णुता कैसे हो गयी? विरोध उस बड़े कलाकार का नहीं, उस घटिया राजनीति का है, जो देश को तबाह करने पर तुली हुई है. गुलाम अली को बुलाने का मकसद उस बड़े गायक को अपनी ओछी राजनीति में लपेटना भर है. इसी तरह लिटरेचर फेस्ट में देश के प्रधानमंत्री के लिए प्रयुक्त अपशब्द साहित्य के पटरी से उतरने का संकेत भर है.
ऐसे महारथियों के कारण ही समाज में साहित्य-सृजन उपेक्षित हो रहा है और ‘बेअदब’ गणतंत्र के खतरे मंडराने लगे हैं; लोग सच को सच कहने से घबरा रहे हैं, सदियों की गुलामी के बाद मिली आजादी लक्ष्मण रेखा पार कर रावणों को बुलाने लगी है. इस समय कोई देवी-देवता नहीं, कोई संत-महात्मा नहीं, बस स्वामी विवेकानंद ही हमें सही दिशा दे सकते हैं.